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जमीन से हमें आसमान पर बिठाके गिरा तो न दोगे....एक मासूम सा सवाल इस प्रेम गीत में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 138 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में आप इन दिनों सुन रहे हैं 'मदन मोहन विशेष'। मदन मोहन का मनमोहक संगीत फ़िल्म संगीत के स्वर्णयुग का एक सुरीला अध्याय है। उनकी हर रचना बेजोड़ है, बावजूद इसके कि उन्होने दूसरे सफल संगीतकारों की तरह बहुत ज़्यादा फ़िल्मों में संगीत नहीं दिया है। उनके गीतों में हमारी संस्कृति की अनुगूँज सुनाई देती है। उनके संगीत में है रागों का अनुराग, संगीत का वह रस भरा संसार है कि जिसमें बार बार डुबकी लगाने को जी चाहता है। फ़िल्म संगीत की दुनिया से जुड़े संगीतकारों की इस दुनिया में मदन मोहन अलग ही नज़र आते हैं। संगीतकार बेशक़ एक दौर में अपनी संगीत यात्रा पूरी कर चला जाता है, लेकिन उनका संगीत काल और समय से परे होता है। मदन मोहन का संगीत भी कालजयी है और रहेगा जो साया बन हमेशा हमारे साथ चलेगा और बाँटता रहेगा हमारी ख़ुशियाँ, हमारे ग़म। मदन मोहन साहब को हम ने जिस क़दर अपने दिलों में बसा रखा है, वो कभी वहाँ से उतर नहीं पायेंगे। कुछ इसी तरह का भाव उनके उस गीत में भी है जो आज हम चुनकर लाये हैं इस महफ़िल के लिए। "ज़मीं से हमें आसमाँ पर बिठाके गिरा

सुनो कहानी: तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं

गौरव सोलंकी की "बाँहों में मछलियाँ" 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको हिंदी कहानियाँ सुनवा रहे हैं। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार मुंशी प्रेमचन्द की कहानी "वैराग्य" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं उभरते हिंदी साहित्यकार गौरव सोलंकी की कहानी " "बाँहों में मछलियाँ" ", जिसको स्वर दिया है पारुल पुखराज ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 6 मिनट 25 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। प्रस्तुत कहानी का टेक्स्ट " कहानी कलश " पर उपलब्ध है. यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। 7 जुलाई, 1986 को उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के 'जिवाना गुलियान' गाँव में जन्मे गौरव सोलंकी ने कहानियाँ और उपन्यास भी लिखे हैं और कवितायें भी। हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी मैं कहता हूं कि मुझे फ़िल्म दे

मैं ये सोच कर उसके दर से उठा था...रफी साहब के गाये बहतरीन नज्मों में से एक

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 137 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों हम उस सुर साधक की बातें कर रहे हैं जिनका अंदाज़ था सब से जुदा, जिनका संगीत कानों से होते हुए सीधे रूह में समा जाता है। वह संगीत, जो कभी प्रेम, कभी विरह, कभी पीड़ा, तो कभी प्यार में समर्पण की भावना जगाती है। अपने संगीत से श्रोताओं को बेसुध कर देनेवाले उस सुर-गंधर्व को हम और आप मदन मोहन के नाम से जानते हैं। 'मदन मोहन विशेष' के तीसरे अंक में आज हम उनके संगीत के जिस रंग को लेकर आये हैं वह रंग है अपनी महबूबा से बिछड़ने की घड़ी में दिल से निकलती पुकार, कि काश वो एक बार हमें जाने से रोक ले। छुट्टी पर आये सैनिक को अचानक तार मिलता है कि पड़ोसी मुल्क ने हमारे देश पर हमला बोल दिया है और उसे तुरंत सीमा पर पहुँचना है। ऐसे में एक दम से महबूबा से जुदा होने का ख़याल सैनिक के दिल को दहलाकर रख देता है। क्या पता कि फिर कभी उन से इस ज़िंदगी में मुलाक़ात हो, ना हो! १९६४ में बनी चेतन आनंद की फ़िल्म 'हक़ीक़त' की हम बात कर रहे हैं, जिसके मुख्य कलाकार थे चेतन आनंद और प्रिया राजवंश। १९६२ के 'इंडो-चायना वार' पर आधारित इस

मैं ख्याल हूँ किसी और का, मुझे सोचता कोई और है....... "बेग़म" की महफ़िल में "सलीम" को तस्लीम

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #२८ रा त कुछ ऐसा हुआ जैसा होता तो नहीं, थाम कर रखा मुझे मैं भी खोता तो नहीं - आने वाली फिल्म "कमीने" में लिखे "गुलज़ार" साहब के ये शब्द हमारी आज की महफ़िल पर बखूबी फिट हो रहे हैं। अहा! आज की महफ़िल नहीं, दर-असल पिछली महफ़िल के जवाबों के साथ ऐसा हीं कुछ हुआ है, जो अमूमन होता नहीं है। हमारे "शरद" साहब, जिनका बाकी सभी लोहा मानते हैं और एक तरह से हमारी मुहिम को उन्होंने हीं थाम कर रखा है, वही भटकते हुए दिखे। पहले प्रयास में बस एक सही जवाब, क्या जनाब! आपसे ऐसी तो उम्मीद नहीं थी हमारी। और यह देखिए आपने गलत रास्ता दिखाया तो कुलदीप भाई भी उसी रास्ते पर चल निकले। यह अलग बात है कि आप दोनों ने "दिशा" जी का सही जवाब आने के बाद अपनी टिप्पणियाँ हटा दी,लेकिन हमारी पैनी निगाहों से आप दोनों बच न सके। हमने आपकी कारस्तानी पकड़ हीं ली और भाईयों "ऐसा भी तो नहीं होता" कि आप अपने जवाब हटा लें। अब चूँकि पहला सही जवाब "दिशा" जी ने दिया, इसलिए एक बार फिर से ४ अंक उन्हीं के हिस्से में जाते हैं। दूसरा सही जवाब देने के लिए "शरद"

