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जाग दिल-ए-दीवाना.... चित्रगुप्त के संगीत में जागी है आवाज़ रफ़ी साहब की

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 314/2010/14 आ ज १४ जनवरी है। आज ही के दिन आज से ठीक १० साल पहले १९९१ में हम से बहुत दूर चले गए थे फ़िल्म संगीत के एक और बेहद गुणी संगीतकार जिन्हे हम चित्रगुप्त के नाम से जानते हैं। आज 'स्वरांजली' की चौथी कड़ी में हम अपने श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहे हैं चित्रगुप्त जी की पुण्य स्मृति को। चित्रगुप्त एक ऐसे संगीतकार रहे हैं जिन्हे बहुत ज़्यादा ए-ग्रेड फ़िल्मों में संगीत देने का मौका नहीं मिल पाया। लेकिन उनका संगीत हमेशा ए-ग्रेड ही रहा। फ़िल्म के चलने ना चलने से किसी संगीतकार के प्रतिभा का आंकलन नहीं किया जा सकता। लेकिन एक के बाद एक स्टंट, धार्मिक और कम बजट की सामाजिक फ़िल्मों में संगीत देते रहने की वजह से वो टाइप कास्ट हो गए। लेकिन फिर भी कई बार उन्हे बड़ी फ़िल्में भी मिली और उनमें उन्होने साबित कर दिखाया कि वो किसी दूसरे समकालीन बड़े संगीतकार से कुछ कम नहीं हैं। 'गंगा की लहरें', 'ऊँचे लोग', 'आकाशदीप', 'एक राज़', 'मैं चुप रहूँगी', 'औलाद', 'इंसाफ़', 'बैक कैट', 'लागी नाही छूटे राम', और 

एक मीठी सी चुभन...सहमे सहमे प्यार के स्वर लता के, संगीत से सँवारे जयदेव ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 313/2010/13 'स्व रांजली' में आज हम उस संगीतकार को श्रद्धांजली अर्पित कर रहे हैं जिनका ज़िक्र हमने इसी शृंखला की पहली कड़ी में किया था। जी हाँ, जयदेव जी। उनका स्वरबद्ध गीत यशुदास जी के जन्मदिन पर आप ने सुना था। जयदेव जी का देहावसान हुआ था ६ जनवरी के दिन। आज १३ जनवरी हम दे रहे हैं उन्हे अपनी श्रद्धांजली। जयदेव जी के बारे मे क्या कहें, इतने सुरीले थे वो कि उनका हर गीत उत्कृष्ट हुआ करता था। उनका कोई भी गीत ऐसा नहीं जो कर्णप्रिय ना हो। जयदेव जी की धुनों के लिए उत्कृष्टता से बढ़कर कोई शब्द नहीं है, ऐसा विविध भारती के यूनुस ख़ान ने भी कहा था जयदेव जी पर 'आज के फ़नकार' कार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए। चाहे शास्त्रीय संगीत हो या लोक संगीत, जयदेव के गीतों में कुछ भी अनावश्यक नहीं लगता। गीत के अनुरूप धुन की पूर्णता का अहसास कराता है उनका संगीत, ना कुछ कम ना कुछ ज़्यादा। विविध भारती के ही एक अन्य कार्यक्रम में वरिष्ठ उद्‍घोषक कमल शर्मा ने कहा था कि " धुन रचने से पहले जयदेव गीतकार की रचना को सुनते थे, उसकी वज़न को परखते थे। उनका विचार था कि शब्द पहले आने चा

असीर जहनों में सोच भरना कोई तो सीखे... नीलमा सरवर की धारदार गज़ल को तेज किया हामिद ने

