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मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे...कौन लिख सकता है ऐसा गीत कवि शैलेन्द्र के अलावा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 545/2010/245 हिं दी सिनेमा के लौह स्तंभों में एक स्तंभ बिमल रॊय पर केन्द्रित लघु शृंखला की पाँचवी और अंतिम कड़ी लेकर हम हाज़िर हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में। ६० के दशक की शुरुआत भी बिमल दा ने ज़रबरदस्त तरीक़े से की १९६० में बनी फ़िल्म 'परख' के ज़रिए। एक बार फिर सलिल चौधरी के संगीत ने रसवर्षा की। इस फ़िल्म का सब से लोकप्रिय गीत " ओ सजना बरखा बहार आई " हम सुनवा चुके हैं। इस फ़िल्म की विशेषता यह है कि इसके गीतकार और संगीतकार ने गीत लेखन और संगीत निर्देशन के अलावा भी एक एक और महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। जी हाँ, गीतकार शैलेन्द्र ने इस फ़िल्म में गानें लिखने के साथ साथ संवाद भी लिखे, तथा सलिल चौधरी ने संगीत देने के साथ साथ फ़िल्म की कहानी भी लिखी। बिमल दा ने ५० और ६० के दशकों में बारी बारी से सलिल दा और बर्मन दादा के धुनों का सहारा लिया। बिमल दा पर आधारित इस शृंखला का पहला गीत हमने सलिल दा का सुनवाया था, दूसरा गीत अरुण कुमार के संगीत में, और बाक़ी के तीन गीत सचिन दा के संगीत में। 'परख' के बाद १९६२ में आई फ़िल्म 'प्रेमपत्र'।

काली घटा छाये मोरा जिया तरसाए.....पर्दे पर नूतन का अभिनय और आशा ताई के स्वर जैसे एक कसक भरी चुभन

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 544/2010/244 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की इस महफ़िल में आप सभी का फिर एक बार स्वागत है। 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' शृंखला के अंतर्गत इन दिनों आप इसके तीसरे खण्ड में सुन रहे हैं महान फ़िल्मकार बिमल रॊय निर्देशित फ़िल्मों के गानें, और इनके साथ साथ बिमल दा के फ़िल्मी सफ़र पर भी हम अपनी नज़र दौड़ा रहे हैं। कल हमारी बातचीत आकर रुकी थी १९५५ की फ़िल्म 'देवदास' पर। १९५६ में बिमल दा ने एक फ़िल्म तो बनाई, लेकिन उन्होंने ख़ुद इसको निर्देशित नहीं किया। असित सेन निर्देशित यह फ़िल्म थी 'परिवार'। सलिल चौधरी के धुनों से सजी इस फ़िल्म के गानें बेहद मधुर थे, जैसे कि लता-मन्ना का "जा तोसे नहीं बोलूँ कन्हैया" और लता-हेमन्त का " झिर झिर झिर झिर बदरवा बरसे " (इस गीत को हम सुनवा चुके हैं)। बिमल रॊय और सलिल चौधरी की जोड़ी १९५७ में नज़र आई फ़िल्म 'अपराधी कौन' में, और इसके भी निर्देशक थे असित सेन। बिमल दा ने एक बार फिर निर्देशन की कमान सम्भाली बॊम्बे फ़िल्म्स के बैनर तले बनी १९५८ की फ़िल्म 'यहूदी' में। मुकेश के गाये "ये मे

है जिसकी रंगत शज़र-शज़र में, खुदा वही है.. कविता सेठ ने सूफ़ियाना कलाम की रंगत हीं बदल दी है

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०५ इ ससे पहले कि हम आज की महफ़िल की शुरूआत करें, मैं अश्विनी जी (अश्विनी कुमार रॉय) का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा। आपने हमें पूरी की पूरी नज़्म समझा दी। नज़्म समझकर हीं यह पता चला कि "और" कितना दर्द छुपा है "छल्ला" में जो हम भाषा न जानने के कारण महसूस नहीं कर पा रहे थे। आभार प्रकट करने के साथ-साथ हम आपसे दरख्वास्त करना चाहेंगे कि महफ़िल को अपना समझें और नियमित हो जाएँ यानि कि ग़ज़ल और शेर लेकर महफ़िल की शामों (एवं सुबहों) को रौशन करने आ जाएँ। आपसे हमें और भी बहुत कुछ सीखना है, जानना है, इसलिए उम्मीद है कि आप हमारी अपील पर गौर करेंगे। धन्यवाद! आज हम अपनी महफ़िल को उस गायिका की नज़र करने वाले हैं, जो यूँ तो अपनी सूफ़ियाना गायकी के लिए मक़बूल है, लेकिन लोगों ने उन्हें तब जाना, तब पहचाना जब उनका "इकतारा" सिद्दार्थ (सिड) को जगाने के लिए फिल्मी गानों के गलियारे में गूंज उठा। एकबारगी "इकतारा" क्या बजा, फिल्मी गानों और "पुरस्कारों" का रूख हीं मुड़ गया इनकी ओर। २००९ का ऐसा कौन-सा पुरस्कार है, ऐसा कौन-सा सम्मान है, जो इन्हें न मिल

वो न आयेंगें पलट के, उन्हें लाख हम बुलाएं....मुबारक बेगम की आवाज़ में चंद्रमुखी के जज़्बात

