Skip to main content

Posts

दोस्त कहाँ कोई तुमसा...."सिस्टर्स" की सेवाओं को समर्पित एक अनूठा नगमा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 238 हे मन्त कुमार के निजी बैनर 'गीतांजली पिक्चर्स' के बारे में हम आपको पहले ही बता चुके हैं जब हमने आपको फ़िल्म ' बीस साल बाद ' और ' कोहरा ' के दो गीत सुनवाए थे। इसी बैनर के तले उन्होने १९६९ में फ़िल्म बनाई 'ख़ामोशी'। यह फ़िल्म हिंदी सिनेमा का एक बड़ा ही ख़ूबसूरत और उल्लेखनीय अध्याय माना जाता है। आशुतोष मुखर्जी की कहानी पर बनी इस फ़िल्म का निर्देशन किया था असित सेन ने, संवाद और गीत लिखे गुलज़ार ने, संगीत था हेमन्त कुमार का और फ़िल्म के मुख्य चरित्रों में थे राजेश खन्ना व वहीदा रहमान। फ़िल्म जितनी सार्थक थी, उतने ही लोकप्रिय हुए इसके गानें। चाहे वह लता जी का गाया "हमने देखी है इन आँखों की महकती ख़ुशबू" हो या किशोर दा का गाया "वह शाम कुछ अजीब थी", या फिर हेमन्त दा का ही गाया "तुम पुकार लो, तुम्हारा इंतज़ार है"। इन तीन हिट गीतों के अलावा दो और गीत थे इस फ़िल्म में, एक आरती मुखर्जी का गाया हुआ और दूसरा मन्ना डे साहब का गाया हुआ, जो फ़िल्माया गया था कॊमेडियन देवेन वर्मा पर, जिन्होने फ़िल्म में एक मरीज़ की

ज़रा सामने तो आओ छलिये...एक ऐसा गीत जो ख़तम होने के बाद भी देर तक गूंजता रहेगा आपके जेहन में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 237 ह मारी फ़िल्म इंडस्ट्री में शुरु से ही कुछ प्रथाएँ चली आ रही हैं। फ़िल्मों को ए-ग्रेड, बी-ग्रेड और सी-ग्रेड करार दिया जाता है, लेकिन जिन मापदंडों को आधार बनाकर ये ग्रेड दिए गए हैं, उनसे शायद बहुत लोग सहमत न हों। आम तौर पर क्या होता है कि बिग बजट फ़िल्मों, बड़े निर्माताओं और निर्देशकों के फ़िल्मों को ए-ग्रेड कहा जाता है, जिनका वितरण और पब्लिसिटी भी जम कर होती है, और ये फ़िल्में चलती भी हैं और इनका संगीत भी हिट होता है। दूसरी तरफ़ पौराणिक और स्टंट फ़िल्मों का भी एक जौनर शुरु से रहा है। फ़िल्में अच्छी होने के बावजूद भी इनकी तरफ़ लोग कम ही ध्यान देते हैं और इन्हे सी-ग्रेड करर दिया जाता है। यहाँ तक कि बड़े संगीतकार डरते रहे हैं ऐसी फ़िल्मों में संगीत देने से, क्योंकि उनका विचार है कि एक बार माइथोलोजी में चले गए तो वहाँ से बाहर निकलना नामुम्किन है। आनंदजी भाई ने भी यही बात कही थी जब उन्हे शुरु शुरु में पौराणिक फ़िल्मों के ऑफर मिले थे। बात चाहे बुरी लगे सुनने में लेकिन बात है तो सच्ची! पौराणिक फ़िल्मों के ना चलने से इन फ़िल्मों के गीत संगीत भी पीछे ही रह जाते रहे

हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है....गुलाम अली के मार्फ़त जता रहे हैं "हसरत मोहानी" साहब

