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त्योहारों की खुशियों में पहचानें कुछ छुपे चेहरे

20 अक्तूबर, 2012 सिने-पहेली # 42  'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी पाठकों और श्रोताओं को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार और हार्दिक स्वागत है आप सभी का, आपके मनपसन्द स्तम्भ 'सिने पहेली' में। सबसे पहले आप सबको नवरात्रि, दुर्गापूजा और दशहरे की हार्दिक शुभकामनाएँ देते हैं। उत्सव के ये 10 दिन आपके जीवन में ढेर सारी ख़ुशियाँ लेकर आये, और आने वाला वर्ष आपके लिए शुभ हो, मंगलमय हो, यही हम कामना करते हैं।  दो स्तों, पिछले कुछ दिनों से 'सिने पहेली' प्रतियोगिता में भाग लेने वाले प्रतियोगियों की संख्या में कटौती हुई है और न ही कोई नया खिलाड़ी इस खेल में शामिल हो रहा है। जब मैंने और कृष्णमोहन जी ने अपने-अपने मण्डलो में लोगों से इसका कारण पूछा तो अधिकतर ने यही बताया कि 'सिने पहेली' की पहेलियाँ बहुत कठिन होती हैं, जिनका उनके पास जवाब नहीं होता, वरना उन्हें इसमें भाग लेने में कोई परेशानी नहीं है। इसके जवाब में हम यही कहना चाहेंगे कि 'सिने पहेली' के प्रश्न इतने कठिन होने पर भी कई खिलाड़ी पूरे के पूरे अंक हासिल कर रहे हैं। ऐसे में अगर पहेली क

शब्दों में संसार - कवि और कविता

शब्दों में संसार - एपिसोड 02 - कवि और कविता   कवि , कुछ ऐसी तान सुनाओ , जिससे उथल-पुथल मच जाए , एक हिलोर इधर से आए , एक हिलोर उधर से आए , चकनाचूर करो जग को , गूँजे ब्रह्मांड नाश के स्वर से , रुद्ध गीत की क्रुद्ध तान है निकली मेरे अंतरतर से! नाश! नाश!! हा महानाश!!! की प्रलयंकारी आँख खुल जाए , कवि , कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाए। " विप्लव गान" करता यह कवि अपने दौर और आने वाले हर दौर के कवि को अंदर छुपी हिम्मत से वाकिफ करा रहा है। वह कह रहा है कि वक़्त ऐसे समय का आ चुका है जब शब्दों से ब्रह्मांड चूर-चूर करने होंगे , जब तानों में क्रोध जगाना होगा। कवि महानाश का आह्वान कर रहा है ताकि उस "प्रलयंकर" की तीसरी आँख खुल जाए और चहुं ओर उथल-पुथल मच जाए। कवि अपने शब्दों से क्रांति को जगा रहा है।  शब्दों में संसार की इस दूसरी कड़ी में आज विश्व दीपक लाये हैं, कवि की कविता और उसकी स्वयं की जिंदगी से जुड़े कुछ सवाल. इस अनूठी स्क्रिप्ट को आवाज़ से सजा रहे हैं अनुराग शर्मा और संज्ञा टंडन. आज की कड़ी में आप सुनेगें हरिवंश राय बच्चन, रघुवीर सहाय, अज्ञय,

स्मृतियों के झरोखे से : पार्श्व गायन की शुरुआत "धूप छांव" से

भूली-बिसरी यादें भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में आयोजित विशेष श्रृंखला ‘स्मृतियों के झरोखे से’ के एक नये अंक के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र अपने साथी सुजॉय चटर्जी के साथ आपके बीच उपस्थित हूँ और आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज मास का तीसरा गुरुवार है और इस दिन हम आपके लिए मूक और सवाक फिल्मों की कुछ रोचक दास्तान लेकर आते हैं। तो आइए पलटते हैं, भारतीय फिल्म-इतिहास के कुछ सुनहरे पृष्ठों को। यादें मूक फिल्म-युग की : लन्दन में भी प्रदर्शित हुआ ‘राजा हरिश्चन्द्र’   दा दा साहब फालके की बनाई पहली भारतीय मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ से ही भारतीय सिनेमा का इतिहास आरम्भ होता है। इस फिल्म का पूर्वावलोकन 21अप्रैल 1913 को और नियमित प्रदर्शन 3मई, 1913 को हुआ था। भारतीय दर्शकों के लिए परदे पर चलती-फिरती तस्वीरें देखना किसी चमत्कार से कम नहीं था। दादा साहब फालके ने इस फिल्म के निर्माण के लिए ‘फालके ऐंड कम्पनी’ की स्थापना बम्बई (अब मुम्बई) में की थी। फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ के प्रदर्शन के बाद फालके ने अपनी अगली फिल्मों का निर्माण नासिक में किया। इ

