Skip to main content

Posts

तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले...मिर्जा ग़ालिब / शिशिर पारखी

एहतराम - अजीम शायरों को सलाम ( अंक -06 ) आज शिशिर परखी साहब एहतराम कर रहे है उस्तादों के उस्ताद शायर मिर्जा ग़ालिब का, पेश है ग़ालिब का कलाम शिशिर जी की जादूभरी आवाज़ में - तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले हूराँ-ए-ख़ुल्द में तेरी सूरत मगर मिले अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यों तेरा घर मिले साक़ी गरी की शर्म करो आज वर्ना हम हर शब पिया ही करते हैं मेय जिस क़दर मिले तुम को भी हम दिखाये के मजनूँ ने क्या किया फ़ुर्सत कशाकश-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ से गर मिले लाज़िम नहीं के ख़िज्र की हम पैरवी करें माना के एक बुज़ुर्ग हमें हम सफ़र मिले आए साकनान-ए-कुचा-ए-दिलदार देखना तुम को कहीं जो ग़लिब-ए-आशुफ़्ता सर मिले तस्कीं : Consolation, ज़ौक़ _ Taste, हूराँ - Fairy, ख़ुल्द - Paradise ख़ल्क़ - People, पिन्हाँ - Secret, साकनान - Inhabitants, Steady कुचा - Narrow lane, आशुफ़्ता सर - Uneasy, Restless. सदी के सबसे महान शायर का एक संक्षिप्त परिचय - पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है, कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या मिर्जा असद्दुल्लाह खान जिन्हें सारी दुनिया मिर्जा 'ग़ाल

सुनो कहानी: अकेली - मन्नू भंडारी की कहानी

मन्नू भंडारी की एक सुंदर कहानी-अकेली का प्रसारण 'सुनो कहानी' के अंतर्गत आज हम आपके लिए लेकर आए  हैं मन्नू भंडारी जी की एक सुंदर कहानी-अकेली. इस कहानी में सोमा नाम की एक प्रौढ़ महिला की व्यथा का वर्णन है. सोमा अकेली थी इसी कारण अपने आस पास के लोगों के सुख दुःख में बिना बुलाये जाती और उन सबकी खुशी में अपनी खुशी ढूंढ रही थी किंतु स्वार्थी लोगों और सम्बन्धियों के व्यवहार से टूट जाती है. आईये सुनें  " अकेली ", जिसको स्वर दिया है शोभा महेन्द्रू ने। शोभा जी का नाम आवाज़ के श्रोताओं के लिए नया नहीं है. उनकी रचनाएं हमें हिंद-युग्म पर पढने को और पॉडकास्ट कवि सम्मलेन में सुनने को मिलती रही हैं. शिक्षक दिवस के अवसर पर हमने प्रेमचंद की कहानी प्रेरणा को शोभा जी के स्वर में प्रस्तुत किया था. इसके अलावा शोभा जी की आवाज़ को विमल चंद्र पाण्डेय की कहानी ' स्वेटर ' के नाट्य रूपांतर में भी बहुत पसंद किया गया था. सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। नीचे के प्लेयर से सुनें. (प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें

वो मिजाज़ से बादशाह कम शायर ज्यादा था...उस्ताद शायर बहादुर शाह ज़फ़र को सलाम - शिशिर पारखी

एहतराम - अजीम शायरों को सलाम ( अंक - ०५ ) इश्क में क्या क्या मेरे जुनूँ की.... सुनिए ज़फ़र का कलाम शिशिर की आवाज़ में ग़ज़ल के स्वर्णिम युग की दास्तान इस बादशाह शायर के ज़िक्र बिना अधूरी है. पहले सुनते हैं अबू ज़फ़र सिराजुद्दीन मोहम्मद बहादुर शाह ज़फ़र का ये कलाम. फनकार है एक बार फ़िर शिशिर पारखी. बादशाह शायर का संक्षिप्त परिचय - बहादुर शाह जफर का जन्म 24 अक्टूबर 1775 को हुआ था। वह अपने पिता अकबर शाह द्वितीय की मौत के बाद 28 सितंबर 1838 को दिल्ली के बादशाह बने। उनकी मां ललबाई हिंदू परिवार से थीं. बहादुर शाह ज़फ़र भारत में मुग़ल साम्राज्य के आखिरी शहंशाह थे और उर्दू भाषा के माने हुए शायर थे। उन्होंने 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व किया। युद्ध में हार के बाद अंग्रेजों ने उन्हें बर्मा (अब म्यांमार) भेज दिया जहाँ उनकी मृत्युहुई. हिंदिओं में बू रहेगी जब तलक ईमान की। तख्त ए लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की।। इस समय हिंदी और उर्दू के आलिम-ओ-फाजिल जिस नुक्त-ए-नजर से शायद उस दौर को देखने की जहमत नहीं उठा रहे हैं. जफर न सिर्फ एक अच्छे शायर थे बलि्क मिजाज से भी बाद