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५५ आ ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं सीमा जी की पसंद की तीसरी गज़ल लेकर। गज़लों की इस फ़ेहरिश्त को देखकर लगता है कि सीमा जी सच्ची और अच्छी गज़लों में यकीन रखती है। जैसे कि आज की हीं गज़ल को देख लीजिए, इस गज़ल की खासियत यह है कि गज़ल-विधा को न के बराबर जानने वाला एक शख्स भी इसे बखूबी जानता है और बस जानता हीं नहीं बल्कि इसे गुनगुनाता भी है। ताज्जुब तो तब होता है जब यह मालूम चले कि ऐसी रूमानी गज़ल को लिखने वाला गज़लगो हिन्दुस्तानी स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण सिपाही था। जी हाँ, हम "हसरत मोहानी" साहब की बात कर रहे हैं, जिन्हें "इन्कलाब ज़िंदाबाद" शब्द-युग्म के ईजाद का श्रेय दिया जाता है। इस गज़ल के बारे में इसके फ़नकार "गुलाम अली" साहब कहते है: यह गजल मेरी पहचान बन चुकी है, इसीलिए मेरे लिए बहुत खास है। मेरे स्टेज पर पहुंचते ही लोग इस गजल की फरमाइश शुरू कर देते हैं। दरअसल इस गजल के बोल और इसकी कंपोजिशन इतनी खास है कि हर दौर के लोगों को यह पसंद आती है। मैंने सबसे पहले रेडियो पाकिस्तान पर यह गजल गाई थी और जहां तक मेरा ख्याल है, उसके बाद से म

दगा दगा वई वई वई....चित्रगुप्त और लता ने रचा एक ऐसा गीत जिसे सुनकर कोई भी झूम उठे, कदम थिरक उठे

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 236 य श चोपड़ा की सफलतम फ़िल्म 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे' के बाद चार या उससे अधिक शब्दों वाले शीर्षक से फ़िल्में बनाने की जैसे एक होड़ सी शुरु हो गई थी फ़िल्मकारों के बीच। लेकिन चार शब्दों वाले फ़िल्मी शीर्षक काफ़ी पहले से ही चले आ रहे हैं। हाँ, ये ज़रूर है कि लम्बे नाम वाले फ़िल्मों की संख्या उस ज़माने में कम हुआ करती थी। ९० के दशक में और इस दशक के पहले भाग में सब से ज़्यादा इस तरह के लम्बे नाम वाले फ़िल्मों का निर्माण हुआ। आज फिर से छोटे नाम वाले फ़िल्में ही ज़्यादा बनने लगी हैं। फ़िल्मी इतिहास में ग़ोते लगाने के बाद मेरे हाथ चार शब्दों वाले नाम का जो सब से पुराना फ़िल्म हाथ लगा (अंग्रेज़ी शीर्षक वाले फ़िल्मों को अलग रखते हुए), वह है सन् १९३६ की फ़िल्म 'ममता और मिया बीवी' जिसका निर्माण बॊम्बे टॊकीज़ ने किया था। उसके बाद १९३९ में बनी थी वाडिया मूवीटोन की फ़िल्म 'कहाँ है मंज़िल तेरी'। ४० के दशक में १९४२ में सौभाग्य पिक्चर्स ने बनाई 'हँसो हँसो ऐ दुनियावालों'। १९४४ में दो फ़िल्में आयीं 'चल चल रे नौजवान' और 'पर्बत पे

जो तुझे जगाये, नींदें तेरी उडाये, ख्वाब है सच्चा वही....सच्चे ख़्वाबों को पहचानिये...प्रसून की सलाह मानिये

ताजा सुर ताल TST (31) दोस्तों, ताजा सुर ताल यानी TST पर आपके लिए है एक ख़ास मौका और एक नयी चुनौती भी. TST के हर एपिसोड में आपके लिए होंगें तीन नए गीत. और हर गीत के बाद हम आपको देंगें एक ट्रिविया यानी हर एपिसोड में होंगें ३ ट्रिविया, हर ट्रिविया के सही जवाब देने वाले हर पहले श्रोता की मिलेंगें २ अंक. ये प्रतियोगिता दिसम्बर माह के दूसरे सप्ताह तक चलेगी, यानी 5 अक्टूबर के एपिसोडों से लगभग अगले 20 एपिसोडों तक, जिसके समापन पर जिस श्रोता के होंगें सबसे अधिक अंक, वो चुनेगा आवाज़ की वार्षिक गीतमाला के 60 गीतों में से पहली 10 पायदानों पर बजने वाले गीत. इसके अलावा आवाज़ पर उस विजेता का एक ख़ास इंटरव्यू भी होगा जिसमें उनके संगीत और उनकी पसंद आदि पर विस्तार से चर्चा होगी. तो दोस्तों कमर कस लीजिये खेलने के लिए ये नया खेल- "कौन बनेगा TST ट्रिविया का सिकंदर" TST ट्रिविया प्रतियोगिता में अब तक- पिछले एपिसोड में सीमा जी ने बढ़त बनाये रखी है, ३ में से २ सही जवाब और कुल अंक उनके हुए १६. तनहा जी दूसरे स्थान पर हैं ६ अंकों के साथ. तनहा जी ने भी एक सवाल का सही जवाब दिया. दिशा जी जरा देरी से आई

