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मन क्यों बहका रे बहका आधी रात को....जब ४०० एपिसोड पूरे किये ओल्ड इस गोल्ड ने...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 400/2010/100 औ र आज वह दिन आ ही गया दोस्तों कि जब आपका यह मनपसंद स्तंभ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पहुँच चुका है अपनी ४००-वीं कड़ी पर। फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के सुमधुर गीतों की सुरधारा में बहते हुए तथा हम और आप आपस में एक सुरीला रिश्ता कायम करते हुए इस मंज़िल तक आ पहुँचे हैं जिसके लिए आप सभी बधाई व धन्यवाद के पात्र हैं। आप सब की रचनात्मक टिप्पणियों ने हमें हर रोज़ हौसला दिया आगे बढ़ते रहने का, जिसका परिणाम आज हम सब के सामने है। तो दोस्तों, आज इस ख़ास अंक को कैसे और भी ख़ास बनाया जाए? क्योंकि इन दिनों जारी है पार्श्वगायिकाओं की गाई युगल गीतों की शृंखला 'सखी सहेली', तो क्यों ना आज के अंक में ऐसी दो आवाज़ों को शामिल किया जाए जिन्हे फ़िल्म संगीत के गायिकाओं के आकाश के सूरज और चांद कहें तो बिल्कुल भी ग़लत न होगा! जिस तरह से सूरज और चांद अपनी अपनी जगह अद्वितीय है, उसी प्रकार ये दो गायिकाएँ भी अपनी अपनी जगह अद्वितीय हैं। लता मंगेशकर और आशा भोसले। इन दो बहनों ने फ़िल्मी पार्श्व गायन की धारा ही बदल कर रख दी और जिन्होने दशकों तक इस फ़िल्म जगत में राज किया। तो दो

रबीन्द्र नाथ ठाकुर की कहानी "काबुलीवाला"

रबीन्द्र नाथ ठाकुर की कहानी "काबुलीवाला" सुनो कहानी: रबीन्द्र नाथ ठाकुर की "काबुलीवाला" 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में हिंदी साहित्यकार हरिशंकर परसाई की हृदयस्पर्शी कहानी " चार बेटे " का पॉडकास्ट सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं रबीन्द्र नाथ ठाकुर की एक कहानी " काबुलीवाला ", जिसको स्वर दिया है नीलम मिश्रा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 6 मिनट 54 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। पक्षी समझते हैं कि मछलियों को पानी से ऊपर उठाकर वे उनपर उपकार करते हैं। ~ रबीन्द्र नाथ ठाकुर (1861-1941) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी आकाश में हाथी सूँड से पानी फेंकता है, इसी से वर्षा होती है। ( रबीन्द्र नाथ ठाकुर की "काबु

पीतल की मेरी गागरी....लोक संगीत और गाँव की मिटटी की महक से चहकता एक 'सखी सहेली' गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 399/2010/99 कु छ आवाज़ें ऐसी होती हैं जिनमें इस मिट्टी की महक मौजूद होती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसी आवाज़ें इस मिट्टी से जुड़ी हुई लगती है, जिन्हे सुनते हुए हम जैसे किसी सुदूर गाँव की तरफ़ चल देते हैं और वहाँ का नज़ारा आँखों के सामने तैरने लगता है। जैसे दूर किसी पनघट से पानी भर कर सखी सहेलियाँ कतार बना कर चली आ रही हों गाँव की पगडंडियों पर। आज हमने जिस गीत को चुना है उसे सुनते हुए शायद आपके ज़हन में भी कुछ इसी तरह के ख्यालात उमड़ पड़े। जी हाँ, 'सखी सहेली' शृंखला की आज की कड़ी में प्रस्तुत है मिनू पुरुषोत्तम और परवीन सुल्ताना की आवाज़ों में फ़िल्म 'दो बूंद पानी' का एक बड़ा ही प्यारा गीत "पीतल की मेरी गागरी"। इसमें वैसे मिनू जी और परवीन जी के साथ साथ उनकी सखी सहेलियों की भी आवाज़ें मौजूद हैं, लेकिन मुख्य आवाज़ें इन दो गायिकाओं की ही हैं। संगीतकार जयदेव की इस रचना में इस देश की मिट्टी का सुरीलापन कूट कूट कर समाया हुआ है। लोक गीत के अंदाज़ में बना यह गीत कैफ़ी आज़मी साहब के कलम से निकला था। आपको याद होगा कि सन्‍ १९७१ में ख़्वाजा अहम