अदा की आड़ में खंजर.... सुनिये उस्ताद शायर अमीर मिनाई की ग़ज़ल - शिशिर पारखी

एहतराम - अजीम शायरों को सलाम ( अंक ०४ ) शिशिर परखी के स्वरों में जारी है सफर एहतराम का, आज के उस्ताद शायर हैं अमीर मीनाई. निदा फाजिल साहब के शब्दों में अगर ग़ज़ल को समझें तो - "गजल केवल एक काव्य विधा नहीं है, यह उस संस्कृति या कल्चर को परिभाषित करती है जो गतिशील है और जो पल-पल बदलता रहता है।विश्व-साहित्य में यह एकमात्र अकेली विधा है जो महात्मा बुद्घ की मूर्ति की तरह जहाँ भी आती है अपने रूप-रंग, नैन-नक्श से वहीं की बन जाती है। " ग़ज़ल की इससे बेहतर परिभाषा क्या होगी. हजरत अमीर मीनाई (1828 –1901) लखनऊ में जन्में और रामपुर के सूफी संत अमीर शाह के शिष्य बने. अगर मीर और ग़ालिब ज़िंदगी पर एतबार के शायर थे तो दाग़ और अमीर बाज़ार के कारोबारी थे...उनके शेर हम आमो-खास की जुबां पर चढ़ जाते थे. देखिये ये बानगी - सुनी एक भी बात तुमने न मेरी सुनी हमने सारे ज़माने की बातें अंगूर में थी ये शै पानी की चार बूँदें जिस दिन से खिंच गई है तलवार हो गई है और खंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम अमीर सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है या फ़िर ये - किसी अमीर की महफ़िल का ज़िक्र क्या है अमीर खुदा के घर भी

राकेश खंडेलवाल की पुस्तक के विमोचन-समारोह के वीडियो-अंश

साथ में समीरलाल, राकेश खंडेलवाल, रजनी भार्गव, अनूप भार्गव, घनश्याम गुप्ता और डॉ॰ सत्यपाल आनंद का काव्य-पाठ शनिवार ११ अक्टूबर २००८ को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कवि राकेश खंडेलवाल के कविता संग्रह 'अंधेरी रात का सूरज' का एक साथ तीन जगहों से विमोचन हुआ। पहला तो पुस्तक के प्रकाशक पंकज सुबीर के शहर सीहोर में, दूसरा इसी मंच पर आम श्रोताओं द्वारा और तीसरा वाशिंगटन डीसी में। इस ब्लॉग पर आप विमोचन और काव्य पाठ का आनंद तो ले ही चुके हैं। आज हम लाये हैं, अनूप भार्गव की मदद से तैयार वाशिंगटन समारोह के कुछ वीडियो-अंश। डॉ॰ सत्यपाल आनन्द जी राकेश जी के बारे में अपने विचार रखते हुए पुस्तक का विमोचन करते हुए डॉ॰ सत्यपाल आनंद घनश्याम गुप्ता जी काव्य पाठ घनश्याम गुप्ता जी काव्य पाठ - २ समीर लाल काव्य पाठ डॉ. सत्यपाल आनन्द काव्य पाठ रजनी भार्गव का काव्य-पाठ अनूप भार्गव का काव्य-पाठ 'अंधेरी रात का सूरज' (कविता-संग्रह) के विमोचन समारोह में काव्य पाठ करते राकेश खंडेलवाल यदि आपने अभी तक खुद के हाथों इस कविता-संग्रह का विमोचन नहीं किया तो यहाँ क्लिक करके अवश्य करें।

