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चाहूँगा मैं तुझे सांझ सवेरे...अमर कर दिया है रफी साहब ने इस गीत को अपनी आवाज़ से

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 110 स न् १९६४ की फ़िल्म 'दोस्ती' संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के करीयर की एक बेहद महत्वपूर्ण फ़िल्म रही है। सत्येन बोस निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे सुधीर कुमार और सुशील कुमार जिन्होने इस फ़िल्म में दो अपाहिज दोस्तों के किरदार अदा किये थे। इस फ़िल्म का लता मंगेशकर का गाया एकमात्र गीत हम आपको इस शृंखला में पहले ही सुनवा चुके हैं। फ़िल्म के बाक़ी सभी गीत (मेरे ख़याल से ६ में से ५ गीत) रफ़ी साहब की एकल आवाज़ मे हैं। "जानेवालों ज़रा मुड़के देखो मुझे, एक इंसान हूँ मैं तुम्हारी तरह", "कोई जब राह न पाये, मेरे संग आये और पग पग दीप जलाये, मेरी दोस्ती मेरा प्यार", "राही मनवा दुख की चिंता क्युं सताती है, दुख तो अपना साथी है", "मेरा तो जो भी क़दम है तुम्हारी राहों में है" जैसे गीत ज़ुबाँ ज़ुबाँ पर चढ़ गये थे, लेकिन सबसे ज़्यादा जिस गीत को ख्याती मिली थी वह गीत था "चाहूँगा मैं तुझे सांझ सवेरे, फिर भी कभी अब नाम को तेरे, आवाज़ मैं न दूँगा", और यही गीत आज आप सुन रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में। कहा जाता

सुनो कहानी: विष्णु प्रभाकर जी के जन्मदिवस पर विशेष

विष्णु प्रभाकर की "फ़र्क" 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में मुंशी प्रेमचंद की कहानी बांका ज़मींदार का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज विष्णु प्रभाकर जी के जन्मदिवस पर इस विशेष प्रस्तुति में हम लेकर आये हैं विष्णु प्रभाकर की "फ़र्क" , जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 2 मिनट 41 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। मेरे जीने के लिए सौ की उमर छोटी है ~ विष्णु प्रभाकर (१२ जून १९१२- ११ अप्रैल २००९) विष्णु प्रभाकर जी के जन्मदिवस पर विशेष हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी उधर के सैनिक आपको चाय के लिए बुला सकते हैं, जाइएगा नहीं। पता नहीं क्या हो जाए? आपकी पत्नी साथ में है और फिर कल हमने उनके छह तस्कर मार डाले थे। ( विष्णु प

जिंदगी और बता तेरा इरादा क्या है...जिंदगी के अनसुलझे रहस्यों पर मनन करती मुकेश की आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 109 "ज़िं दगी और बता तेरा इरादा क्या है!" ज़िंदगी कब क्या इरादा करती है यह तो कोई नहीं बता सकता, लेकिन हर किसी के दिल मे हसरत ज़रूर होती है ज़िंदगी को खूबसूरत बनाने की। फ़िल्म जगत मे कुछ बड़ा कर दिखाने की हसरत लिए बम्बई पधारे थे संगीतकार बृज भूषण। लेकिन उनकी ज़िंदगी और क़िस्मत का इरादा कुछ और ही था। भले ही उन्होने कुछ फ़िल्मों में संगीत दिया और उनके कुछ गानें बहुत चले भी, लेकिन बदक़िस्मती उनकी कि वो कभी अपने ज़माने के तमाम चर्चित संगीतकारों की तरह शोहरत की बुलंदियों को नहीं छू सके। बृज भूषण का जन्म श्रीनगर मे हुआ और उनकी पढ़ाई दिल्ली मे हुई। बचपन से ही आकाशवाणी पर वे कार्यक्रम प्रस्तुत किया करते थे। अभिनय और संगीत का शौक उन्हे बम्बई खींच लाया। फ़िल्म 'बिरहन' मे उन्होने बतौर नायक मधुबाला के साथ अभिनय किया। १९६० में फ़िल्म 'पठान' में उन्होने संगीत दिया था पहली बार। उनकी कुछ और संगीत से सजी फ़िल्में हैं 'मिलाप', 'ज़रूरत', 'एक नदी किनारे दो', 'कामशास्त्र' और 'ज़िंदगी और तूफ़ान'। और ऐसे ही एक कमचर्चित

पत्थर सही ये वक्त, गुजर जाएगा कभी...... महफ़िल-ए-दिलनवाज़ और "पिनाज़"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #२० य कीं मानिए, आज की महफ़िल का अंदाज हीं कुछ अलग-सा होने वाला है। यूँ तो हम गज़ल के बहाने किसी न किसी फ़नकार की जीवनी आपके सामने लाते रहते हैं,लेकिन ऐसा मौका कम हीं होता है, जब किसी गज़ल से जुड़े तीनों हीं फ़नकारों (शायर,संगीतकार और गायक) की जानकारी आपको मिल जाए। यह अंतर्जाल की दुआ का असर है कि आज हम अपने इस मिशन में कामयाब होने वाले हैं। तो चलिए जानकारियों का दौर शुरू करते हैं आज की फ़नकारा से जिन्होंने अपने सुमधुर आवाज़ की बदौलत इस गज़ल में चार चाँद लगा दिये हैं। एक पुरानी कहावत है कि "शक्ल पर मत जाओ, अपनी अक्ल लगाओ", वही कहावत इन फ़नकार पर सटीक बैठती है। यूँ तो पारसी परिवार से होने के कारण हीं कोई यह नहीं सोच सकता कि इन्हें उर्दू का अच्छा खासा ज्ञान होगा या फिर इनके उर्दू का उच्चारण काबिल-ए-तारीफ़ होगा और उसपर सितम यह कि इनका हाल-औ-अंदाज़ भी गज़ल-गायकों जैसा नहीं है। फिर भी इनकी मखमली आवाज़ में गज़ल को सुनना एक अलग हीं अनुभव देता है। अभी भी कई लोग ऐसे हैं जो १९८०-९० के दशक में दूरदर्शन पर आने वाले उनके कार्यक्रम के दीवाने रहे हैं। गज़ल-गायकी के क्षेत्र में

