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और इस दिल में क्या रखा है....कल्याणजी आनंदजी जैसे संगीतकारों के रचे ऐसे गीतों के सिवा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 430/2010/130 क ल्याणजी-आनंदजी के स्वरबद्ध गीतों को सुनते हुए आज हम आ पहुँचे हैं लघु शृंखला 'दिल लूटने वाले जादूगर' की अंतिम कड़ी पर। आपने पिछली नौ कड़ियों में महसूस किया होगा कि किस तरह से बदलते वक़्त के साथ साथ इस संगीतकार जोड़ी ने अपने आप को बदला, अपनी स्टाइल में बदलाव लाए, जिससे कि हर दौर में उनका संगीत हिट हुआ। आज अंतिम कड़ी में हम सुनेंगे ८० के दशक का एक गीत। युं तो १९८९ में बनी फ़िल्म 'त्रिदेव' को ही कल्याणजी-आनंदजी की अंतिम हिट फ़िल्म मानी जाती है (हालाँकि उसके बाद भी कुछ कमचर्चित फ़िल्मों में उन्होने संगीत दिया), लेकिन आज हम आपको 'त्रिदेव' नहीं बल्कि १९८७ की फ़िल्म 'ईमानदार' का एक बड़ा ही ख़ूबसूरत गीत सुनवाना चाहते हैं। जी हाँ, बिलकुल सही पहचाना, "और इस दिल में क्या रखा है, तेरा ही दर्द छुपा रखा है"। इस गीत के कम से कम दो वर्ज़न है, एक आशा और सुरेश वाडकर का डुएट है, और दूसरा सुरेश की एकल आवाज़ में। आज आपको सुनवा रहे हैं सुरेश वाडकर की एकल आवाज़। गाना मॊडर्ण है, लेकिन जो पैथोस गीतकार प्रकाश मेहरा ने इस गीत में डाल

किसी राह में, किसी मोड पर....कहीं छूटे न साथ ओल्ड इस गोल्ड के हमारे हमसफरों का

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 429/2010/129 क ल्याणजी-आनंदजी के सुर लहरियों से सजी इस लघु शृंखला 'दिल लूटने वाले जादूगर' में आज छा रहा है शास्त्रीय रंग। इसे एक रोचक तथ्य ही माना जाना चाहिए कि तुलनात्मक रूप से कम लोकप्रिय राग चारूकेशी पर कल्याणजी-आनंदजी ने कई गीत कम्पोज़ किए हैं जो बेहद कामयाब सिद्ध हुए हैं। चारूकेशी के सुरों को आधार बनाकर "छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए" (सरस्वतीचन्द्र), "मोहब्बत के सुहाने दिन, जवानी की हसीन रातें" (मर्यादा), "किसी राह में किसी मोड़ पर (मेरे हमसफ़र), "अकेले हैं चले आओ" (राज़), "एक तू ना मिला" (हिमालय की गोद में), "कभी रात दिन हम दूर थे" (आमने सामने), "बेख़ुदी में सनम उठ गए जो क़दम" (हसीना मान जाएगी), "जानेजाना, जब जब तेरी सूरत देखूँ" (जाँबाज़) जैसे गीतों की याद कल्याणजी-आनंदजी के द्वारा इस राग के विविध प्रयोगों के उदाहरण के रूप में फ़िल्म संगीत में जीवित रहेगी। चारूकेशी का इतना व्यापक व विविध इस्तेमाल शायद ही किसी और संगीतकार ने किया होगा! दूसरे संगीतकारों के जो दो चार गानें

हमने काटी हैं तेरी याद में रातें अक्सर.. यादें गढने और चेहरे पढने में उलझे हैं रूप कुमार और जाँ निसार