तू प्यार करे या ठुकराए हम तो हैं तेरे दीवानों में - मानते हैं आज भी मदन साहब के दीवाने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 136 'म दन मोहन विशेष' की दूसरी कड़ी में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। कल इसकी पहली कड़ी में मदन मोहन के संगीत में लताजी का गाया और राजेन्द्र कृष्ण का लिखा हुआ गीत आप ने सुना था। आज भी इसी तिकड़ी के स्वर गूँज रहे हैं इस महफ़िल में, लेकिन एक अलग ही अंदाज़ में। यूं तो आम तौर पर नायक ही नायिका के दिल को जीतने की कोशिश करता है, लेकिन हमारी फ़िल्मों में कभी कभी हालात ऐसे भी बने हैं कि यह काम नायक के बजाय नायिका के उपर आन पड़ी है। धर्मेन्द्र-मुमताज़ की फ़िल्म 'लोफ़र' में लताजी का ही एक गीत था "मैं तेरे इश्क़ में मर ना जाऊँ कहीं, तू मुझे आज़माने की कोशिश न कर", जो बहुत मक़बूल हुआ था। लेकिन आज जिस गीत की हम बात कर रहे हैं वह है १९५७ की फ़िल्म 'देख कबीरा रोया' का "तू प्यार करे या ठुकराये हम तो हैं तेरे दीवानों में, चाहे तू हमें अपना न बना लेकिन न समझ बेगानों में"। है न वही बात इस गीत में भी! वैसे यह गीत शुरु होता है एक शेर से - "न गिला होगा न शिकायत होगी, अर्ज़ है छोटी सी सुन लो तो इनायत होगी"। राजेन्द्र कृष्ण साहब ने

इस बार स्वरबद्ध कीजिए निराला की एक कविता को

गीतकास्ट प्रतियोगिता के दो अंकों का सफल आयोजन हो चुका है। जहाँ जयशंकर प्रसाद की कविता 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' को 12 प्रविष्टियाँ प्राप्त हुईं, वहीं सुमित्रानंदन पंत की कविता 'प्रथम रश्मि' के लिए 19 स्वरबद्ध/सुरबद्ध प्रविष्टियाँ मिलीं। आलम यह रहा कि 'प्रथम रश्मि'' की 8 संगीतमय प्रस्तुतियाँ प्रसारित करनी पड़ीं। जब पहली बार इस प्रतियोगिता के आयोजन की उद‍्‍घोषणा हुई थी, तब तय किया गया था कि कुल रु 2000 का नग़द पुरस्कार दिया जायेगा, लेकिन इसे पहली बार ही बढ़ाकर रु 2500 करना पड़ा। 'प्रथम रश्मि' को संगीतबद्ध करने की उद्‍घोषणा के समय यह राशी बढ़ाकर रु 3000 की गई, लेकिन परिणाम प्रकाशित करते वक़्त प्रायोजक इतने खुश थे कि राशि बढ़कर रु 4000 हो गई। अब से यह राशि हमेशा के लिए रु 4000 की जा रही है। आज छायावादी कविताओं को स्वरबद्ध/सुरबद्ध की कड़ी में बारी है महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता की। निराला की कौन सी कविता स्वरबद्ध करायी जाये , इस संदर्भ में हमने अपने श्रोताओं से भी राय ली थी। 'राम की शक्तिपूजा' को स्वरबद्ध करने का सुझाव अधिकाधि

बैरन नींद न आये....मदन मोहन साहब की यादों को समर्पित ओल्ड इस गोल्ड विशेष.

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 135 जु लाई का महीना, यानी कि सावन का महीना। एक तरफ़ बरखा रानी अपने पूरे शबाब पर होती हैं और इस सूखी धरा को अपने प्रेम से हरा भरा करती है। लेकिन जुलाई के इसी महीने में एक और चीज़ है जो छम छम बरसती है, और वो है संगीतकार मदन मोहन की यादें। जी हाँ दोस्तों, करीब करीब ढाई दशक बीत चुके हैं, लेकिन अब भी दिल के किसी कोने में छुपी कोई आवाज़ अब भी इशारा करती है १४ जुलाई के उस दिन की तरफ़ जब वो महान संगीतकार हमें छोड़ गये थे। उनके जाने से फ़िल्म संगीत में जो शून्य पैदा हुआ है, उसे भर पाना अब नामुमकिन सा जान पड़ता है। मदन मोहन साहब की सुरीली याद में आज से लेकर अगले सात दिनों तक, यानी कि ८ जुलाई से लेकर १४ जुलाई तक, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आप सुनने वाले हैं 'मदन मोहन विशेष'। मदन मोहन के स्वरबद्ध गीतों में सर्वश्रेष्ठ सात गानें चुनना संभव नही है, और ना ही हम इसकी कोई कोशिश कर रहे हैं। हम तो बस उनके संगीत के सात अलग अलग रंगों से आपका परिचय करवायेंगे अगले सात दिनों में। तो तैयार हो जाइये दोस्तों, फ़िल्म जगत के अनूठे संगीतकार मदन मोहन साहब की धुनों में ग़ोते लगाने क