Skip to main content

Posts

दीवाना मुझसा नहीं इस अम्बर के नीचे...रफी साहब के किया दावा शम्मी कपूर के लिए

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 151 "म स्ती में छेड़ के तराना कोई दिल का, आज लुटायेगा ख़ज़ाना कोई दिल का"। जी हाँ दोस्तों, तैयार हो जाइए उस ख़ज़ाने से निकलने वाले तरानों के साथ बहने के लिए जिस ख़ज़ाने को हम और आप मोहम्मद रफ़ी के नाम से जानते हैं। आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शुरु हो रहा है रफ़ी साहब को समर्पित दस विशेषांकों की एक ख़ासम-ख़ास पेशकश - "दस चेहरे एक आवाज़ - मोहम्मद रफ़ी"। जैसा कि शीर्षक से ही प्रतीत हो रहा है कि ये दस गानें दस अलग अलग नायकों पर फ़िल्माये हुए होंगे। रफ़ी साहब के अलग अलग अंदाज़-ए-बयाँ को इस शृंखला में क़ैद करने के लिए हमने नायकों के तराजू को इसलिए चुना क्योंकि रफ़ी साहब अपनी आवाज़ से अभिनय ही तो करते थे। हर नायक के स्टाइल और मैनरिज़्म को अच्छी तरह से जज्ब कर उनका पार्श्व गायन किया करते थे, और यही वजह है कि चाहे परदे पर दिलीप कुमार हो या धर्मेन्द्र, भारत भूषण हो या जीतेन्द्र, रफ़ी साहब की आवाज़ हर एक नायक को उसकी आवाज़ बना लेती थी। तो दोस्तों, आज से लेकर अगले दस दिनों तक हर रोज़ सुनिये रफ़ी साहब की आवाज़ लेकिन अलग अलग नायकों को दी हुई। यूं त

सुनो कहानी: आँखें - स'आदत हसन 'मंटो'

मंटो की "आँखें" 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में उर्दू और हिंदी प्रसिद्ध के साहित्यकार उपेन्द्रनाथ अश्क की एक छोटी कहानी " ज्ञानी " का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं सआदत हसन मंटो की "आँखें" , जिसको स्वर दिया है "किस से कहें" वाले अमिताभ मीत ने। इससे पहले आप अमिताभ मीत की आवाज़ में सआदत हसन मंटो की " कसौटी " और अनुराग शर्मा की आवाज़ में मंटो की अमर कहानी टोबा टेक सिंह और एक लघुकथा सुन चुके हैं। "आँखें" का कुल प्रसारण समय ११ मिनट और २३ सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। पागलख़ाने में एक पागल ऐसा भी था जो ख़ुद को ख़ुदा कहता था। ~ सआदत हसन मंटो (१९१२-१९५५) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी

जब ओल्ड इस गोल्ड के श्रोताओं ने सुनाये सुजॉय को अपनी पसंद के गीत- 150 वें एपिसोड का जश्न है आज की शाम

२० फरवरी २००९ को आवाज़ पर शुरू हुई एक शृंखला, जिसका नाम रखा गया ओल्ड इस गोल्ड. सुजॉय चट्टर्जी विविध भारती ग्रुप के सबसे सक्रिय सदस्य थे, यही माध्यम था उनसे परिचय का. फिर एक बार वो दिल्ली आये उन्होंने अपने ग्रुप के सभी मित्रों को मिलने के लिए बुलाया. उस दिन युग्म के नियंत्रक शैलेश भारतवासी जी उनसे मिले. उसके अगले दिन मैं सुजॉय से व्यक्तिगत रूप से मिला, उनके पास रेडियो प्रोग्राम्स का एक ऐसा खजाना मौजूद था जिस पर किसी की भी नज़र ललचा जाए, तब से यही जेहन में दौड़ता रहा कि किस तरह सुजोय के इस खजाने को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाया जाए, तभी अचानक ओल्ड इस गोल्ड का आईडिया क्लिक किया. २० फरवरी का दिन क्यों चुना गया इसकी भी एक ख़ास वजह थी, यहाँ थोडा सा व्यक्तिगत हो गया था मैं....यही वो दिन था जब मेरी सबसे प्रिय पूजनीय नानी माँ दुनिया को विदा कह गयी थी, मुझे लगा क्यों ना इस शृंखला को उन्हीं की यादों को समर्पित किया जाए. खैर जब सुजॉय से पहले पहल इस बारे में बात की तो सुजॉय तो क्या मैं और आवाज़ की टीम भी इसकी सफलता को लेकर संशय में थे, और फिर रोज एक नया गीत डालना, क्या हम ये सब नियमित रूप से कर पा

बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी..... एक फ़रमाईश जो पहुँची कफ़ील आज़र तक

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३२ आ ज महफ़िल-ए-गज़ल की ३२वीं कड़ी है और वादे के अनुसार हम फ़रमाईश की पहली गज़ल/नज़्म लेकर हाज़िर हैं। जिन लोगों को फ़रमाईश वाली बात पता नहीं, उनके लिए हम पिछली बार के पोस्ट पर की गई टिप्पणी वापस यहाँ पेस्ट किए दे रहे हैं। पिछली बार "शामिख" जी ने यह सवाल उठाया था तो हमारा जवाब कुछ यूँ था: हमने २५वें से २९वें एपिसोड के बीच प्रश्नों का एक सिलसिला चलाया था। उन पहेलियों/प्रश्नों का जिन्होंने भी सही जवाब दिया, उन्हें हमने अंकों से नवाज़ा। इस तरह पाँच एपिसोडों के अंकों को मिलाने से हमें दो विजेता मिले - शरद साहब और दिशा जी। हमने वादा किया था कि जो भी विजेता होगा वो हमसे ५ गज़लों की फ़रमाईश कर सकता है, जिनमें से हम किन्हीं भी ३ गज़लों की फ़रमाईश पूरी करेंगे। इस तरह चूँकि दो विजेता हैं इसलिए हम फ़रमाईश की ६ गज़लों/नज़्मों को ३२वें से ४२वें एपिसोड के बीच पेश करेंगे। तो लीजिए हम हाज़िर हैं अपनी पहली पेशकश के साथ....अहा! अपनी नहीं, "शरद" जी की पहली पेशकश के साथ। आज की नज़्म की फ़रमाईश शरद जी ने हीं की थी। वैसे "दिशा" जी को हम याद दिलाना चाहेंगे कि उ

ये हवा ये रात ये चांदनी...सज्जाद हुसैन का संगीतबद्ध एक नायाब गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 150 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल दिन-ब-दिन, कड़ी दर कड़ी आगे बढ़ती चली जा रही है दोस्तों। यह आप सब का प्यार और पुराने फ़िल्म संगीत में आप की दिलचस्पी ही है कि इस शृंखला की रोचकता में ज़रा सी भी कमी नहीं आयी है। आज इस शृंखला ने पूरे किए पूरे १५० दिन! आप सब का प्यार युंही बना रहे, तो हम आगे भी आप के पसंदीदा गीतों के इस महफ़िल को युंही रोशन करते रहेंगे। दरअसल यह महफ़िल रोशन है गुज़रे ज़माने के उन लाजवाब कलाकारों की अपार मेहनत और लगन की वजह से जिन्होने फ़िल्म संगीत के धरोहर को समृद्ध किया, उसमें बेशुमार मोतियाँ जड़ें। आज यह धरोहर एक विशाल अनमोल ख़ज़ाने का रूप ले चुकी है, और इसी ख़ज़ाने से चुन चुन कर हम मोतियाँ निकाल कर ला रहे हैं हर रोज़ आप के लिए। आज इस शृंखला की १५० वीं कड़ी के लिए हमने जो गीत चुना है वो फ़िल्म संगीत का एक सदाबहार नग़मा है। इसके संगीतकार ने अपने पूरे जीवन में केवल १४ फ़िल्मों में संगीत दिया है, लेकिन इन १४ फ़िल्मों में उन्होने कुछ ऐसा काम कर दिखाया है कि आज ५० साल बाद भी वो ज़िंदा हैं अपने रचे उन तमाम कालजयी संगीत की वजह से। हम बात कर रहे

