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दे दी हमें आजादी बिना खडग बिना ढाल.....साबरमती के संत को याद कर रहा है आज आवाज़ परिवार

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 330/2010/30 आ ज है ३० जनवरी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का बलिदान दिवस। बापु के इस स्मृति दिवस को पूरा देश 'शहीद दिवस' के रूप में पालित करता है। बापु के साथ साथ देश के उन सभी वीर सपूतों को श्रद्धांजली अर्पित करने और सेल्युट करने का यह दिन है जिन्होने इस देश की ख़ातिर अपने प्राण न्योछावर कर दिए हैं। 'आवाज़' और 'हिंद युग्म' परिवार की ओर से, और हम अपनी ओर से इस देश पर मर मिटने वाले हर वीर सपूत को सलाम करते हैं, उनके सामने अपना सर झुका कर उन्हे सलामी देते हैं। आइए आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में सुनें कवि प्रदीप का लिखा हुआ वह गीत जो बापु पर लिखे गए तमाम गीतों में लोगों के दिलों में बहुत ही लोकप्रिय स्थान रखता है। आशा भोसले और साथियो की आवाज़ों में फ़िल्म 'जागृति' का यह गीत है "दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती की संत तूने कर दिया कमाल, रघुपति राघव राजा राम"। 'जागृति' १९५४ की फ़िल्म थी 'फ़िल्मिस्तान' के बैनर तले बनी हुई। यह एक देशभक्ति मूलक फ़िल्म थी जिसकी कहानी एक अध्यापक और उनके छात्रों के मधुर

मैं एक बच्चे को प्यार कर रही थी - इस्मत चुगताई

सुनो कहानी: मैं एक बच्चे को प्यार कर रही थी 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में उन्हीं की हिंदी कहानी " गरजपाल की चिट्ठी " का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं इस्मत चुगताई की आत्मकथा ''कागज़ी है पैरहन'' से एक बहुत ही सुन्दर, मार्मिक प्रसंग " मैं एक बच्चे को प्यार कर रही थी ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। अनुराग वत्स के प्रयास से इस प्रसंग का टेक्स्ट सबद... पर उपलब्ध है। कहानी का कुल प्रसारण समय 6 मिनट 15 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। चौथी के जोडे क़ा शगुन बडा नाजुक़ होता है। ~ इस्मत चुगताई (1911-1991) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी मेरे घर शिकायत पहुंची कि मैं चाँदी के भगवान की मूर्ति चुरा रही थी। अम्मा ने

जब दिल ही टूट गया....सहगल की दर्द भरी आवाज़ और मजरूह के बोल

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 329/2010/29 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में पिछले तीन दिनो से आप शरद तैलंग जी के पसंद के गाने सुनते आ रहे हैं, जो 'महासवाल प्रतियोगिता' में सब से ज़्यादा सवालों के सही जवाब देकर विजेयता बने थे। आज उनकी पसंद का आख़िरी गीत, और गीत क्या साहब, यह तो ऐसा कल्ट सॊंग् है कि ६५ साल बाद भी लोग इस गीत को भुला नहीं पाए हैं। कुंदन लाल सहगल की आवाज़ में बेहद मक़बूल, बेहद ख़ास, नौशाद साहब की अविस्मरणीय संगीत रचना "जब दिल ही टूट गया, हम जी के क्या करेंगे"। फ़िल्म 'शाहजहाँ' का यह मशहूर गीत लिखा था मजरूह सुल्तानपुरी साहब ने। दोस्तों, अब तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आपने सहगल साहब के कुल दो गीत सुन चुके हैं। एक तो हाल ही में उनकी पुण्यतिथि पर फ़िल्म 'ज़िंदगी' की लोरी " सो जा राजकुमारी " सुनवाया था, और एक गीत हमने आपको फ़िल्म 'शाहजहाँ' से ही सुनवाया था " ग़म दिए मुस्तक़िल " अपने ५०-वें एपिसोड को ख़ास बनाते हुए। लेकिन उस दिन हमने इस फ़िल्म की चर्चा नहीं की थी, बल्कि नौशाद साहब की सहगल साहब पर लिखी हुई कविता से रु-ब-रु क

19वाँ विश्व पुस्तक मेला में होगा आवाज़ महोत्सव, ज़रूर पधारें

हिन्द-युग्म साहित्य को कला की हर विधा से जोड़ने का पक्षधर है। इसलिए हम अपने आवाज़ मंच पर तमाम गतिविधियों के साथ-साथ साहित्य को आवाज़ की विभिन्न परम्पराओं से भी जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। इसी क्रम में हमने प्रेमचंद की कहानियों को 'सुनो कहानी' स्तम्भ के माध्यम से पॉडकास्ट करना शुरू किया ताकि उन्हें इस माध्यम से भी संग्रहित किया जा सके। 19वाँ विश्व पुस्तक मेला जो प्रगति मैदान, नई दिल्ली में 30 जनवरी से 7 फरवरी 2010 के मध्य आयोजित हो रहा है, में हिन्द-युग्म प्रेमचंद की 15 कहानियों के एल्बम 'सुनो कहानी' को जारी करेगा। इसी कार्यक्रम में जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त की प्रतिनिधि कविताओं के संगीतबद्ध एल्बम ‘काव्यनाद’ का लोकार्पण भी होगा। उल्लेखनीय है कि 18वें विश्व पुस्तक मेला में भी हिन्द-युग्म ने इंटरनेट की हिन्दी दुनिया का प्रतिनिधित्व किया था और अपने पहला उत्पाद के तौर पर कविताओं और संगीतबद्ध गीतों के एल्बम 'पहला सुर' को जारी किया था। सन् 2008 में इंटरनेट पर हिन्दी का जितना बड़ा संसार