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६६ आ ज की महफ़िल का श्रीगणेश हो, इससे पहले हीं हम आपसे माफ़ी माँगना चाहते हैं और वो इसलिए क्योंकि आज की महफ़िल थोड़ी छोटी रहनी वाली है। कारण? कारण यह है कि लेखक(यहाँ पर मैं) सामग्रियाँ इकट्ठा करने में इतना मशगूल हो गया कि लिखने के लिए पर्याप्त वक्त हीं नहीं निकाल पाया। तो आज की महफ़िल बस ४५ मिनट में लिखी गई है.. अब इतने कम वक्त में क्या सोचा जा सकता है और क्या लिखा जा सकता है। तो चलिए इस माफ़ीनामे पर दस्तखत करने के बाद महफ़िल की विधिवत शुरूआत करते हैं।इस महफ़िल में जिस गज़ल की पेशी या फिर अच्छे शब्दों में कहना हो तो ताज़पोशी होने वाली है,उसे लिखने वालीं गज़लगो पाकिस्तान के कुछ चुनिंदा शायराओं में शुमार होती हैं। ये शायराएँ पाकिस्तान में पल-बढ रहे रूढिवादियों और पाकिस्तान के इस्लामिकरण के खिलाफ़ जोर-शोर से आवाज़ उठाती आई हैं। इनके गुस्से की तब सीमा नहीं रही जब १० फरवरी १९७९ को पाकिस्तान में "हुदूद अध्यादेश" पारित किया गया, जिसके तहत क़्फ़्क़ (झूठी गवाही), ज़िना (नाज़ायज़ संबंध) और ज़िना-बिल-जब्र(बलात्कार) की स्थिति में महिलाओं को चादर और चाहरदीवारी के अंदर ढकेल

मेरे पिया गए रंगून, किया है वहां से टेलीफून...मोबाइल क्रांति के इस युग से काफी पीछे चलते हैं इस गीत के जरिये

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 312/2010/12 'स्व रांजली' की दूसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला में इन दिनों हम याद कर रहे हैं फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के उन कलाकारों को जिनका इस जनवरी के महीने में जन्मदिन या स्मृति दिवस होता है। गत ५ जनवरी को संगीतकार सी. रामचन्द्र जी की पुण्यतिथि थी। आज हमारी 'स्वरांजली' उन्ही के नाम! जैसा कि हमने पहली भी कई बार उल्लेख किया है कि सी. रामचन्द्र उन पाँच संगीतकारों में शुमार पाते हैं जिन्हे फ़िल्म संगीत के क्रांतिकारी संगीतकार होने का दर्जा दिया गया है। ४० के दशक में जब फ़िल्म संगीत मुख्यता शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत और सुगम संगीत पर ही आधारित हुआ करती थी, ऐसे में सी. रामचन्द्र जी ने पाश्चात्य संगीत को कुछ इस क़दर हिंदी फ़िल्मी गीतों में इस्तेमाल किया कि वह एक ट्रेंडसेटर बन कर रह गया। यह ज़रूर है कि इससे पहले भी पाश्चात्य साज़ों का इस्तेमाल होता आया है, लेकिन गीतों को पूरा का पूरा एक वेस्टर्ण लुक सी. रामचन्द्र जी ने ही पहली बार दिया था। और देखिए, जहाँ एक तरफ़ उनके "शोला जो भड़के", &

चाँद अकेला जाए सखी री....येसुदास की मधुर आवाज़ और जयदेव का संगीत, इससे बेहतर क्या होगा...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 311/2010/11 ज नवरी का महीना फ़िल्म संगीत जगत के लिए एक ऐसा महीना है जिसमें अनेक कलाकारों के जन्मदिवस तथा पुण्यतिथि पड़ती है। इस साल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की शुरुआत हमने की पंचम यानी कि राहुल देव बर्मन के पुण्यतिथि को केन्द्रित कर उन पर आयोजित लघु शृखला 'पंचम के दस रंग' के ज़रिए, जो कल ही पूर्णता को प्राप्त हुई है। पंचम के अलावा जनवरी के महीने में और भी बहुत सारे संगीतकारों, गीतकारों और गायकों के जन्मदिन व स्मृतिदिवस हैं, तो हमने सोचा कि क्यों ना दस अंकों की एक ख़ास लघु शृंखला चलाई जाए जिसमें ऐसे कलाकारों को याद कर उनके एक एक गीत सुनवा दिए जाएँ और उनसे जुड़ी कुछ बातें भी की जाए। तो लीजिए प्रस्तुत है आज, यानी ११ जनवरी से लेकर २० जनवरी तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की ख़ास शृंखला 'स्वरांजली'। दोस्तों, आज है ११ जनवरी। और कल, यानी कि १० जनवरी को था हिंदी और दक्षिण भारत के सुप्रसिद्ध पार्श्वगायक यशुदास जी का जनमदिन। जी हाँ, यशुदास, जिनका नाम कई जगह बतौर जेसुदास भी दिखाई दे जाता है। तो हम यशुदास जी को कहते हैं 'बिलेटेड हैप्पी बर्थडे'!!! पद्मभू