एक दिल से दोस्ती थी ये हुज़ूर भी कमीने...विशाल भारद्वाज का इकरारनामा

ताजा सुर ताल (12) आ त्मावलोकन यानी खुद के रूबरू होकर बीती जिंदगी का हिसाब किताब करना, हम सभी करते हैं ये कभी न कभी अपने जीवन में और जब हमारे फ़िल्मी किरदार भी किसी ऐसी अवस्था से दोचार होते हैं तो उनके ज़ज्बात बयां करते कुछ गीत भी बने हैं हमारी फिल्मों में, अक्सर नतीजा ये निकलता है कि कभी किस्मत को दगाबाज़ कहा जाता है तो कभी हालतों पर दोष मढ़ दिया जाता है कभी दूसरों को कटघरे में खडा किया जाता है तो कभी खुद को ही जिम्मेदार मान कर इमानदारी बरती जाती है. रेट्रोस्पेक्शन या कन्फेशन का ही एक ताजा उदाहरण है फिल्म "कमीने" का शीर्षक गीत. फर्क सिर्फ इतना है कि यहाँ जिंदगी को तो बा-इज्ज़त बरी कर दिया है और दोष सारा बेचारे दिल पर डाल दिया गया है, देखिये इन शब्दों को - क्या करें जिंदगी, इसको हम जो मिले, इसकी जाँ खा गए रात दिन के गिले.... रात दिन गिले.... मेरी आरजू कामिनी, मेरे ख्वाब भी कमीने, एक दिल से दोस्ती थी, ये हुज़ूर भी कमीने... शुरू में ये इजहार सुनकर लगता है कि नहीं ये हमारी दास्तान नहीं हो सकती, पर जैसे जैसे गीत आगे बढता है सच आइना लिए सामने आ खडा हो जाता है और कहीं न कहीं हम सब इ

सूरज रे जलते रहना... सम्पूर्ण सूर्य ग्रहण के एतिहासिक अवसर पर सूर्य देव को नमन

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 149 दो स्तों, आज सुबह सुबह आप ने बहुत दिनों के बाद सम्पूर्ण सूर्य ग्रहण का नज़ारा देखा होगा। आप में से बहुत से लोग अपनी आँखों से इस अत्यंत मनोरम खगोलीय घटना को देखा होगा, और बाक़ी टीवी के परदे पर इसे देख कर ही संतुष्ट हुए होंगे! यूं तो सूर्य ग्रहण साल में कई बार आता है, लेकिन सम्पूर्ण सूर्य ग्रहण की बारी यदा कदा ही आती है। सम्पूर्ण सूर्य ग्रहण वैज्ञानिक दृष्टि से बेहद महत्व रखता है क्युंकि सूर्य से संबधित कुछ ऐसे शोध करने के अवसर मिल जाते हैं जो सूर्य की तेज़ रोशनी की वजह से आम दिनों में संभव नहीं हो पाती। दोस्तों, संगीत के इस मंच पर विज्ञान का पाठ पढ़ा कर मैं आप को और ज़्यादा बोर नहीं करूँगा, अब मैं सीधे आ जाता हूँ आज के गीत पर। हमने यह सोचा कि इस सम्पूर्ण सूर्य ग्रहण को यादगार बनाते हुए क्यों न आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड' भी सूर्य देव के ही नाम कर दिया जाये। तब सूर्य देव के उपर बनने वाले तमाम गीतों को ज़हन में लाते हुए हमारी नज़र जिस गीत पर जा कर रुक गयी और हमें ऐसा लगा कि इस गीत से बेहतर आज के दिन के लिए दूसरा कोई गीत हो ही नहीं सकता, वह गीत है "जगत