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रे मन सुर में गा...फ़िल्मी गीतों में भी दिए हैं मन्ना डे और आशा ने उत्कृष्ट राग गायन की मिसाल

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 193 फ़ि ल्म संगीत के सुनहरे दौर के पार्श्वगायकों में एक महत्वपूर्ण नाम मन्ना डे साहब का रहा है। भले ही उन्हे नायकों के पार्श्व गायन के लिए बहुत ज़्यादा मौके नहीं मिले, लेकिन उनकी गायकी का लोहा हर संगीतकार मानता था। शास्त्रीय संगीत में उनकी मज़बूत पकड़ का ही नतीजा था कि जब भी किसी फ़िल्म में शास्त्रीय संगीत पर आधारित, या फिर दूसरे शब्दों में, मुश्किल गीतों की बारी आती थी तो फ़िल्मकारों और संगीतकारों को सब से पहले मन्ना दा की ही याद आ जाती थी। आज '१० गायक और एक आपकी आशा' की तीसरी कड़ी में आशा भोंसले का साथ निभाने के लिए हमने आमंत्रण दिया है इसी सुर गंधर्व मन्ना डे साहब को! युं तो मन्ना दा ने लता मंगेशकर के साथ ही अपने ज़्यादातर लोकप्रिय युगल गीत गाए हैं, लेकिन आशा जी के साथ भी उनके गाए बहुत सी सुमधुर रचनाएँ हैं। आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में छा रहा है शास्त्रीय संगीत का रंग मन्ना दा और आशा जी की आवाज़ों में। फ़िल्म 'लाल पत्थर' का यह गीत है "रे मन सुर में गा"। क्या गाया है इन दोनों ने इस गीत को! कोई किसी से कम नहीं। इस जैसे गीत को सुन कर

मुंशी प्रेमचंद की विजय

सुनो कहानी: विजय - मुंशी प्रेमचंद 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में प्रेमचंद की कहानी "नसीहतों का दफ्तर" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार मुंशी प्रेमचन्द की कथा " विजय ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 25 मिनट 14 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं ~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी नतीजा यह हूआ कि आपस के प्यार और सच्चाई की जगह सन्देह पैदा हो गये। दरबारियों में गिरोह बनने लगे। ( प्रेमचंद की "विजय" से एक अंश ) नीचे के प्लेयर से सुनें. (प्लेयर पर एक बार क्लि

चल बादलों के आगे ....कहा हेमंत दा ने आशा के सुर से सुर मिलाकर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 192 '१० गायक और एक आपकी आशा' की पहली कड़ी में कल आप ने आशा भोसले और तलत महमूद का गाया फ़िल्म 'इंसाफ़' का युगल गीत सुना था। आज भी कल जैसा ही एक नर्म-ओ-नाज़ुक रोमांटिक युगल गीत लेकर हम हाज़िर हुए हैं। आज के गायक हैं हेमंत कुमार। इससे पहले की हम आज के गीत की चर्चा करें, क्योंकि यह शृंखला केन्द्रित है आशा जी पर, तो आशा जी के बारे में पहले कुछ बातें हो जाए! आशा जी ने फ़िल्म जगत में अपना सफ़र शुरु किया था बतौर बाल कलाकार। 'बड़ी माँ' और 'आई बहार' जैसी फ़िल्मों में उन्होने अभिनय किया था। बतौर पार्श्वगायिका उन्हे पहला मौका दिया था संगीतकार हंसराज बहल ने, फ़िल्म थी 'चुनरिया' और साल था १९४८। लेकिन यह फ़िल्म नहीं चली और उनका गाना भी नज़रंदाज़ हो गया। शोहरत की ऊँचाइयों को छूने के लिए उन्हे करीब करीब १० साल संघर्ष करना पड़ा. १९५७ के कुछ फ़िल्मों से वो हिट हो गयीं और १९५८ में बनी 'हावड़ा ब्रिज' के "आइए मेहरबान" गीत से तो वो लोगों के दिलों पर राज करने लगीं। १९४८ की 'चुनरिया' से लेकर १९५८ की 'हावड़ा ब्रिज

ओ क़ाबा-ए-दिल ढाहने वाले, बुतखाना हूँ तो तेरा हूँ.... "ज़हीन" के शब्द और "शुभा" की आवाज़

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #४२ "प्र श्न-पहेली" की यह दूसरी "किश्त" पाठकों को भा रही है, इसी यकीन और इसी उम्मीद के साथ हम पहुँच गए हैं इस पहेली के दूसरे सोपान पर। आज के प्रश्नों का पिटारा खोलने से पहले वक्त है पिछली महफ़िल के विजेताओं और अंकों से परदा हटाने का। पहेली के साथ हीं शरद जी की वापसी तय थी और वैसा हीं हुआ। बस हमें किसी की कमी खली तो वो हैं "दिशा" जी। चलिए कोई बात नहीं, उम्मीद करते हैं कि दिशा जी अगली पहेलियों का जरूर हिस्सा बनेंगी। पिछली कड़ी की पहेलियों का सबसे पहले जवाब दिया शरद जी ने। वैसे तो उन्हें इसके लिए ४ अंक मिलने चाहिए थें, लेकिन चूँकि उन्होंने दूसरे प्रश्न में आधा हीं उत्तर दिया ("मुन्नी बेगम" और "१९७६" ये दो उत्तर थे) , इसलिए कुल मिलाकर उन्हें ३ हीं अंक मिलते हैं। शरद जी के बाद "सीमा" जी जवाबों के साथ हाज़िर हुईं। उन्होंने दोनों प्रश्नों के सही सवाल दिए। इसलिए उन्हें नियम के अनुसार २ अंक मिलते हैं। अब बारी है आज के प्रश्नों की| तो यह रही प्रतियोगिता की घोषणा और उसके आगे दो प्रश्न: ५० वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल

