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जाने क्या सोच कर नहीं गुजरा....गुलज़ार साहब के गीतों से सजा हर लम्हा कुछ सोचता रुक जाता है हमारे जीवन में भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 470/2010/170 ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर गुलज़ार साहब के लिखे गीतों की लघु शृंखला 'मुसाफ़िर हूँ यारों' की अंतिम कड़ी में आपका स्वागत है। दोस्तों, अभी शायद कल ही हमने ज़िक्र किया था गुलज़ार साहब के ग़ैर पारम्परिक रूपक और उपमाओं का। जिस ख़ूबसूरती से वो रूपकों का इस्तेमाल करते है, उसी अंदाज़ में विरोधाभास का एक उदाहरन देखिए कि जब वो लिखते हैं "जाने क्या सोच कर नहीं गुज़रा, एक पल रात भर नहीं गुज़रा"। एक पल जो हक़ीक़त में एक पल में ही गुज़र जाता है, गुलज़ार साहब ने उस पल को रात भर नहीं गुज़रने दिया। विरोधाभास का इससे बेहतर इस्तेमाल भला और क्या हो सकता है। आज फ़िल्म 'किनारा' के इसी गीत के साथ इस शृंखला का समापन कर रहे हैं। राहुल देव बर्मन की तर्ज़ पर यह गीत किशोर कुमार ने गाया था। गुलज़ार साहब के शब्दों में ये रही इस गीत की भूमिका - "ज़िंदगी कभी पलों में गुज़र जाती है, कभी ज़िंदगी भर एक पल नहीं गुज़रता। इंदर की ज़िंदगी में भी ऐसा ही एक पल ठहर गया था जिसे वो आरति के नाम से पहचान सकता था। रात गुज़र रही थी लेकिन वह एक पल सारी रात पे भारी था। जा

रोज अकेली आये, चाँद कटोरा लिए भिखारिन रात.....गुलज़ार साहब की अद्भुत कल्पना और सलिल दा के सुर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 469/2010/169 'मु साफ़िर हूँ यारों', गुलज़ार साहब के लिखे गीतों के इस लघु शृंखला की आज नवी कड़ी है। अब तक इसमें आपने गुलज़ार साहब के साथ जिन संगीतकारों के गीत सुनें, वो हैं राहुल देव बर्मन, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, शंकर-जयकिशन, वसंत देसाई, इलैयाराजा और कल्याणजी-आनंदजी। आज बारी है संगीतकार सलिल चौधरी की। गुलज़ार साहब और सलिल दा के कम्बिनेशन का कौन सा गीत हमने चुना है, उस पर हम अभी आते हैं, उससे पहले गुलज़ार साहब की शान में कुछ कहने को जी चाहता है। गुलज़ार साहब ने अपने अनोखे अंदाज़ में पुराने शब्दों को भी जैसे नए पहचान दिए हों। उनके ख़ूबसूरत रूपक और उपमाएँ सचमुच हमें हैरत में डाल देते हैं और यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि ऐसा भी कोई सोच सकता है! उनके गीतों में कभी तारे ज़मीं पर चलते हैं तो कभी सर से आसमान उड़ जाता है। धूप, मिट्टी, रात, बारिश, ज़मीन, आसमान और बूंदों को नए नए रूप में हमारे सामने लाते रहे हैं गुलज़ार साहब। अब रात और चांद जैसे शब्दों को ही ले लीजिए। न जाने कितने असंख्य गीत बनें हैं "चाँद" और "रात" पर। लेकिन जब गुलज़ार साहब न