मेरे दिल में है एक बात....लता- मन्ना के युगल स्वरों में एक चुलबुला नगमा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 328/2010/28 ओ -ल्ड इज़ गोल्ड' में जारी है सुरीले गीतों की परंपरा, और इन दिनों हम आनंद ले रहे हैं इंदु जी और शरद जी के पसंद के गीतों का। आप दोनों ने ही इतने अच्छे अच्छे गीतों की फ़रमाइश हम से की है कि इन्हे सुनवाते हुए भी हम फ़क्र महसूस कर रहे हैं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' को जैसे कुछ और ही मुकाम तक पहुँचा दिया है आप दोनों ने। बहुत शुक्रिया आपका। आज शरद जी की पसंद का जो गीत हमने चुना है वह एक युगल गीत है लता मंगेशकर और मन्ना डे का गाया हुआ। एक हल्का फुल्का युगल गीत, लेकिन उतना ही सुरीला उतना ही बेहतर। फ़िल्म 'पोस्ट बॊक्स नंबर ९९९' का यह गीत है "मेरे दिल में है एक बात कह दो तो ज़रा क्या है"। इसी फ़िल्म का लता और हेमन्त दा का गाया "नींद ना मुझको आए" भी एक बेहतरीन गीत है जिसे भी आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर भविष्य में ज़रूर सुनेंगे। 'पोस्ट बॊक्स नंबर ९९९' बनकर बाहर आई सन् १९५८ में। रवीन्द्र दवे निर्मित व निर्देशित यह फ़िल्म दरअसल एक मर्डर मिस्ट्री थी जिसे सुलझाया सुनिल दत्त और शक़ीला ने। मेरा मतलब है कि कहानी कुछ इस तरह की

बुझा दिए हैं खुद अपने हाथों से....दर्द की कसक खय्याम के सुरों में...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 327/2010/27 श -रद तैलंग जी के पसंद का अगला गाना है फ़िल्म 'शगुन' से। सुमन कल्याणपुर की आवाज़ में यह है इस फ़िल्म का एक बड़ा ही मीठा गीत "बुझा दिए हैं ख़ुद अपने हाथों से मोहब्बत के दीये जलाके"। साहिर लुधियानवी की शायरी और ख़य्याम साहब का सुरीला सुकून देनेवाला संगीत। इसी फ़िल्म में सुमन जी ने रफ़ी साहब के साथ "ठहरिए होश में आ लूँ तो चले जाइएगा" और "पर्बतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है" जैसे हिट गीत गाए हैं। आज के प्रस्तुत गीत की बहुत ज़्यादा चर्चा नहीं हुई लेकिन उत्कृष्टता में यह गीत किसी भी दूसरे गीत से कुछ कम नहीं, और यह गीत सुमन कल्याणपुर के गाए बेहतरीन एकल गीतों में से एक है। फ़िल्म 'शगुन' आई थी सन् १९६४ में, जिसका निर्माण हुआ था शाहीन आर्ट के बैनर तले, निर्देशक थे नज़र, और फ़िल्म के कलाकार थे कंवलजीत सिंह, वहीदा रहमान, चांद उस्मानी, नज़िर हुसैन, नीना और अचला सचदेव। दोस्तों, आपको यह बता दें कि यही कंवलजीत असली ज़िंदगी में वहीदा रहमान के पति हैं। 'शगुन' में सुमन कल्याणपुर और मोहम्मद रफ़ी के अलावा जिन गायकों

दुखाए दिल जो किसी का वो आदमी क्या है.. मुज़फ़्फ़र वारसी के शब्दों के सहारे पूछ रही हैं मल्लिका-ए-तरन्नुम नूरजहां

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६८ पि छली दो कड़ियों से न जाने क्यों वह बात बन नहीं पा रही थी, जिसकी दरकार थी। वैसे कारण तो हमें भी पता है और आपको भी। हम इसलिए नहीं बताना चाहते कि खुद की क्या टाँग खींची जाए और आप तो आप ठहरे.. भला आप किसी का दिल क्यों दुखाने लगे। चलिए हम हीं बताए देते हैं... कारण था आलस्य। जैसा कि हमने पिछली कड़ी में यह वादा किया था कि अगली बार चाहे कितनी भी ठंढ क्यों न हो, चाहे कुहरा कितना भी घना क्यों न हो, हम अपनी महफ़िल को पर्याप्त समय देंगे.. बस ४५ मिनट में हीं इति-श्री नहीं कर देंगे और यह तो सभी जानते हैं कि जो वादा न निभाए वो प्यादा कैसा... माफ़ कीजिएगा शहजादा कैसा तो हमें वादा निभाना हीं था, आखिर हम भी तो कहीं के शहजादे हैं.... हैं ना, कहीं और के नहीं तो आपके दिलों के.... मानते हैं ना आप? हमें लगता है कि बातें ज्यादा हो गईं, इसलिए अब काम पर लग जाना चाहिए। काम से याद आया, हमने इन बातों को शुरू करने से पहले कुछ कहा था.. हाँ, यह कहा था कि आप किसी का दिल नहीं दुखाना चाहेंगे। तो हमारी आज की महफ़िल का संदेश भी यही है.. और आज की नज़्म इसी संदेश को पुख्ता करती है। शायर के लफ़्ज़ों में