नदी नारे न जाओ श्याम पैयां पडूँ...जयदेव ने दिया इस लोक गीत को नया जन्म

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 108 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के हीरक जयंती पर्व और फिर उसके बाद राज कपूर विशेषांकों के बाद आज हम वापस लौट आये हैं हमारे नियमित अंक पर। दोस्तों, अगर हम डाकुओं पर बनी फ़िल्मों की बात करें तो सबसे पहले जिस फ़िल्म का नाम हमारे ज़हन मे आता है वह है 'शोले'। इस फ़िल्म मे गब्बर सिंह के रूप में अमजद ख़ान ने वह इतिहास रचा है कि फिर उनके बाद किसी ने भी डाकू की ऐसी सशक्त भूमिका अदा नहीं की। 'शोले' ७० के दशक की फ़िल्म थी। लेकिन अगर हम एक दशक पीछे की ओर जायें, तो उस ज़माने मे डाकू के रूप मे सुनिल दत्त साहब का नाम बड़ा मशहूर था। उनकी ऐसी तमाम फ़िल्मों में जो फ़िल्म सब से ज़्यादा मशहूर हुई वह थी 'मुझे जीने दो'। १९६३ मे बनी इस फ़िल्म का निर्माण भी सुनिल दत्त और उनके भाई सोम दत्त ने मिलकर किया था। यह उनकी दूसरी फ़िल्म थी बतौर निर्माता, पहली फ़िल्म थी 'ये रास्तें हैं प्यार के' जो १९६३ मे ही बनी थी। 'मुझे जीने दो' की कहानी यह दर्शाती है कि किस तरह प्यार की कोमलता कट्टर से कट्टर डाकू को भी ज़िंदगी की सही राह पर वापस ले जा सकती है। यह कहानी

सुजॉय की यह कोशिश वेब रेडियो की बेहतरीन कोशिश है

सुजॉय चटर्जी एक ऐसा नाम जिससे आवाज़ के सभी नियमित श्रोता अब तक पूरी तरह से परिचित हो चुके हैं. रोज शाम वो ओल्ड इस गोल्ड पर लेकर आते हैं एक सोने सा चमकता नगमा हम सब के लिए, और खोल देते हैं बातों का एक ऐसा झरोखा जहाँ से आती खुशबू घोल देती है सांसों में ढेरों खट्टी मीठी गुजरे दिनों की यादें. ओल्ड इस गोल्ड ने पूरे किये अपने १०० एपिसोड और इस एतिहासिक अवसर पर हमने सोचा कि क्यों न आपके रूबरू लेकर आया जाए आपके इतने प्यारे ओल्ड इस गोल्ड के होस्ट सुजॉय चटर्जी को, तो मिलिए आज सुजॉय से - हिंद युग्म - सुजॉय स्वागत है आपका, हमारे श्रोता ओल्ड इस गोल्ड के माध्यम से आपको जानते हैं. इतने सारे पुराने गीतों के बारे में आपकी जानकारी देखकर कुछ लोग अंदाजा लगते हैं कि आपकी उम्र कोई ४०-५० साल की होगी. तो सबसे पहले तो श्रोताओं को अपनी उम्र ही बताईये. ? सुजॉय - वैसे अविवाहित लड़कों से उनकी उम्र पूछनी तो नहीं चाहिए, चलिए फिर भी बता देता हूँ कि मैं ३१ साल का हूँ। हिंद युग्म - अच्छा अब अपना परिचय भी दीजिये.. . सुजॉय - हम लोग बंगाल के रहनेवाले हैं, लेकिन मेरी पिताजी की नौकरी गुवाहाटी, असम में होने की वजह से मेर

जाने कहाँ गए वो दिन कहते थे तेरी राहों में....वाकई कहाँ खो गए वो दिन, वो फनकार

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 107 'रा ज कपूर के फ़िल्मों के गीतों और बातों को सुनते हुए आज हम आ पहुँचे हैं 'राज कपूर विशेष' की अंतिम कड़ी मे। आपको याद होगा कि गायक मुकेश हमें बता रहे थे राज साहब के फ़िल्मी सफ़र के तीन हिस्सों के बारे में। पहला हिस्सा हम आप तक पहुँचा चुके हैं जिसमें मुकेश ने 'आग' का विस्तार से ज़िक्र किया था। दूसरा हिस्सा था उनकी ज़बरदस्त कामयाब फ़िल्मों का जो शुरु हुआ था 'बरसात' से। 'बरसात' के बारे में हम बता ही चुके हैं, अब आगे पढ़िये मुकेश के ही शब्दों में - "ज़बरदस्त, अमीन भाई, फ़िल्में देखिये, 'आवारा', 'श्री ४२०', 'आह', 'जिस देश में गंगा बहती है', और 'संगम'।" एक सड़कछाप नौजवान, 'आवारा', जिस पर दिल लुटाती है एक इमानदार लड़की, 'हाइ सोसायटी' के लोगों का पोल खोलता हुआ 'श्री ४२०', 'आह' मे मौत के साये में ज़िंदगी को पुकारता हुआ प्यार, डाकुओं के बीच घिरा हुआ एक सीधा सच्चा नौजवान, 'जिस देश में गंगा बहती है', और मोहब्बत का इम्तिहान, 'संगम', और उस