शास्त्रीय रागों में समय प्रबंधन

प्लेबैक इंडिया ब्रोडकास्ट (17) हर राग को गाये जाने  के लिए एक समय निर्धारित होता है, इनका विभाजन बेहद वैज्ञानिक है. दिन के आठ पहर और हर पहर से जुड़े हैं रागों के विभिन्न रूप. आज के ब्रोडकास्ट में इसी राग आधारित समय प्रबंधन पर एक चर्चा हमारी नियमित पॉडकास्टर संज्ञा टंडन के साथ. अवश्य सुनें और अपनी राय हम तक पहुंचाएं  

बोलती कहानियाँ - कमज़ोर - अन्तोन चेख़व

'बोलती कहानियाँ' स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में प्राख्यात साहित्यकार अमृतलाल नागर की कहानी " "कवि का साथ" का पॉडकास्ट सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं प्रसिद्ध रूसी लोकप्रिय लेखक श्री अन्तोन चेख़व की कहानी " कमज़ोर ", अनुराग शर्मा की आवाज़ में। कहानी " कमज़ोर " का टेक्स्ट "हिन्दी समय" पर उपलब्ध है। कहानी का कुल प्रसारण समय 3 मिनट 19 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।  यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं तो अधिक जानकारी के लिए कृपया admin@radioplaybackindia.com पर सम्पर्क करें। “किसी भी व्यक्ति की हर चीज़ अच्छी होनी चाहिए। चाहे उसका चेहरा हो या उसकी आत्मा। चाहे उसके कपड़े हों या उसके विचार।” ~  अन्तोन चेख़व (1860-1904) हर सप्ताह यहीं पर सुनें एक नयी कहानी "नहीं, नहीं, तीस में ही बात की थी । तुम

प्लेबैक इंडिया वाणी (२०) आइय्या , और आपकी बात-- बोल्ड थीम के अनुरूप ही बोल्ड है "आइय्या" का संगीत

संगीत समीक्षा -    आइय्या दोस्तों पिछले सप्ताह हमने बात की थी अमित त्रिवेदी के “इंग्लिश विन्गलिश” की और हमने अमित को आज का पंचम कहा था. अमित दरअसल वो कर सकते हैं जो एक श्रोता के लिहाज से शायद हम उनसे उम्मीद भी न करें. उन्होंने हमें कई बार चौंकाया है. लीजिए तैयार हो जाईये एक बार फिर हैरान होने के लिए. जी हाँ आज हम चर्चा कर रहे उनकी एक और नयी फिल्म “आइय्या” का, जिसमें वो लौटे हैं अपने प्रिय गीतकार अमिताभ भट्टाचार्य के साथ. मुझे लगता है कि अमिताभ भी अमित के साथ जब मिलते हैं तो अपने श्रेष्ठ दे पाते हैं. आईये जानें की क्या है आइय्या के संगीत में आपके लिए. हाँ वैधानिक चेतावनी एक जरूरी है. दोस्तों ये संगीत ऐसा नहीं है कि आप पूरे परिवार के साथ बैठ कर सुन सकें. हाँ मगर अकेले में आप इसका भरपूर आनंद ले सकते हैं. वैसे बताना हमारा फ़र्ज़ था बाकी आप बेहतर जानते हैं. खैर बढते हैं अल्बम के पहले गीत की तरफ. ८० के डिस्को साउंड के साथ शुरू होता है “ड्रीमम वेकपम” गीत, जो जल्दी ही दक्षिण के रिदम में ढल जाता है. पारंपरिक नागास्वरम और मृदंग मिलकर एक पूरा माहौल ही रच डालते हैं. ये गीत आपको ह

फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी – ३

स्वरगोष्ठी – ९२ में आज  मन्ना डे ने गाया उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ का दादरा ‘बनाओ बतियाँ चलो काहे को झूठी...’   ‘स्वरगोष्ठी’ पर जारी लघु श्रृंखला ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ के एक नए अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला में हम कुछ ऐसी ठुमरियों पर चर्चा कर रहे हैं, जिन्हें स्वयं मूल गायक-गायिका ने अथवा किसी फिल्मी पार्श्वगायक-गायिका ने फिल्म में भी गाया है। पिछले दो अंकों में हमने आपसे क्रमशः उस्ताद अब्दुल करीम खाँ और बेगम अख्तर की गायी ठुमरियों के फिल्मी प्रयोग पर चर्चा की थी। आज के अंक में हम ‘आफ़ताब-ए-मौसिकी’ के खिताब से नवाज़े गए उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ के व्यक्तित्व पर चर्चा करेंगे। साथ ही उनके गाये एक दादरा- “बनाओ बतियाँ चलो काहे को झूठी...” और उसके फिल्मी प्रयोग का भी उल्लेख करेंगे। उ न्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक से लेकर पिछली शताब्दी के मध्यकाल तक के जिन संगीतज्ञों की गणना हम शिखर-पुरुष के रूप में करते हैं, उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ उन्ही में से एक थे। ध्रुवपद-धमार, खयाल-तराना, ठुमरी-दादरा,