महताब तेरा चेहरा किस ख्वाब में देखा था....लता मुकेश की मखमली आवाज़ में एक सुरीला नगमा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 235 दो स्तों, एक के बाद एक तीन गीत हम आपको सुनवा रहें हैं शंकर जयकिशन के स्वरबद्ध किए हुए, और मौका है शंकर जी के जन्म दिवस का जो था १५ अक्तुबर को। कल की तरह आज का गीत भी शैलेन्द्र का ही लिखा हुआ है। फ़िल्म 'आशिक़' का युगल गीत है मुकेश और लता मंगेशकर की आवाज़ों में "महताब तेरा चेहरा किस ख़्वाब में देखा था, ऐ हुस्न-ए-जहाँ बतला तू कौन मैं कौन हूँ"। 'आशिक़' १९६२ की फ़िल्म थी जिसके निर्माता थे विजय किशोर दुबे और बनी रूबेन। ऋषीकेश मुकर्जी ने फ़िल्म को निर्देशित किया और इसके मुख्य कलाकार थे राज कपूर, नंदा और पद्मिनी। जहाँ तक म्युज़िक डिपार्ट्मेंट की बात है, तो शंकर जयकिशन के अलावा जिनका फ़िल्म के संगीत में योगदान रहा वे हैं मिनू कात्रक (रिकार्डिस्ट), डी. ओ. भंसाली (सहायक रिकार्डिस्ट), दत्ताराम वाडकर (संगीत सहायक), और सेबास्टियन डी' सूज़ा (संगीत सहायक)। गीतों में आवाज़ें लता जी और मुकेश जी के थे। आज के प्रस्तुत गीत के अलावा इस फ़िल्म का एक और युगल गीत "ओ शमा मुझे फूँक दे, मैं ना मैं रहूँ तू ना तू रहे" भी लोकप्रिय हुआ था। और मुकेश

रविवार सुबह की कॉफी और फीचर्ड एल्बम "जूनून" पर बात, दीपाली दिशा के साथ (१८)

कहते हैं कि संगीत एक नशा है, जादू है, जो सर चढ़ के बोलता है. यही नहीं संगीत आत्मा की आवाज है जो इंसान में जोश और जूनून पैदा कर देता है और लोगों तक शान्ति तथा सदभाव पहुँचाने का जरिया भी है. शायद कुछ इसी मकसद से पाकिस्तानी गायकों ने अपने बैंड का नाम ’जूनून’ रखा होगा. खैर उनका मकसद जो भी रहा हो लेकिन उनके संगीत में जूनून नजर आता है जो लोगों में भी एक भाव पैदा कर देता है. ’जूनून’ पाकिस्तान का एक प्रसिद्ध बैंड है. यूं तो पाकिस्तान के कई बैंड यहाँ हिन्दुस्तान में आये हैं लेकिन ’जूनून’ ने काफी ख्याति पायी है. पिछले दस सालों में जूनून बैंड की पाँच एल्बम आयीं हैं जिनमें से सभी ने धूम मचायी है. यह पाकिस्तान के इतिहास का सबसे प्रसिद्ध बैंड है. ’जूनून’ बैंड के सदस्यों में सलमान अहमद, अली अज़मत और ब्रायन ओ शामिल हैं. ’तलाश’, ’इंकलाब’, आज़ादी, ’परवाज़’ और ’दीवार’ इनकी अब तक की एल्बमें है. जूनून ग्रुप की ’आज़ादी’ एल्बम ने सबसे ज्यादा धूम मचायी थी. इसके प्रसिद्ध होने का मुख्य कारण जूनून बैंड का सूफी के साथ रॉक का संगम होना है. ’आजादी’ का संगीत व गानों को सुनकर लगता है कि जूनून बैंड पूर्वी संगीत से प्र