शिशिर पारखी की आवाज़ में मिर्जा दाग़ दहलवी की ग़ज़ल

एहतराम - अज़ीम शायरों का सलाम "एहतराम - अजीम शायरों को सलाम" की अगली कड़ी के रूप में आईये सुनें शिशिर पारखी की बेमिसाल आवाज़ में उस्ताद शायर मिर्जा दाग़ दहलवी की ये ग़ज़ल - आज एक उस्ताद शायर हैं मिर्जा दाग़ दहलवी - एक संक्षिप्त परिचय मिर्ज़ा ‘दाग़’ को अपने जीवनकाल में जो ख्याति, प्रतिष्ठा और शानो-शौकत प्राप्त हुई, वह किसी बड़े-से-बड़े शाइर को अपनी ज़िन्दगी में मयस्सर न हुई। स्वयं उनके उस्ताद शैख़, ‘ज़ौक़’ शाही क़फ़स में पड़े हुए ‘तूतिये-हिन्द’ कहलाते रहे, मगर 100 रू० माहवारी से ज़्यादा का आबो-दाना कभी नहीं पा सके। ख़ुदा-ए-सुख़न ‘मीर’ ‘अमर-शाइर’ ‘गा़लिब’ और ‘आतिश’-जैसे आग्नेय शाइरों को अर्थ-चिन्ता जीवनभर घुनके कीड़े की तरह खाती रही। हकीम ‘मोमिन शैख़’ ‘नासिख़’ अलबत्ता अर्थाभाव से किसी क़द्र निश्चन्त रहे, मगर ‘दाग़’ जैसी फ़राग़त उन्हें भी कहाँ नसीब हुई यूँ अपने ज़माने में एक-से-एक बढ़कर उस्ताद एवं ख्याति-प्राप्त शाइर हुए, मगर जो ख्याति और शुहरत अपनी ज़िन्दगीमें ‘दाग़’ को मिली, वह औरों को मयस्सर नहीं हुई। भले ही आज उनकी शाइरी का ज़माना लद गया है और मीर, दर्द, आतिश, ग़लिब, मोमिन

सुनिए इब्राहीम ज़ौक का कलाम और शिशिर पारखी की आवाज़

एहतराम - अज़ीम शायरों को सलाम ( अंक - ०२ ) आवाज़ मशहूर ग़ज़ल गायक शिशिर पारखी के साथ मिल कर संगीतमय स्मरण कर रहा है उस्ताद शायरों का, जिन्होंने ग़ज़ल लेखन को बुलंदियां से नवाजा. हम थे ग़ज़ल के सुनहरे दौर में जहाँ एक शाहंशाह जो ख़ुद भी शायर था और जिसके दरबार में हर शाम ग़ज़लों की महफिलें आबाद होती थी. मोमिन खान मोमिन के बाद आईये ज़िक्र करें इब्राहीम ज़ौक का. पहले सुन लेते हैं इस दरबारी शायर का ये कलाम, शिशिर परखी की मखमली आवाज़ में - मोहम्मद इब्राहीम ज़ौक - एक परिचय ‘ज़ौक़’ 1204 हि. तदनुसार 1789 ई. में दिल्ली के एक ग़रीब सिपाही शेख़ मुहम्मद रमज़ान के घर पैदा हुए थे। शेख़ रमज़ान नवाब लुत्फअली खां के नौकर थे और काबुली दरवाज़े के पास रहते थे। शैख़ इब्राहीम इनके इकलौते बेटे थे। बचपन में मुहल्ले के एक अध्यापक हाफ़िज़ गुलाम रसूल के पास पढ़ने के लिए जाते। हाफ़िज़ जी शायर भी थे और मदरसे में भी ‘शे’रो-शायरी का चर्चा होता रहता था, इसी से मियां इब्राहीम की तबीयत भी इधर झुकी। इनके एक सहपाठी मीर काज़िम हुसैन ‘बेक़रार’ भी शायरी करते थे और हाफ़िज जी से इस्लाह लेते थे। मियां इब्राहीम की उनसे दोस्ती थी। एक रोज़ उन्