मन बता मैं क्या करूँ...उलझे मन की बरसों पुरानी गुत्थियों को संगीत के नए अंदाज़ का तड़का

Season 3 of new Music, Song # 02 न ए संगीत के तीसरे सत्र की दूसरी कड़ी में हम हाज़िर हैं एक और ओरिजिनल गीत के साथ. एक बार फिर इन्टरनेट के माध्यम से पुणे और हैदराबाद के तार जुड़े और बना "मन बता" का ताना बाना. जी हाँ आज के इस नए और ताज़ा गीत का शीर्षक है - मन बता. ऋषि एस की संगीत प्रतिभा से आवाज़ के नए पुराने सभी श्रोता बखूबी परिचित हैं. जहाँ पहले सत्र में ऋषि के संगीतबद्ध ३ गीत थे तो दूसरे सत्र में भी उनके ६ गीत सजे. गीतकार विश्व दीपक "तन्हा" के साथ उनकी पैठ जमी, दूसरे सत्र के बाद प्रकाशित विशेष गीत जो खासकर "माँ" दिवस के लिए तैयार किया गया था, " माँ तो माँ है " को आवाज़ पर ख़ासा सराहा गया. तीसरी फनकारा जो इस गीत से जुडी हैं वो हैं, कुहू गुप्ता. कुहू ने "काव्यनाद" अल्बम में महादेवी वर्मा रचित " जो तुम आ जाते एक बार " को आवाज़ क्या दी. युग्म और इंटनेट से जुड़े सभी संगीतकारों को यकीं हो गया कि जिस गायिका की उन्हें तलाश थी वो कुहू के रूप में उन्हें मिल गयी हैं. ऋषि जो अक्सर महिला गायिका के अभाव में दोगाना या फीमेल सोलो रचने से कत

गलियों में घूमो, सड़कों पे झूमो, दुनिया की खूब करो सैर....आशा और उषा का है ये सुरीला पैगाम

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 398/2010/98 'स खी सहेली' शृंखला की आज की कड़ी में एक ज़बरदस्त हंगामा होने जा रहा है, क्योंकि आज के अंक के लिए हमने दो ऐसी गायिकाओं को चुना है जो अपनी हंगामाख़ेज़ आवाज़ के लिए जानी जाती रहीं हैं। इनमें से एक तो और कोई नहीं बल्कि आशा भोसले हैं, जो हर तरह के गीत गा सकने में माहिर हैं, और दूसरी आवाज़ है उषा अय्यर की। जी हाँ, वही उषा अय्यर, जो बाद में उषा उथुप के नाम से मशहूर हुईं। उषा जी पाश्चात्य और डिस्को शैली के गीतों के लिए जानी जाती हैं और उनका स्टेज परफ़ॊर्मैन्स इतना ज़रबदस्त होता है कि श्रोतागण सब कुछ भूल कर उनके साथ थिरक उठते हैं, मचल उठते हैं। तो ज़रा सोचिए, अगर आशा जी की मज़बूत लेकिन पतली आवाज़ और उषा जी मज़बूत और वज़नदार आवाज़ एक साथ मिल जाएँ एक ही गीत में तो किस तरह का हंगामा पैदा हो जाए! इसी प्रयोग को आज़माया था राहुल देव बर्मन ने १९७० की फ़िल्म 'हरे रामा हरे कृष्णा' के दो गीतों में। वैसे पहले गीत "दम मारो दम" में आशा जी की ही आवाज़ मुख्य रूप से सुनाई देती है, लेकिन जो दूसरा गीत है उसमें दोनों गायिकाओं को एक दूसरे के साथ बराबर