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९० "जाँ निसार अख्तर साहिर लुधियानवी के घोस्ट राइटर थे।" निदा फ़ाज़ली साहब का यह कथन सुनकर आश्चर्य होता है.. घोर आश्चर्य। पता करने पर मालूम हुआ कि जाँ निसार अख्तर और निदा फ़ाज़ली दोनों हीं साहिर लुधियानवी के घर रहा करते थे बंबई में। अब अगर यह बात है तब तो निदा फ़ाज़ली की कही बातों में सच्चाई तो होनी हीं चाहिए। कितनी सच्चाई है इसका फ़ैसला तो नहीं किया जा सकता लेकिन "नीरज गोस्वामी" जी के ब्लाग पर "जाँ निसार" साहब के संस्मरण के दौरान इन पंक्तियों को देखकर निदा फ़ाज़ली के आरोपों को एक नया मोड़ मिल जाता है - "जांनिसार साहब ने अपनी ज़िन्दगी के सबसे हसीन साल साहिर लुधियानवी के साथ उसकी दोस्ती में गर्क कर दिए. वो साहिर के साए में ही रहे और साहिर ने उन्हें उभरने का मौका नहीं दिया लेकिन जैसे वो ही साहिर की दोस्ती से आज़ाद हुए उनमें और उनकी शायरी में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ. उसके बाद उन्होंने जो लिखा उस से उर्दू शायरी के हुस्न में कई गुणा ईजाफा हुआ." पिछली महफ़िल में "साहिर" के ग़मों और दर्दों की दुनिया से गुजरने के बाद उनके बारे

ये मेरा दिल यार का दीवाना...जबरदस्त ऒरकेस्ट्रेशन का उत्कृष्ट नमूना है ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 428/2010/128 'दि ल लूटने वाले जादूगर' - कल्याणजी-आनंदजी के धुनों से सजी इस लघु शृंखला में आज हम और थोड़ा सा आगे बढ़ते हुए पहुँच जाते हैं सन‍ १९७८ में। ७० के दशक के मध्य भाग से हिंदी फ़िल्मों का स्वरूप बदलने लगा था। नर्मोनाज़ुक प्रेम कहानियो से हट कर, ऐंग्री यंग मैन की इमेज हमारे नायकों को दिया जाने लगा। इससे ना केवल कहानियों से मासूमीयत ग़ायब होने लगी, बल्कि इसका प्रभाव फ़िल्म के गीतों पर भी पड़ा। क्योंकि गानें फ़िल्म के किरदार और सिचुयशन को केन्द्र में रखते हुए ही बनाए जाते हैं, ऐसे में गीतकारों और संगीतकारों को भी उसी सांचे में अपने आप को ढालना पड़ा। जो नहीं ढल सके, वो पीछे रह गए। कल्याणजी-आनंदजी एक ऐसे संगीतकार थे जिन्होने हर बदलते दौर को स्वीकारा और उसी के हिसाब से सगीत तैयार किया। और यही वजह है कि १९५८ में उनके गानें जितने लोकप्रिय हुआ करते थे, ८० के दशक में भी लोगों ने उनके गीतों को वैसे ही हाथों हाथ ग्रहण किया। हाँ, तो हम ज़िक्र कर रहे थे १९७८ के साल की। इस साल अमिताभ बच्चन की मशहूर फ़िल्म आई थी 'डॊन', जिसमें इस जोड़ी का संगीत था। सुपर स्ट

"मिस्टर सिंह ऐण्ड मिसेज मेहता" के घर सुमधुर गीतों और ग़ज़लों के साथ आए हैं उस्ताद शुजात खान और शारंग देव

ताज़ा सुर ताल २४/२०१० विश्व दीपक - ७० के दशक के मध्य भाग से लेकर ८० के दशक का समय कलात्मक सिनेमा का स्वर्णयुग माना जाता है। उस ज़माने में व्यावसायिक सिनेमा और कलात्मक सिनेमा के बीच की दूरी बहुत ही साफ़-साफ़ नज़र आती है। और सब से बड़ा फ़र्क था कलात्मक फ़िल्मों में उन दिनों गीतों की गुजाइश नहीं हुआ करती थी। लेकिन धीरे धीरे सिनेमा ने करवट बदली, और आज आलम कुछ ऐसा है कि युं तो समानांतर विषयों पर बहुत सारी फ़िल्में बन रही हैं, लेकिन उन्हे कलात्मक कह कर टाइप कास्ट नहीं किया जाता। इन फ़िल्मों की कहानी भले ही समानांतर हो, लेकिन फ़िल्म में व्यावसायिक्ता के सभी गुण मौजूद होते हैं। और इसलिए ज़ाहिर है कि गीत-संगीत भी शामिल होता है। सुजॊय - आपकी इन बातों से ऐसा लग रहा है कि 'ताज़ा सुर ताल' में आज हम ऐसे ही किसी फ़िल्म के गानें सुनने जा रहे हैं। विश्व दीपक - बिलकुल! आज हमने चुना है आने वाली फ़िल्म 'मिस्टर सिंह ऐण्ड मिसेज मेहता' के गीतों को। सुजॊय - मैंने इस फ़िल्म के बारे में कुछ ऐसा सुन रखा है कि इसकी कहानी विवाह से बाहर के संबंध पर आधारित है और इस एक्स्ट्रा-मैरिटल संबंध का एक कारण ह

