ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 670/2011/110 "मे रे पीछे ये तो मोहाल है कि ज़माना गर्म-ए-सफ़र न हो, कि नहीं मेरा कोई नक़्श-ए-पाँव जो चिराग़-ए-राह-गुज़र न हो", मजरूह साहब के लेखनी की विविधता ऐसी है कि आने वाली तमाम पीढ़ियाँ उनके लेखनी से प्रभावित होती रहेंगी। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों मजरूह सुल्तानपुरी के गीतों का जो कारवाँ चला जा रहा था, वह कारवाँ आज की कड़ी में जाकर कुछ समय के लिये पड़ाव डाल रहा है। '...और कारवाँ बनता गया' शृंखला की आज है दसवीं और अंतिम कड़ी। १९४६ में 'शाहजहाँ' से जो कारवाँ चल पड़ा था, वह आकर रुका था १९९९ में फ़िल्म 'जानम समझा करो' पे आकर। राहुल देव बर्मन वाले अंक में हमनें ज़िक्र किया था उन फ़िल्मों का जिनमें नासिर हुसैन, मजरूह सुल्तानपुरी और राहुल देव बर्मन की तिकड़ी का संगम था। पंचम को अलग रखें तो नासिर साहब के साथ मजरूह साहब नें पंचम के आने से पहले 'फिर वही दिल लाया हूँ' तथा पंचम के बाद आनंद-मिलिंद के साथ 'क़यामत से क़यामत तक', जतीन-ललित के साथ 'जो जीता वही सिकंदर' और अनु मलिक के साथ 'अकेले हम अकेले