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भरम तेरी वफाओं का मिटा देते तो क्या होता...तलत की आवाज़ पर साहिर के बोल

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 351/2010/51 आ ज है २० फ़रवरी। याद है ना आपको पिछले साल आज ही के दिन से शुरु हुई थी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की यह शृंखला। आज से इस शृंखला का दूसरा साल शुरु हो रहा है। आपको याद है इस शॄंखला की पहली कड़ी में कौन सा गीत बजा था? चलिए हम ही याद दिलाए देते हैं। वह पहला पहला गीत था फ़िल्म 'नीला आकाश' का, "आपको प्यार छुपाने की बुरी आदत है"। ख़ैर, उसके बाद तो एक के बाद एक कुल ३५० गीत इस शृंखला में बज चुके हैं, और इन सभी कड़ियों में हमने जितना हो सका है संबम्धित जानकारियाँ भी देते आए हैं। आज से हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के अंतर्गत एक नया स्तंभ जोड़ रहे हैं और यह स्तंभ है 'क्या आप जानते हैं?' मुख्य आलेख, ऒडियो, और पहेली प्रतियोगिता के साथ साथ अब आप इस स्तंभ का भी आनंद ले पाएँगे जिसके तहत हम आपको रोज़ फ़िल्म संगीत से जुड़ी एक अनोखे तथ्य से रु-ब-रु करवाएँगे। ये तो थीं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के स्वरूप से संबम्धित बातें, आइए अब आज का अंक शुरु किया जाए। दोस्तों, २४ फ़रवरी को मख़मली आवाज़ के जादूगर तलत महमूद साहब का जन्मतिथि है। अत: आज से लेकर १ मा

सुनो कहानी: आग - असगर वजाहत

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में गोपाल प्रसाद व्यास का व्यंग्य " झूठ बराबर तप नहीं " का पॉडकास्ट सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं असगर वजाहत की एक कहानी " आग ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी "आग" का कुल प्रसारण समय 4 मिनट 14 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। इस कथा का टेक्स्ट गद्य कोश पर उपलब्ध है। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। रात के वक्त़ रूहें अपने बाल-बच्चों से मिलने आती हैं। ~ असगर वजाहत हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी आग प्रचंड थी। बुझने का नाम न लेती थी। ( असगर वजाहत की "आग" से एक अंश ) नीचे के प्लेयर से सुनें. (प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।) यदि आप इस पॉडकास्ट क

तू मेरा चाँद मैं तेरी चाँदनी...ये गीत समर्पित है हमारे श्रोताओं को जिनकी बदौलत ओल्ड इस गोल्ड ने पूरा किया एक वर्ष का सफर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 350/2010/50 'प्यो र गोल्ड' की अंतिम कड़ी के साथ हम हाज़िर हैं। १९४० से शुरु कर साल दर साल आगे बढ़ते हुए आज हम आ पहुँचे हैं इस दशक के अंतिम साल १९४९ पर। फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर की अगर हम बात करें तो सही मायने में इस दौर की शुरुआत १९४८-४९ के आसपास से मानी जानी चाहिए। यही वह समय था जब फ़िल्म संगीत ने एक बार फिर से नयी करवट ली और नए नए प्रयोग इसमें हुए, नई नई आवाज़ों ने क़दम रखा जिनसे यह सुनहरा दौर चमक उठा। 'बरसात', 'अंदाज़', 'महल', 'शायर', 'जीत', 'लाहौर', 'एक थी लड़की', 'लाडली', 'दिल्लगी', 'दुलारी', 'पतंगा', और 'बड़ी बहन' जैसी सुपर हिट म्युज़िकल फ़िल्मों ने एक साथ एक ऐसी सुरीली बारिश की कि जिसकी बूंदें आज तक हमें भीगो रही है। दोस्तों, हम चाहते तो इन फ़िल्मों से चुनकर लता मंगेशकर या मुकेश या मोहम्मद रफ़ी या फिर शमशाद बेग़म या गीता रॊय का गाया कोई गीत आज सुनवा सकते थे। लेकिन इस शृंखला में हमने कोशिश यही की है कि उन कलाकारों को ज़्यादा बढ़ावा दिया जाए जो सही अर्

मोरे राजा हो ले चल नदिया के पार...गुजरे ज़माने के एक मस्त मस्त गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 349/2010/49 सा ल १९४८ की शुरुआत भी अच्छी नहीं रही। ३० जनवरी १९४८ की सुबह महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई, जिसके बाद साम्प्रदायिक दंगे एक बार फिर से छिड़ गए और देश की अवस्था और भी नाज़ुक हो गई। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को श्रद्धांजली स्वरूप गीतकार राजेन्द्र कृष्ण ने उन पर एक गीत लिखा जिसे हुस्नलाल भगतराम के संगीत में मोहम्मद रफ़ी साहब ने गाया। "सुनो सुनो ऐ दुनियावालों बापु की यह अमर कहानी" एक बेहद लोकप्रिय गीत साबित हुआ। ब्रिटिश राज के समाप्त हो जाने के बाद देश भक्ति फ़िल्मों के निर्माण पर से सारे नियंत्रण हट गए। ऐसे में फ़िल्मिस्तान लेकर आए 'शहीद', जो हिंदी सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ देशभक्ति फ़िल्मों में गिनी जाती है। जहाँ एक तरफ़ दिलीप कुमार की अदाकारी, वहीं दूसरी तरफ़ मास्टर ग़ुलाम हैदर के संगीत में "वतन की राह में वतन के नौजवान शहीद हों" गीत ने तो पूरे देश को जैसे देश प्रेम के जज़्बे से सम्मोहित कर लिया। उधर हैदर साहब ने ही फ़िल्म 'मजबूर' में लता को अपना पहला हिट गीत दिया "दिल मेरा तोड़ा"। संगीत की दृष्टि से १९४८ की