दो दिल धड़क रहें हैं और आवाज़ एक है....आशा और तलत ने आवाज़ मिलाई आवाज़ से

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 191 गा यक मुकेश के बाद आज से हम फ़िल्म संगीत की आकाश के उस सितारे पर एक लघु शृंखला शुरु करने जा रहे हैं जिनकी आवाज़ का जादू हर उम्र के सुनने वालों पर गहराई से हुआ है। दिल की गहराई में आसानी से उतर जाने वाली, हर भाव, हर रंग को उजागर करने वाली ये आवाज़ है फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध पार्श्व गायिका आशा भोंसले की। आशा भोंसले की आवाज़ की अगर हम तारीफ़ करें तो शायद शब्द भी फीके पड़ जाये उनकी आवाज़ की चमक के सामने। और यह चमक दिन ब दिन बढ़ती चली गयी है अलग अलग रंग बदल कर, ठीक वैसे जैसे कोई चित्रकार अलग अलग रंगों से अपने चित्र को सुंदरता प्रदान करता चला जा रहा हो! ८ सितंबर को आशा जी का जनम दिन है। इसी को केन्द्र करते हुए आज से अगले १० दिनों तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुनिए आशा जी के गाए युगल गीतों की एक ख़ास लघु शृंखला '१० गायक और एक आपकी आशा'। इसके तहत हम आप को आशा जी के गाए फ़िल्म संगीत के सुनहरे युग के १० युगल गीत सुनवाएँगे, १० अलग अलग गायकों के साथ गाए हुए। इसमें हम गायिकाओं को शामिल नहीं कर रहे हैं। 'फ़ीमेल डुएट्स' पर हम भविष्य में एक अलग से शृंखला

"जी" पीढी का 'जागो मोहन प्यारे...' है "यो" पीढी में 'वेक अप सिद...'

ताजा सुर ताल (19) ताजा सुर ताल में आज सुनिए शंकर एहसान लॉय और जावेद अख्तर का रचा ताज़ा तरीन गीत सजीव - सुजॉय, जब भी हमें किसी नई फ़िल्म के लिए पता चलता है कि उसके संगीतकार शंकर एहसान लॉय होंगे, तो हम कम से कम इतना ज़रूर उम्मीद करते हैं कि उस संगीत में ज़रूर कुछ नया होगा, कोई नया प्रयोग सुनने को मिलेगा। तुम्हारे क्या विचार हैं इस बारे में? सुजॉय - जी हाँ बिल्कुल, मैं आप से सहमत हूँ। पिछले दो चार सालों में उनकी हर फ़िल्म हिट रही है। और आजकल चर्चा में है 'वेक अप सिद' का म्युज़िक। सजीव - मैं बस उसी पर आ रहा था कि तुमने मेरी मुँह की बात छीन ली। तो आज हम बात कर रहे हैं शंकर एहसान लॉय के तिकड़ी की और साथ ही उनकी नई फ़िल्म 'वेक अप सिद' की। लेकिन सुजॉय, मुझे इस फ़िल्म के गीतों को सुनकर ऐसा लगा कि इस फ़िल्म के गीतों में बहुत ज़्यादा नयापन ये लोग नहीं ला पाए हैं। सुजॉय - सची बात है। पिछले साल 'रॊक ऒन' में जिस तरह का औफ़ बीट म्युज़िक इस तिकड़ी ने दिया था, इस फ़िल्म के गानें भी कुछ कुछ उसी अंदाज़ के हैं। सजीव - हो सकता है कि इस फ़िल्म में नायक सिद के व्यक्तित्व को इसी तर

ओ जानेवाले हो सके तो लौट के आना...हर दिल से आती है यही सदा मुकेश के लिए

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 190 '१० गीत जो थे मुकेश को प्रिय', इस लघु शृंखला में पिछले ९ दिनों से आप सुनते आ रहे हैं गायक मुकेश के गाये उन्ही के पसंद के गीतों को। आज हम आ पहुँचे हैं इस शृंखला की अंतिम कड़ी में। मुकेश के गए इतने साल बीत जाने पर भी उनकी यादें हम सब के दिल में बिलकुल ताज़ी हैं, उनके गीतों को हम हर रोज़ ही सुनते हैं। वो इस तरह से हमारी ज़िंदगियों में घुलमिल गए हैं कि ऐसा लगता है कि जैसे वो कहीं गए ही न हो! उनका शरीर भले ही इस दुनिया में न हो, लेकिन उनकी आत्मा हर वक़्त हमारे बीच मौजूद है अपने गीतों के माध्यम से। आज इस अंतिम कड़ी के लिए हम ने उनकी पसंद का एक ऐसा गीत चुना है जिसे सुनकर दिल उदास हो जाता है किसी जाने वाले की याद में। सचिन देव बर्मन के संगीत में शैलेन्द्र की गीत रचना फ़िल्म 'बंदिनी' से, "ओ जानेवाले हो सके तो लौट के आना, ये घाट तू ये बाट कहीं भूल न जाना"। इस फ़िल्म का आशा भोंसले का गाया एक गीत आप कुछ ही दिन पहले सुन चुके हैं जिसे शरद तैलंग जी के अनुरोध पर हमने आप को सुनवाया था। उस दिन भी हमने आप से कहा था, और आज भी दोहरा रहे हैं कि इस फ़ि