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अपलम चपलम चपलाई रे....गुदगुदाते शब्द मधुर संगीत और मंगेशकर बहनों की जुगलबंदी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 393/2010/93 ज़ो हराबाई -शमशाद बेग़म और सुरैय्या - उमा देवी की जोड़ियों के बाद 'सखी सहेली' की तीसरी कड़ी में आज हम जिन दो गायिकाओं को लेकर उपस्थित हुए हैं, वो एक ऐसे परिवार से ताल्लुख़ रखती हैं जिस परिवार का नाम फ़िल्म संगीत के आकाश में सूरज की तरह चमक रहा है। जी हाँ, मंगेशकर परिवार। जो परम्परा स्व: दीनानाथ मंगेशकर ने शुरु की थी, उस परम्परा को उनके बेटे बेटियों, लता, आशा, उषा, मीना, हृदयनाथ, आदिनाथ, ने ना केवल आगे बढ़ाया, बल्कि उसे उस मुकाम तक भी पहुँचाया कि फ़िल्म संगीत के इतिहास में उनके परिवार का नाम स्वर्णाक्षरों से दर्ज हो गया। आज इसी मंगेशकर परिवार की दो बहनों, लता और उषा की आवाज़ों में प्रस्तुत है एक बड़ा ही नटखट, चंचल और चुलबुला सा गीत सी. रामचन्द्र के संगीत निर्देशन में। राजेन्द्र कृष्ण का लिखा १९५५ की फ़िल्म 'आज़ाद' का वही सदाबहार गीत "अपलम चपलम"। कहा जाता है कि फ़िल्म 'आज़ाद' के निर्माता एस. एम. एस. नायडू ने पहले संगीतकार नौशाद को इस फ़िल्म के संगीत का भार देना चाहा, पर उन्होने नौशाद साहब के सामने शर्त रख दी कि एक मही

सुनो कहानी: चार बेटे - हरिशंकर परसाई

सुनो कहानी: चार बेटे - हरिशंकर परसाई 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा लिखित रचना " मैं एक भारतीय " का पॉडकास्ट अनुराग शर्मा की आवाज़ में सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं हरिशंकर परसाई लिखित व्यंग्य " चार बेटे ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। "चार बेटे" का कुल प्रसारण समय मात्र 8 मिनट 44 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। मेरी जन्म-तारीख 22 अगस्त 1924 छपती है। यह भूल है। तारीख ठीक है। सन् गलत है। सही सन् 1922 है। । ~ हरिशंकर परसाई (1922-1995) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी गृहस्थ धर्म की एक ज़रूरी रस्म पत्नी को पीटने की भी होती है। ( हरिशंकर परसाई के व्यंग्य "चार बेटे" से एक अंश )

बेताब है दिल दर्द-ए-मोहब्बत के असर से...सुरैया और उमा देवी के युगल स्वरों में ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 392/2010/92 'स खी सहेली' की दूसरी कड़ी में आप सभी का एक बार फिर स्वागत है। महिला युगल गीतों की इस शृंखला में कल आप ने ज़ोहराबाई अम्बालेवाली और शमशाद बेग़म का गाया एक बच्चों वाला गाना सुना था। आज हमने जिन दो गायिकाओं को चुना है वे हैं सुरैय्या और उमा देवी। बहुत ही दुर्लभ जोड़ी है, और इस जोड़ी की याद आते ही हमें झट से याद आती है १९४७ की फ़िल्म 'दर्द' का वही सुरीला गीत, याद है ना "बेताब है दिल दर्द-ए-मोहब्बत के असर से, जिस दिन से मेरा चांद छुपा मेरी नज़र से"। बहुत दिनों से आपने यह गीत नहीं सुना होगा, है ना? तो चलिए आज उन पुरानी यादों को एक बार फिर से ताज़ा कीजिए शक़ील बदायूनी के लिखे इस गीत से जिसकी तर्ज़ बनाई थी नौशाद अली ने। फ़िल्म 'दर्द' का निर्माण व निर्देशन किया था अब्दुल रशीद कारदार ने, जिन्हे हम ए. आर. कारदार के नाम से बेहतर जानते हैं। श्याम, नुसरत, मुअव्वर सुल्ताना, सुरैय्या, बद्री प्रसाद, हुस्न बानो, प्रतिमा देवी प्रमुख अभिनीत इस फ़िल्म से ही शक़ील और नौशाद की जोड़ी शुरु हुई थी। इस फ़िल्म के कुछ गीत उमा देवी ने गाए, कुछ स