ये मूह और मसूर की दाल....मुहावरों ने छेड़ी दिल की बात और बना एक और फिमेल डूईट

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 397/2010/97 भा षा की सजावट के लिए पौराणिक समय से जो अलग अलग तरह के माध्यम चले आ रहे हैं, उनमें से एक बेहद लोकप्रिय माध्यम है मुहावरे। मुहावरों की खासियत यह होती है कि इन्हे बोलने के लिए साहित्यिक होने की या फिर शुद्ध भाषा बोलने की ज़रूरत नहीं पड़ती। ये मुहावरे पीढ़ी दर पीढ़ी ज़बानी आगे बढ़ती चली जाती है। क्या आप ने कभी ग़ौर किया है कि हिंदी फ़िल्मी गीतों में किसी मुहावरे का इस्तेमाल हुआ है या नहीं। हमें तो भई कम से कम एक ऐसा मुहवरा मिला है जो एक नहीं बल्कि दो दो गीतों में मुखड़े के तौर पर इस्तेमाल हुए हैं। इनमें से एक है लता मंगेशकर का गाया १९५७ की फ़िल्म 'बारिश' का गीत "ये मुंह और दाल मसूर की, ज़रा देखो तो सूरत हुज़ूर की"। और दूसरा गीत है फ़िल्म 'अराउंड दि वर्ल्ड' फ़िल्म का "ये मुंह और मसूर की दाल, वाह रे वाह मेरे बांके लाल, हुस्न जो देखा हाल बेहाल, वाह रे वाह मेरे बांके लाल"। जी हाँ, मुहावरा है 'ये मुंह और मसूर की दाल', और 'अराउंड दि वर्ल्ड' के इस गीत को गाया था जो गायिकाओं ने - शारदा और मुबारक़ बेग़म। आज &#

अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल.. अपने शोख कातिल से ग़ालिब की इस गुहार के क्या कहने!!

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७८ दे खते -देखते हम चचा ग़ालिब को समर्पित आठवीं कड़ी के दर पर आ चुके हैं। हमने पहली कड़ी में आपसे जो वादा किया था कि हम इस पूरी श्रृंखला में उन बातों का ज़िक्र नहीं करेंगे जो अमूमन हर किसी आलेख में दिख जाता है, जैसे कि ग़ालिब कहाँ के रहने वाले थे, उनका पालन-पोषण कैसे हुआ.. वगैरह-वगैरह.. तो हमें इस बात की खुशी है कि पिछली सात कड़ियों में हम उस वादे पर अडिग रहे। यकीन मानिए.. आज की कड़ी में भी आपको उन बातों का नामो-निशान नहीं मिलेगा। ऐसा कतई नहीं है कि हम ग़ालिब की जीवनी नहीं देना चाह्ते... जीवनी देने में हमें बेहद खुशी महसूस होगी, लेकिन आप सब जानते हैं कि हमारी महफ़िल का वसूल रहा है- महफ़िल में आए कद्रदानों को नई जानकारियों से मालामाल करना, ना कि उन बातों को दुहराना जो हर गली-नुक्कड़ पर लोगों की बातचीत का हिस्सा होती है। और यही वज़ह है कि हम ग़ालिब का "बायोडाटा" आपके सामने रखने से कतराते हैं। चलिए..बहुत हुआ "अपने मुँह मियाँ-मिट्ठु" बनना.. अब थोड़ी काम की बातें कर ली जाएँ!! तो आज की कड़ी में हम ग़ालिब पर निदा फ़ाज़ली साहब के मन्त्वय और ग़ालिब की हीं कित