तुम्हें जिंदगी के उजाले मुबारक....एक गैर-गुलज़ारनुमा गीत, जो याद दिलाता है मुकेश और कल्याणजी भाई की भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 468/2010/168 र क्षाबंधन के शुभवसर पर सभी दोस्तों को हम अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ देते हुए आज की यह प्रस्तुति शुरु कर रहे हैं। दोस्तों, आज रक्षाबंधन के साथ साथ २४ अगस्त भी है। आज ही के दिन सन् २००० को संगीतकार जोड़ी कल्याणजी-आनंदजी के कल्याणजी भाई हम से हमेशा के लिए दूर चले गए थे। आज जब हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर गुलज़ार साहब के लिखे गीतों की शृंखला प्रस्तुत कर रहे हैं, तो आपको यह भी बता दें कि गुलज़ार साहब ने एक फ़िल्म में कल्याणजी-आनंदजी के लिए गीत लिखे थे। और वह फ़िल्म थी 'पूर्णिमा'। आज कल्याणजी भाई के स्मृति दिवस पर आइए उसी फ़िल्म से एक बेहद प्यारा सा दर्द भरा गीत सुनते हैं मुकेश की आवाज़ में - "तुम्हे ज़िंदगी के उजाले मुबारक़, अंधेरे हमें आज रास आ गए हैं, तुम्हे पाके हम ख़ुद से दूर हो गए थे, तुम्हे छोड़ कर अपने पास आ गए हैं"। अभी दो दिन बाद, २७ अगस्त को मुकेश जी की भी पुण्यतिथि है। इसलिए आज के इस गीत के ज़रिए हम कल्याणजी भाई और मुकेश जी, दोनों को ही श्रद्धांजली अर्पित कर रहे हैं।'पूर्णिमा' १९६५ की फ़िल्म थी और उन दिनों गुलज़ार साह

दिल खोल के लेट्स रॉक....करण जौहर लाये हैं एक बार फिर "फैमिली" में शंकर एहसान लॉय के संगीत का तड़का

ताज़ा सुर ताल ३२/२०१० सुजॊय - नमस्कार! आप सभी को रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनएँ और विश्व दीपक जी, आपको भी। विश्व दीपक - सभी श्रोताओं व पाठकों और सुजॉय, तुम्हे भी मेरी ओर से ढेरों शुभकमानाएँ! सुजॉय, रक्षाबंधन भाई बहन के प्यार का पर्व है। इस दिन बहन अपने भाई की कलाई पर राखी बाँधते हुए उसके सुरक्षा की कामना करती है और भाई भी अपनी बहन को ख़ुश रखने और उसकी रक्षा करने का प्रण लेता है। कुल मिलाकर पारिवारिक सौहार्द का यह त्योहार है। सुजॉय - जी हाँ, यह एक पारिवारिक त्योहार है और आपने परिवार, यानी फ़ैमिली का ज़िक्र छेड़ा तो मुझे याद आया कि पिछले हफ़्ते हमने वादा किया था कि इस हफ़्ते हम 'टी.एस.टी' में 'वी आर फ़ैमिली' के गानें सुनवाएँगे। तो लीजिए, रक्षाबंधन पर आप सभी अपने फ़मिली के साथ आनंद लीजिए इसी फ़िल्म के गानों का। आज छुट्टी का दिन है, आप सब के फ़ैमिली मेम्बर्स घर पर ही मौजूद होंगे, तो राखी पर्व की ख़ुशियाँ मनाइए 'वी आर फैमिली' के गीतों को सुनते हुए। विश्व दीपक - इससे पहले की फ़िल्म का पहला गाना सुनें, मैं यह बता दूँ कि यह धर्मा प्रोडक्शन्स यानी कि करण जोहर की निर्

सुरमई अंखियों में नन्हा मुन्ना एक सपना दे जा रे.....एक स्वर्ग से उतरी लोरी, येसुदास की पाक आवाज़ में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 467/2010/167 ब च्चों के साथ गुलज़ार साहब का पुराना नाता रहा है। गुलज़ार साहब को बच्चे बेहद पसंद है, और समय समय पर उनके लिए कुछ यादगार गानें भी लिखे हैं बिल्कुल बच्चों वाले अंदाज़ में ही। मसलन "लकड़ी की काठी", "सा रे के सा रे ग म को लेकर गाते चले", "मास्टरजी की आ गई चिट्ठी", आदि। बच्चों के लिए उनके लिखे गीतों और कहानियों में तितलियाँ नृत्य करते हैं, पंछियाँ गीत गाते हैं, बच्चे शैतानी करते है। जीवन के चिर परिचीत पहलुओं और संसार की उन जानी पहचानी ध्वनियों की अनुगूंज सुनाई देती है गुलज़ार के गीतों में। बच्चों के गीतों की बात करें तो एक जौनर इसमें लोरियों का भी होता है। गुलज़ार साहब के लिखे लोरियों की बात करें तो दो लोरियाँ उन्होंने ऐसी लिखी है कि जो कालजयी बन कर रह गई हैं। एक तो है फ़िल्म 'मासूम' का "दो नैना और एक कहानी", जिसे गा कर आरती मुखर्जी ने फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीता था, और दूसरी लोरी है फ़िल्म 'सदमा' का "सुरमयी अखियों में नन्हा मुन्ना एक सपना दे जा रे"। येसुदास की नर्म मख़मली आवाज़ में यह लोरी