एक रात में सौ बार जला और बुझा हूँ...नए संगीत के तीसरे सत्र की शुरूआत, नजीर बनारसी के कलाम और रफीक की आवाज़ से

Season 3 of new Music, Song # 01 दो स्तो, कहते है किसी काम को अगर फिर से शुरू करना हो, तो उसे वहीं से शुरू करना चाहिए जहाँ पर उसे छोड़ा गया था. आज आवाज़ के लिए ख़ास दिन है. 29 दिसंबर को हमने जिस सम्मानजनक रूप से नए संगीत को दूसरे सत्र को अलविदा कहा था, उसी नायाब अंदाज़ में आज हम स्वागत करने जा रहे हैं नए संगीत के तीसरे सत्र का. हमने आपको छोड़ा था रफीक भाई की सुरीली आवाज़ पर महकती एक ग़ज़ल पर, तो आज एक बार फिर संगीत के नए उभरते हुए योद्धाओं के आगमन का बिगुल बजाया जा रहा हैं उसी दमदार मखमली आवाज़ से. जी हाँ दोस्तों, सीज़न 3 आरंभ हो रहा है नजीर बनारसी के कलाम और रफीक शेख की जादू भरी अदायगी के साथ. रफीक हमारे पिछले सत्र के विजेता रहे हैं जिनकी 3 ग़ज़लें हमारे टॉप 10 गीतों में शामिल रहीं, और जिन्हें आवाज़ की तरफ से 6000 रूपए का नकद पुरस्कार भी प्राप्त हुआ था, इस बार भी रफीक इस शानदार ग़ज़ल के साथ अपनी जबरदस्त शुरूआत करने जा रहे हैं नए सत्र में। नजीर बनारसी की ये ग़ज़ल उन्हें उनके एक मित्र के माध्यम से प्राप्त हुई है, नजीर साहब वो उस्ताद शायर हैं जिनके बोलों को जगजीत सिंह और अन्य नामी फनक

उड़न खटोले पर उड़ जाऊं.....बचपन के प्यार को अभिव्यक्त करता एक खूबसूरत युगल गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 391/2010/91 यु गल गीतों की जब हम बात करते हैं, तो साधारणत: हमारा इशारा पुरुष-महिला युगल गीतों की तरफ़ ही होता है। मेरा मतलब है वो युगल गीत जिनमें एक आवाज़ गायक की है और दूसरी आवाज़ किसी गायिका की। लेकिन जब भी युगल गीतों में ऐसे मौके आए हैं कि जिनमें दोनों आवाज़ें या तो पुरुष हैं या फिर दोनों महिला स्वर हैं, ऐसे में ये गानें कुछ अलग हट के, या युं कहें कि ख़ास बन जाते हैं। आज से हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शुरु कर रहे हैं पार्श्वगायिकाओं के गाए हुए युगल गीतों, यानी कि 'फ़ीमेल डुएट्स' पर आधारित हमारी लघु शृंखला 'सखी सहेली'। इस शूंखला में हम १० फ़ीमेल डुएट्स सुनेंगे, यानी कि १० अलग अलग गायिकाओं की जोड़ी के गाए गीतों का आनंद हम उठा सकेंगे। ४० से लेकर ७० के दशक तक की ये जोड़ियाँ हैं जिन्हे हम शामिल कर रहे हैं, और हमारा विश्वास है कि इन सुमधुर गीतों का आप खुले दिल से स्वागत करेंगे। तो आइए शुरुआत की जाए इस शूंखला की। पहली जोड़ी के रूप में हमने एक ऐसी जोड़ी को चुना है जिनमें आवाज़ें दो ऐसी गायिकाओं की हैं जो ४० और ५० के दशकों में अपनी वज़नदार और नैज़ल