जब साजिद वाजिद जोड़ी को मिला गुलज़ार साहब का साथ, तो रचा गया एपिक "वीर" का संगीत

ताज़ा सुर ताल ०२/ २०१० सजीव - 'ताज़ा सुर ताल' की इस साल की दूसरी कड़ी में सभी का हम स्वागत करते हैं। पिछली बार ' दुल्हा मिल गया ' की गीतों की चर्चा हुई थी और गानें भी हमने सुनें थे, आज बारी है एक महत्वपूर्ण फ़िल्म की, जिसकी चर्चा शुरु हुए साल बीत चुका है। सुजॊय - चर्चा शुरु हुए साल बीत चुका है और अभी तक फ़िल्म बाहर नहीं आई, ऐसी तो मुझे बस एक ही फ़िल्म की याद आ रही है, सलमान ख़ान का 'वीर'। सजीव - बिल्कुल सही पहचाना तुमने! आख़िर अब इस फ़िल्म के गानें रिलीज़ हो चुके हैं, और फ़िल्म के प्रोमोज़ भी आने शुरु हो गए हैं। आज फ़िल्म 'वीर' की बातें और 'वीर' का संगीत 'ताज़ा सुर ताल' पर। सुजॊय - तो सजीव, जब 'वीर' की बात छिड़ ही गई है तो बात आगे बढ़ाने से पहले इस फ़िल्म का मशहूर गीत "सलाम आया" सुन लेते हैं और श्रोताओं को भी सुनवा देते हैं, उसके बाद इस गीत के बारे में चर्चा करेंगे और 'वीर' की बातों को आगे बढ़ाएँगे। सजीव - ज़रूर! बस इतना बता दें कि इस फ़िल्म के संगीतकार हैं साजिद-वाजिद और गीतकार हमारे गुलज़ार साहब। गीत - सल

महबूबा महबूबा....याद कीजिये पंचम का वो मदमस्त अंदाज़ जिस पर थिरका था कभी पूरा देश

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 310/2010/10 दो स्तों, 'पंचम के दस रंग' लघु शृंखला को सुनते हुए आज हम आ पहुँचे हैं दसवीं कड़ी, यानी इस शृंखला की अंतिम कड़ी पर। आज का रंग है 'आइटम सॊंग्‍'। आइटम सॊंग्स की परम्परा नई नहीं है। बहुत पहले से ही हमारी फ़िल्मों में आइटम सॊंग्स बनते आए हैं। हाँ, इतना ज़रूर बदलाव आया है कि पहले ऐसे गानें फ़िल्म की कहानी से जुड़े हुए लगते थे, शालीनता भी हुआ करती थी, लेकिन आज के दौर के आइटम सॊंग्स केवल सस्ती पब्लिसिटी और अंग प्रदर्शन के लिए ही इस्तेमाल में लाए जाते हैं। साहब, आइटम सॊंग किसे कहते हैं पंचम दा ने दुनिया को दिखाया था १९७५ की ब्लॊकबस्टर फ़िल्म 'शोले' में "महबूबा महबूबा" गीत को बना कर और ख़ुद उसे गा कर। जलाल आग़ा और हेलेन पर फ़िल्माया हुआ यह गीत उतना ही अमर है जितना कि फ़िल्म 'शोले'। आज के इस अंतिम कड़ी के लिए पंचम दा की आवाज़ में इस गीत से बेहतर भला और कौन सा गीत हो सकता था! फ़िल्म 'शोले' की हम और क्या बातें करें, इसके हर पहलु तो बच्चा बच्चा वाक़िफ़ है, इसलिए आइए आज इस गीत की थोड़ी चर्चा की जाए। "महबूबा मह