ओ बाबुल प्यारे....लता की दर्द भरी आवाज़ में एक बेटी की गुहार

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 427/2010/127 दि ल लूटने वाले जादूगर कल्याणजी-आनंदजी के स्वरबद्ध गीतों से सजी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की सातवीं कड़ी में हम फिर एक बार सन् १९७० की ही एक फ़िल्म का गीत सुनने जा रहे हैं। देव आनंद-हेमा मालिनी अभिनीत सुपर डुपर हिट फ़िल्म 'जॊनी मेरा नाम'। एक फ़िल्म को सफल बनाने के लिए जिन जिन साज़ो सामान की ज़रूरत पड़ती है, वो सब मौजूद थी इस फ़िल्म में। बताने की ज़रूरत नहीं कि फ़िल्म के गीत संगीत ने भी एक बेहद महत्वपूर्ण पक्ष निभाया। फ़िल्म का हर एक गीत सुपरहिट हुआ, चाहे वह आशा-किशोर का गाया "ओ मेरे राजा" हो या किशोर की एकल आवाज़ में "नफ़रत करने वालों के सीने में प्यार भर दूँ", उषा खन्ना के साथ किशोर दा का गाया "पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले" हो, आशा जी की मादक आवाज़-ओ-अंदाज़ में "हुस्न के लाखों रंग" हो, या लता जी के गाए दो गीत "मोसे मोरा श्याम रूठा" और "ओ बाबुल प्यारे"। इंदीवर और अनजान के लिखे इस फ़िल्म के ये सारे गीत गली गली गूंजे। अब इस फ़िल्म से किसी एक गीत को आज यहाँ पर सुनव

यूहीं तुम मुझसे बात करती हो...इतने जीवंत और मधुर युगल गीत कहाँ बनते हैं रोज रोज

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 426/2010/126 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की एक नई सप्ताह के साथ हम हाज़िर हैं। इन दिनों हम आप तक पहुँचा रहे हैं सुप्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी कल्याणजी-आनंदजी के स्वरबद्ध गीतों से सजी लघु शृंखला 'दिल लूटने वाले जादूगर'। इस शृंखला के पहले हिस्से में पिछले हफ़्ते आपने पाँच गीत सुनें, और आज से अगले पाँच दिनों में आप सुनेंगे पाँच और गीत। तो साहब हम आ पहुँचे थे ७० के दशक में, और जैसा कि हमने आपको बताया था कि ७० का दशक कल्याणजी-आनंदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और आर.डी. बर्मन का दशक था। यह कहा जाता है कि इन तीनों ने रिकार्डिंग् स्टुडियो पर जोड़-तोड़ से ऐडवांस बुकिंग्' करनी शुरु कर दी थी कि और किसी संगीतकार को अपने गीतों की रिकार्डिंग् के लिए स्टुडियो ही नहीं मिल पाता था। 'आराधना' की सफलता के बाद यह ज़माना राजेश खन्ना और किशोर कुमार के सुपर स्टारडम का भी था। कल्याणजी-आनंदजी भी इस लहर में बहे और सन् १९७० में राजेश खन्ना के दो सुपर हिट फ़िल्मों में मुख्यत: किशोर कुमार को ही लिया। ये दो फ़िल्में थीं 'सफ़र' और 'सच्चा झूठा'। 'सफ़र' में &quo