मार कटारी मर जाना ये अखियाँ किसी से मिलाना न....अमीरबाई कर्नाटकी की आवाज़ में एक अनूठा गाना

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 348/2010/48 १९४७ का साल भारत के इतिहास का शायद सब से महत्वपूर्ण साल रहा होगा। इस साल के महत्व से हम सभी वाकिफ हैं। १५ अगस्त १९४७ को इस देश ने पराधीनता की सारी ज़ंजीरों को तोड़ कर एक स्वाधीन वातावरण में सांस लेना शुरु किया था। एक नए भारत की शुरुआत हुई थी इस साल। हालाँकि आज़ादी की ख़ुशी १५ अगस्त के दिन आई थी, लेकिन इस साल की शुरुआत एक बेहद दुखद घटना से हुई थी। और यह दुखद घटना थी हिंदी सिनेमा के पहले सिंगिंग् सुपरस्टार कुंदन लाल सहगल का निधन। १८ जनवरी १९४७ को वो चल बसे और एक पूरा का पूरा युग उनके साथ समाप्त हो गया। उनके अकाल निधन से फ़िल्म संगीत को जो क्षति पहुँची, उसकी भरपाई हो सकता है कि अगली पीढ़ी ने कर दी हो, लेकिन दूसरा सहगल फिर कभी नहीं जन्मा। एक तरफ़ सहगल का सितारा डूब गया, तो दूसरी तरफ़ से एक ऐसी गायिका का उदय हुआ इस साल जो फ़िल्म संगीत का सब से उज्वल सितारा बनीं और ६ दशकों तक इस इंडस्ट्री पर राज करती रहीं। लता मंगेशकर। जी हाँ, १९४७ में ही लता जी का गाया पहला एकल प्लेबैक्ड सॊंग् "पा लागूँ कर जोरी रे" फ़िल्म 'आप की सेवा में' में सुनाई दी

मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता.. चलिए याद करें हम ग़म-ए-रोज़गार से खस्ताहाल चचा ग़ालिब को

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७१ हो गा कोई ऐसा भी कि ग़ालिब को न जाने शायर तो वो अच्छा है प' बदनाम बहुत है। इस शेर को पढने के बाद आप समझ हीं गए होंगे कि आज की महफ़िल किसकी शान में सजी है। आज से बस दो दिन पहले यानि कि १५ फरवरी को इस महान शायर की मौत की १४१वीं बरसी थी। संयोग देखिए कि उससे महज़ दो दिन पहले यानि कि १३ फरवरी को इस शायर के सच्चे और एकमात्र उत्तराधिकारी फैज़ अहमद फ़ैज़ की भी बरसी थी.. फ़र्क बस इतना था कि फ़ैज़ ने १३ फ़रवरी को जन्म लिया था तो १५ फ़रवरी को ग़ालिब ने अपनी अंतिम साँसें ली थीं। आज हमारे बीच फ़ैज़ भी नहीं हैं। इसलिए हम आज अपनी महफ़िल की ओर से इन दोनों महान शायरों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। आपने शायद यह गौर किया हो कि हमारी महफ़िल में आज से पहले फ़ैज़ की चार गज़लें/नज़्में शामिल हो चुकी हैं, लेकिन हमने आज तक ग़ालिब की एक भी गज़ल महफ़िल में पेश नहीं की है। अब यह तो हो हीं नहीं सकता कि कोई महफ़िल सजे, सजती रहे और सजते-सजते सत्तर रातें गुजर जाएँ लेकिन उस महफ़िल में उस शायर का नाम न लिया जाए जिसके बिना महफ़िल क्या, शायरी की छोटी-सी गुफ़्तगू भी अधूरी है। और फिर अगर ऐसा हमारी

आवाज़ दे कहाँ है...ओल्ड इस गोल्ड में पहली बार बातें गायक/अभिनेता सुरेन्द्र की

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 347/2010/47 ४० का दशक हमारे देश के इतिहास में राष्ट्रीय जागरण के दशक के रूप में याद किया जाता है। राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से इस दौर ने इस देश पर काफ़ी असरदार तरीके से प्रभाव डाला था। द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होते ही फ़िल्म निर्माण पर लगी रोक को उठा लिया गया जिसके चलते फ़िल्म निर्माण कार्य ने एक बार फिर से रफ़्तार पकड़ ली और १९४६ के साल में कुल १५५ हिंदी फ़िल्मों का निर्माण किया गया। लेकिन सही मायने में जिन दो फ़िल्मों ने बॊक्स ऒफ़िस पर झंडे गाढ़े, वो थे 'अनमोल घड़ी' और 'शाहजहाँ'। एक में नूरजहाँ - सुरैय्या, तो दूसरे में के. एल. सहगल। लेकिन दोनों फ़िल्मों के संगीतकार नौशाद साहब। वैसे हमने इन दोनों ही फ़िल्मों के गानें 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में बजाए हैं, लेकिन जब इस साल का प्रतिनिधित्व करने वाले किसी गीत को चुनने की बात आती है तो इन्ही दो फ़िल्मों के नाम ज़हन में आते हैं, और आने भी चाहिए। क्योंकि हमने 'शाहजहाँ' फ़िल्म के दो गीत सुनवाएँ हैं, तथा सहगल साहब और इस फ़िल्म से जुड़ी तमाम बातें भी बता चुके हैं, तो क्यों ना आज फ़िल्म