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 543/2010/243 'हिं दी सिनेमा के लौह स्तंभ' - 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला के तीसरे खण्ड में इन दिनों आप सुन रहे हैं बिमल रॊय निर्देशित फ़िल्मों के गीत और बिमल दा के फ़िल्मी यात्रा का विवरण। कल बात आकर रुकी थी 'परिणीता' में। १९५४ से अब बात को आगे बढ़ाते हैं। इस साल बिमल दा के निर्देशन में तीन फ़िल्में आईं - 'नौकरी', 'बिराज बहू' और 'बाप-बेटी'। 'नौकरी' 'दो बीघा ज़मीन' का ही शहरीकरण था। फ़िल्म में किशोर कुमार को नायक बनाया गया था, लेकिन यह फ़िल्म 'दो बीघा ज़मीन' जैसा कमाल नहीं दिखा सकी, हालाँकि "छोटा सा घर होगा बादलों की छाँव में" गीत ख़ूब लोकप्रिय हुआ। 'बिराज बहू' भी शरतचन्द्र की इसी नाम की उपन्यास पर बनी थी जिसका निर्माण किया था हितेन चौधरी ने। 'नौकरी' और 'बिराज बहू' में सलिल दा का संगीत था, लेकिन 'बाप-बेटी' में संगीत दिया रोशन ने। फिर आया साल १९५५ और एक बार फिर शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय की लोकप्रिय उपन्यास 'देवदास' पर बिमल रॊय ने फ़िल्म बनाई

सुर्खियों से बुनती है मकड़ी की जाली रे.. "नो वन किल्ड जेसिका" के संगीत की कमान संभाली अमित-अमिताभ ने

सुजॉय जी की अनुपस्थिति में एक बार फिर ताज़ा-सुर-ताल की बागडोर संभालने हम आ पहुँचे हैं। जैसा कि मैंने दो हफ़्ते पहले कहा था कि गानों की समीक्षा कभी मैं करूँगा तो कभी सजीव जी। मुझे "बैंड बाजा बारात" के गाने पसंद आए थे तो मैंने उनकी समीक्षा कर दी, वहीं सजीव जी को "तीस मार खां" ने अपने माया-जाल में फांस लिया तो सजीव जी उधर हो लिए। अब प्रश्न था कि इस बार किस फिल्म के गानों को अपने श्रोताओं को सुनाया जाए और ये सुनने-सुनाने का जिम्मा किसे सौंपा जाए। अच्छी बात थी कि मेरी और सजीव जी.. दोनों की राय एक हीं फिल्म के बारे में बनी और सजीव जी ने "बैटन" मुझे थमा दिया। वैसे भी क्रम के हिसाब से बारी मेरी हीं थी और "मन" के हिसाब से मैं हीं इस पर लिखना चाहता था। अब जहाँ "देव-डी" और "उड़ान" की संगीतकार-गीतकार-जोड़ी मैदान में हो, तो उन्हें निहारने और उनका सान्निध्य पाने की किसकी लालसा न होगी। आज के दौर में "अमित त्रिवेदी" एक ऐसा नाम, एक ऐसा ब्रांड बन चुके हैं, जिन्हें परिचय की कोई आवश्यकता नहीं। अगर यह कहा जाए कि इनकी सफ़लता का दर (सक्सेस

चली राधे रानी, आँखों में पानी....भक्ति और प्रेम का समावेश है ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 542/2010/242 "W ith his very first film Udayer Pathe (Hamrahi in Hindi), Bimal Roy was able to sweep aside the cobwebs of the old tradition and introduce a realism and subtely that was wholly suited to the cinema. He was undoubtedly a pioneer. He reached his peak with a film that still reverberates in the minds of those who saw it when it was first made. I refer to Do Bigha Zamin, which remains one of the landmarks of Indian Cinema."~ Satyajit Ray सत्यजीत रे के इन उद्गारों के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की आज की महफ़िल की हम शमा जला रहे हैं। बिमल रॊय के फ़िल्मी सफ़र की कहनी कल आकर रुकी थी न्यु थिएटर्स में उनके द्वारा किए गये छायांकन वाले फ़िल्मों तक। इस तरह से तक़नीकी सहायक के रूप में कार्य करने के बद बिमल दा को पहली बार फ़िल्म निर्देशन का मौका मिला सन् १९४४ में, और वह बंगला फ़िल्म थी 'उदयेर पौथे' (उदय के पथ पर)। इसी फ़िल्म का हिंदी में अगले ही साल निर्माण हुआ जिसका शीर्षक रखा गया था 'हमराही'। यह फ़िल्म श्रेणी विभाजन (class discriminat

आजा री आ, निंदिया तू आ......कहाँ सुनने को मिल सकती है ऐसी मीठी लोरी आज के दौर में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 541/2010/241 न मस्कार! दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस नई सप्ताह में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में जारी है लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ'। इसके पहले और दूसरे खण्डों में आपने क्रम से वी. शांताराम और महबूब ख़ान के फ़िल्मी सफ़र की कहानी जानी और साथ ही इनके पाँच पाँच फ़िल्मों के गानें सुनें। आज से हम शुरु कर रहे हैं इस शृंखला का तीसरा खण्ड, और इस खण्ड के लिए हमने चुना है एक और महान फ़िल्मकार को, जिन्हें हम बिमल रॊय के नाम से जानते हैं। बिमल रॊय हिंदी सिनेमा के बेहतरीन निर्देशकों में से एक हैं जिनकी फ़िल्में कालजयी बन गईं हैं। उनकी सामाजिक और सार्थक फ़िल्मों, जैसे कि 'दो बिघा ज़मीन, परिणीता', 'बिराज बहू', 'मधुमती', 'सुजाता' और 'बंदिनी' ने उन्हें शीर्ष फ़िल्मकारों में दर्ज कर लिया। आइए बिमल दा क्ली कहानी शुरु करें शुरु से। बिमल रॊय का जन्म १२ जुलाई १९०९ के दिन ढाका के एक बंगाली परिवार में हुआ था। उस समय ढाका ब्रिटिश भारत का हिस्सा हुआ करता था, और जो अब बांगलादेश की र