जीवन से लंबे हैं बंधु, ये जीवन के रस्ते...गुलज़ार साहब की कलम और मन्ना दा की आवाज़, एक बेमिसाल गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 466/2010/166 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों का एक बार फिर से स्वागत है पुराने सदाबहार गीतों की इस महफ़िल में। जैसा कि आप जानते हैं इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है गीतकार, शायर, लेखक व फ़िल्मकार गुलज़ार साहब के लिखे फ़िल्मी गीतों पर केन्द्रित शृंखला 'मुसाफ़िर हूँ यारों', तो आज जिस गीत की बारी है, वह भी कुछ मुसाफ़िर और रास्तों से ताल्लुख़ रखता है। और ये रास्ते हैं ज़िंदगी के रास्ते। इस गीत में भी ज़िंदगी का एक कड़वा सत्य उजागर होता है, जिसे बहुत ही मर्मस्पर्शी शब्दों से संवारा है गुलज़ार साहब ने। "जीवन से लम्बे हैं बंधु ये जीवन के रस्ते, एक पल रुक कर रोना होगा, एक पल चल के हँस के, ये जीवन के रस्ते"। दादामुनि अशोक कुमार पर फ़िल्माये और मन्ना डे के गाए फ़िल्म 'आशिर्वाद' के इस गीत को सुन कर भले ही दिल उदास हो जाता है, आँखें नम हो जाती हैं, लेकिन जीवन के इस कटु सत्य को नज़रंदाज़ भी तो नहीं किया जा सकता। सुखों और दुखों का मेला है ज़िंदगी, और निरंतर चलते रहने का नाम है ज़िंदगी, बस यही दो सीख हैं इस गीत में। वसंत देसाई के

रविवार सुबह की कॉफी और हिंदी सिनेमा में मुस्लिम समाज के चित्रण पर एक चर्चा

भारतीय फिल्म जगत में समय समय पर कई प्रकार के दौर आये हैं. और इन्ही विशेष दौर से मुड़ते हुए भारतीय सिनेमा भी चल्रता रहा कभी पथरीली सड़क की तरह कम बजट वाली फ़िल्में तो कभी गृहस्थी में फसे दांपत्य जीवन को निशाना बनाया गया, लेकिन हर दौर में जो भी फ़िल्में बनीं हर एक फिल्म किसी न किसी रूप से किसी न किसी संस्कृति से जुड़ीं रहीं. जैसे बैजू बावरा (१९५२) को लें तो इस फिल्म में नायक नायिका के बीच प्रेम कहानी के साथ साथ एतिहासिक पृष्ठभूमि, गुरु शिष्य के सम्बन्ध, संगीत की महिमा का गुणगान भी किया गया है. भारतीय फिल्मों में एक ख़ास समाज या धर्म को लेकर भी फ़िल्में बनती रहीं और कामयाब भी होती रहीं. भारत बेशक हिन्दू राष्ट्र है लेकिन यहाँ और धर्मों की गिनती कम नहीं है. अपनी भाषा शैली, संस्कृति और रीति रिवाजों से मुस्लिम समाज एक अलग ही पहचान रखता है. भारतीय सिनेमा भी इस समाज से अछूता नहीं रहा और समय समय पर इस समाज पर कभी इसकी भाषा शैली, संस्कृति और कभी रीति रिवाजों को लेकर फ़िल्में बनीं और समाज को एक नयी दिशा दी. सिनेमा जब से शुरू हुआ तब से ही निर्माताओं को इस समाज ने आकर्षित किया और इसकी शुरुआत ३० के