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लातों का देव - पुरुषोत्तम पाण्डेय

इस साप्ताहिक स्तम्भ "बोलती कहानियाँ" के अंतर्गत हम हर सप्ताह आपको सुनवाते रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने हरीशंकर परसाई का व्यंग्य " यस सर " सुना था   अनुराग शर्मा के स्वर में। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं पुरुषोत्तम पाण्डेय की कहानी लातों का देव जिसे स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी "लातों का देव" का गद्य पुरुषोत्तम पाण्डेय के ब्लॉग जाले पर उपलब्ध है। इस कथा का कुल प्रसारण समय 6 मिनट 30 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं तो अधिक जानकारी के लिए कृपया admin@radioplaybackindia.com पर सम्पर्क करें। मेरी कहानियों का स्रोत आस-पास समाज में घटित घटनाओं तथा कहीं सुनी-पढ़ी बातें ही होती है। किसी व्यक्ति विशेष को चित्रित नहीं करता हूँ। अगर किसी घटना या चरित्र का कहीं साम्य लगता है तो ये एक संयोग ही होगा। ~ पुरुषोत्तम पाण्डेय हर सप्ताह यहीं पर सुनें एक

क्या प्यार की मदहोशियाँ और सुरीली सरगोशियाँ लौटेगीं ‘आशिकी’ के नए दौर में

प्लेबैक वाणी -4 3 - संगीत समीक्षा - आशिकी 2 महेश भट्ट और गुलशन कुमार ने मिलकर जब आशिकी की संकल्पना की थी नब्बे के दशक में, तो शायद ये अपने तरह की पहली फिल्म थी जिसके लिए गीतों का चयन पहले हुआ और फिर उन गीतों को माला में पिरोकर एक प्रेम कहानी लिखी गयी. फिल्म के माध्यम से राहुल रॉय और अनु अग्रवाल का फिल्म जगत में पदार्पण हुआ. ये कैसेट्स क्रांति का युग था जिसके कर्णधार खुद गुलशन कुमार थे. गुलशन कुमार हीरों के सच्चे पारखी थे, जिन्होंने चुना कुमार सानु, अलका याग्निक, अनुराधा पौडवाल और नितिन मुकेश को पार्श्वगायन के लिए, संगीत का जिम्मा सौंपा नदीम श्रवण को और गीतकार चुना समीर को. ये सभी कलाकार अपेक्षाकृत नए थे, मगर इस फिल्म के संगीत की सफलता के बाद ये सभी घर घर पहचाने जाने लगे. ये विज़न था गुलशन कुमार और महेश भट्ट का, जिसने तेज रिदम संगीत के सर चढ कर बोलते काल में ऐसे सरल, सुरीले और कर्णप्रिय संगीत को मार्केट किया. फिल्म के पोस्टर्स तक बेहद रचनात्मक रूप से रचे गए थे, जिसमें बेहद सफाई से युवा नायक और नायिका का चेहरा उजागर होने से बचाया गया था. ये आत्मविश्वास था उस निर्माता निर्देशक

ऋतु आधारित राग हैं इस रागमाला गीत में

स्वरगोष्ठी – 117 में आज रागों के रंग रागमाला गीत के संग – 4 ‘ऋतु आए ऋतु जाए सखी री मन के मीत न आए...’ ‘स्वरगोष्ठी’ के एक नये अंक के साथ मैं, कृष्णमोहन मिश्र अपने संगीत-प्रेमी पाठकों-श्रोताओं के बीच एक बार पुनः उपस्थित हूँ। आज के अंक में हम एक बार फिर लघु श्रृंखला ‘रागों के रंग रागमाला गीत के संग’ की अगली कड़ी प्रस्तुत कर रहे हैं। श्रृंखला के पिछले दो अंकों में हमने जो गीत शामिल किये थे, उनमे रागों के क्रम प्रहर के क्रमानुसार थे। परन्तु आज के रागमाला गीत में रागों का क्रम बदलते मौसम के अनुसार है। इस गीत में ग्रीष्म ऋतु का राग गौड़ सारंग, वर्षा ऋतु का राग गौड़ मल्हार, पतझड़ का राग जोगिया और बसन्त ऋतु का राग बहार क्रमशः शामिल किया गया है। रागमाला का यह गीत हमने 1953 प्रदर्शित फिल्म ‘हमदर्द’ से लिया है। फिल्म के संगीतकार हैं, अनिल विश्वास और इसे मन्ना डे और लता मंगेशकर ने गाया है।  अनिल विश्वास और लता मंगेशकर   ‘रा गमाला’ संगीत का वह प्रकार होता है, जिसमे किसी गीत में एक से अधिक रागों का प्रयोग हो और सभी राग स्वतंत्र रूप से रच