चिट्टी आई है वतन से....अपने वतन या घर से दूर रह रहे हर इंसान के मन को गहरे छू जाता है ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 390/2010/90 आ नंद बक्शी पर केन्द्रित लघु शृंखला 'मैं शायर तो नहीं' के अंतिम कड़ी पर हम आज आ पहुँचे हैं। आज जो गीत हम आप को सुनवा रहे हैं, उसका ज़िक्र छेड़ने से पहले आइए आपको बक्शी साहब के अंतिम दिनों का हाल बताते हैं। अप्रैल २००१ में एक हार्ट सर्जरी के दौरान उन्हे एक बैक्टेरियल इन्फ़ेक्शन हो गई, जो उनके पूरे शरीर में फैल गई। इस वजह से एक एक कर उनके अंगों ने काम करना बंद कर दिया। अत्यधिक पान, सिगरेट और तम्बाकू सेवन की वजह से उनका शरीर पूरी तरह से कमज़ोर हो चुका था। बक्शी साहब ने अपने आख़िरी हफ़्तों में इस बात का अफ़सोस भी ज़ाहिर किया था कि काश गीत लेखन के लिए उन्होने इन सब चीज़ों का सहारा ना लिया होता! उन्होने ४ अप्रैल २००१ को अपने दोस्त सुभाष घई साहब के साथ एक सिगरेट पी थी, और वादा किया था कि यही उनकी अंतिम सिगरेट होगी, पर वे वादा रख ना सके और इसके बाद भी सिगरेट पीते रहे। जीवन के अंतिम ७ महीने वे अस्पताल में ही रहे, और उन्हे इस बात से बेहद दुख हुआ था कि उनके ज़्यादातर नए पुराने निर्माता, दोस्त, टेक्नीशियन, संगीतकार और गायक, जिनके साथ उन्होने दशकों तक का

कहते हैं अगले ज़माने में कोई "मीर" भी था.. हामिद अली खां के बहाने से मीर को याद किया ग़ालिब ने

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७७ आ ज की महफ़िल बाकी महफ़िलों से अलहदा है, क्योंकि आज हम "ग़ालिब" के बारे में कुछ नया नहीं बताने जा रहे..बल्कि माहौल को खुशनुमा बनाने के लिए (क्योंकि पिछली छह महफ़िलों से हम ग़ालिब की लाचारियाँ हीं बयाँ कर रहे हैं) "बाला दुबे" का लिखा एक व्यंग्य "ग़ालिब बंबई मे" आप सबों के सामने पेश करने जा रहे हैं। अब आप सोचेंगे कि हमें लीक से हटने की क्या जरूरत आन पड़ी। तो दोस्तों, व्यंग्य पेश करने के पीछे हमारा मकसद बस मज़ाकिया माहौल बनाना नहीं है, बल्कि हम इस व्यंग्य के माध्यम से यह दर्शाना चाहते हैं कि आजकल कविताओं और फिल्मी-गानों की कैसी हालत हो गई है.. लोग मक़बूल होने के लिए क्या कुछ नहीं लिख रहे. और जो लिखा जाना चाहिए, जिससे साहित्य में चार-चाँद लगते, उसे किस तरह तिलांजलि दी जा रही है। हमें यकीन है कि आपको महफ़िल में आया यह बदलाव नागवार नहीं गुजरेगा.. तो हाज़िर है यह व्यंग्य: (साभार: कादंबिनी) दो चार दोस्तों के साथ मिर्ज़ा ग़ालिब स्वर्ग में दूध की नहर के किनारे शराबे तहूर (स्वर्ग में पी जाने वाली मदिरा) की चुस्कियाँ ले रहे थे कि एक ताज़ा–ताज़ा मरा