फ़िल्मी गीतों में संवरे राग भूपाली के विविध रंग

प्लेबैक ब्रोडकास्ट -  राग भूपाली  स्वर एवं प्रस्तुति -  संज्ञा टंडन  स्क्रिप्ट -  कृष्णमोहन मिश्र 

हरिशंकर परसाई की कहानी "यस सर"

इस साप्ताहिक स्तम्भ "बोलती कहानियाँ" के अंतर्गत हम हर सप्ताह आपको सुनवाते रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने दीपक बाबा की कहानी " जय प्रकाश उर्फ जे पी " सुनी थी अनुराग शर्मा के स्वर में। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार हरिशंकर परसाई का व्यंग्य यस सर जिसे स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी "यस सर" का गद्य प्रदीप कांत के तत्सम ब्लॉग पर उपलब्ध है। इस कथा का कुल प्रसारण समय 2 मिनट 31 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं तो अधिक जानकारी के लिए कृपया admin@radioplaybackindia.com पर सम्पर्क करें। मेरी जन्म-तारीख 22 अगस्त 1924 छपती है। यह भूल है। तारीख ठीक है। सन् गलत है। सही सन् 1922 है। । ~ हरिशंकर परसाई (1922-1995) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी मुख्यमंत्री को याद आया कि इनका कोई काम होना था।  ( हरिशंकर परसाई की "

एक डायन जो डराती नहीं, सुरीली तान छेड़ माहौल खुशगवार बनाती है!

प्लेबैक वाणी -4 2 - संगीत समीक्षा - एक थी डायन इस साल की शुरुआत विशाल और गुलज़ार की टीम रचित  मटरू की बिजिली का मंडोला  से हुई थी. यही सदाबहार जोड़ी एक बार फिर श्रोताओं के समक्ष है इस बार एक डायन की कहानी के बहाने. जी हाँ  एक थी डायन  के संगीत एल्बम के साथ वापसी कर रही है विशाल की पूरी की पूरी टीम. चलिए मिलते हैं इस संगीतमय डायन से आज.   सूरज से पहले जगायेंगें, और अखबार की सारी सुर्खियाँ पढ़ के सुनायेंगें...मुँह खुली जम्हायीं पर हम बजायेंगें चुटकियाँ.... बड़े ही अनूठे अंदाज़ से खुलता है ये गीत, जहाँ पहली पंक्ति से ही गुलज़ार साहब श्रोताओं के कान खड़े कर देते हैं. हालाँकि विशाल की धुन में कहीं कहीं  सात खून माफ  के ओ मामा  की झलक मिलती है, पर सच मानिये शब्दों का नयापन सारी खामियों को भर देता है, उस पर सुनिधि की आवाज़ जादू सा असर करती है. हालाँकि क्लिंटन की आवाज़ भी उनका भरपूर साथ देती है. सपने में मिलती है  में खनकती सुरेश वाडकर की आवाज़ आज भी दिल को गुदगुदा जाती है. संजीदा आवाज़ वाले सुरेश से मस्ती वाले ऐसे गीत विशाल बखूबी गवा सकते हैं.  तोते उड़ गए  एक ऐसा ही गाना है. 

स्वरगोष्ठी – 116 में आज : चैती गीतों के रंग

साप्ताहिक स्तम्भ स्वरगोष्ठी’ के एक नये अंक के साथ मैं, कृष्णमोहन मिश्र अपने संगीत-प्रेमी पाठकों-श्रोताओं के बीच एक बार पुनः उपस्थित हूँ। आज के अंक में हम संगीत की एक ऐसी शैली पर चर्चा करेंगे जो लोक संगीत की विधा में उतनी ही लोकप्रिय है, जितनी उप-शास्त्रीय में। ऋतु के अनुकूल इस गायकी को हम चैती के नाम से सम्बोधित करते हैं। होली के अगले दिन से भारतीय पंचांग का चैत्र मास और एक पखवारे के बाद पंचांग का नया वर्ष आरम्भ हो जाता है। इस अवसर पर और इस ऋतु विशेष में गाँव की चौपालों से लेकर शास्त्रीय मंचों पर चैती गीतों का गायन बेहद सुखदायी होता है।     प रम्परागत भारतीय संगीत शैलियों को आज़ादी के बाद, जाने-माने संगीतविद् ठाकुर जयदेव सिंह ने चार श्रेणी- शास्त्रीय, उप-शास्त्रीय, सुगम और लोक संगीत के रूप में वर्गीकृत किया था। इन विधाओं के अलग-अलग रंग हैं और इन्हें पसन्द करने वालों के अलग-अलग वर्ग भी हैं। लोक संगीत, वह चाहे किसी भी क्षेत्र का हो, उनमें ऋतु के अनुकूल गीतों का समृद्ध खज़ाना होता है। लोक संगीत की एक ऐसी ही विधा है, चैती। उत्तर भारत के पूरे ब्रज, बुन्देलखण्ड, अ