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बांसुरी के स्वर में डूबा नीला आसमां...

मुरली से उनका प्रेम अब जग जाहिर होने लगा, भारत ही नही विदेशो में भी उनकी मुरली के सुर लोगो को आनंदित करने लगे । पंडित हरीप्रसाद चौरसिया जी की बांसुरी वादन की शिक्षा और कटक के मुंबई आकाशवाणी केन्द्र पर उनकी नियुक्ति के बारे में हमने आलेख के पिछले अंक में जाना, अब आगे... पंडित हरिप्रसाद जी के मुरली के स्वर अब श्रोताओ पर कुछ ऐसा जादू करने लगे कि उनके राग वादन को सुनकर श्रोता नाद ब्रह्म के सागर में डूब जाने लगे,उनका बांसुरी वादन श्रोताओ को बांसुरी के सुरों में खो जाने पर विवश करने लगा । संपूर्ण देश भर में उनके बांसुरी के कार्यक्रम होने लगे,भारत के साथ साथ यूरोप, फ्रांस, अमेरिका, जापान आदि देशो में उनकी बांसुरी के स्वर गुंजायमान होने लगे। बड़ी बांसुरी पर शास्त्रीय संगीत बजाने के बाद छोटी बांसुरी पर जब पंडित हरिप्रसाद जी धुन बजाते तो श्रोता बरबस ही वाह वाह करते,सबसे बड़ी बात यह की बड़ी बांसुरी के तुंरत बाद छोटी बांसुरी को बजाना बहुत कठिन कार्य हैं, बड़ी बांसुरी की फूंक अलग और छोटी बांसुरी की फूंक अलग,दोनों बांसुरीयों पर उंगलिया रखने के स्थान अलग । ऐसा होते हुए भी जब वे धुन बजाते, सुनने वाले सब

बाजे मुरलिया बाजे (पंडित हरिपसाद चौरसिया जी पर विशेष आलेख)

बाँसुरी ......वंसी ,वेणु ,वंशिका कई सुंदर नामो से सुसज्जित हैं बाँसुरी का इतिहास, प्राचीनकाल में लोक संगीत का प्रमुख वाद्य था बाँसुरी । अधर धरे मोहन मुरली पर, होंठ पे माया विराजे, बाजे मुरलियां बाजे .................. मुरली और श्री कृष्ण एक दुसरे के पर्याय रहे हैं । मुरली के बिना श्री कृष्ण की कल्पना भी नही की जा सकती । उनकी मुरली के नाद रूपी ब्रह्म ने सम्पूर्ण चराचर सृष्टि को आलोकित और सम्मोहित किया । कृष्ण के बाद भी भारत में बाँसुरी रही, पर कुछ खोयी खोयी सी, मौन सी. मानो श्री कृष्ण की याद में उसने स्वयं को भुला दिया हो, उसका अस्तित्व तो भारत वर्ष में सदैव रहा. हो भी कैसे न ? आख़िर वह कृष्ण प्रिया थी. किंतु श्री हरी के विरह में जो हाल उनके गोप गोपिकाओ का हुआ कुछ वैसा ही बाँसुरी का भी हुआ, कुछ भूली -बिसरी, कुछ उपेक्षित सी बाँसुरी किसी विरहन की तरह तलाश रही थी अपने मुरलीधर को, अपने हरी को । युग बदल गए, बाँसुरी की अवस्था जस की तस् रही, युगों बाद कलियुग में पंडित पन्नालाल घोष जी ने अपने अथक परिश्रम से बांसुरी वाद्य में अनेक परिवर्तन कर, उसकी वादन शैली में परिवर्तन कर बाँसुरी को पुनः भारत

अच्छा कलाकार एक प्रकार का चोर होता है

भारत रत्न पंडित भीमसेन जोशी पर विशेष "I accept this honour on behalf of all Hindustani vocalists who have dedicated their life to music" ये कथन थे पंडित भीमसेन जोशी जी के जब उन्हें उनके बेटे श्रीनिवास जोशी ने फ़ोन कर बताया कि भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान "भारत रत्न" के लिए चुना है. पिछले ७ दशकों से भारतीय संगीत को समृद्ध कर रहे शास्त्रीय गायन में किवदंती बन चुके पंडितजी को यह सम्मान देकर दरअसल भारत सरकार ने संगीत का ही सम्मान किया है, यह मात्र पुरस्कार नही, करोड़ों संगीत प्रेमियों का प्रेम है, जिन्हें पंडित जी ने अपनी गायकी से भाव विभोर किया है. उस्ताद अब्दुल करीम खान साहब के शिष्य रहे सवाई गन्धर्व ने जो पंडित जी के गुरु रहे, अब्दुल वहीद खान साहब के साथ मिलकर जिस "किराना घराने" की नींव डाली, उसे पंडित जी ने पहचान दी. १९ वर्ष की आयु में अपनी पहली प्रस्तुति देने वाले भीम सेन जोशी जी संगीत का एक लंबा सफर तय किया. हम अपने आवाज़ के श्रोताओं के लिए लाये हैं भारती अचरेकर द्वारा लिया गया उनका एक दुर्लभ इंटरव्यू जिसमें पंडित जी ने अपने इसी सफर के कुछ

उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब का एक अनमोल इंटरव्यू और शहनाई वादन

"अमा तुम गाली दो बेशक पर सुर में तो दो....गुस्सा आता है बस उस पर जो बेसुरी बात करता है.....पैसा खर्च करोगे तो खत्म हो जायेगा पर सुर को खर्च करके देखिये महाराज...कभी खत्म नही होगा...." मिलिए शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खान से, मशहूर कार्टूनिस्ट इरफान को दिए गए एक ख़ास इंटरव्यू के माध्यम से और सुनिए शहनाई के अलौकिक स्वरों में राग ललित २१ मार्च १९१६ में जन्में उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का नाम उनके अम्मा वलीद ने कमरुद्दीन रखा था, पर जब उनके दादा ने नवजात को देखा तो दुआ में हाथ उठाकर बस यही कहा - बिस्मिल्लाह. शायद उनकी छठी इंद्री ने ये इशारा दे दिया था कि उनके घर एक कोहेनूर जन्मा है. उनके वलीद पैगम्बर खान उन दिनों भोजपुर के राजदरबार में शहनाई वादक थे. ३ साल की उम्र में जब वो बनारस अपने मामा के घर गए तो पहली बार अपने मामा और पहले गुरु अली बक्स विलायतु को वाराणसी के काशी विश्वनाथ मन्दिर में शहनाई वादन करते देख बालक हैरान रह गया. नन्हे भांजे में विलायतु साहब को जैसे उनका सबसे प्रिये शिष्य मिल गया था. १९३० से लेकर १९४० के बीच उन्होंने उस्ताद विलायतु के साथ बहुत से मंचों पर संगत की. १४

सुनिए हुसैन बंधुओं के गाये चंद अनमोल शास्त्रीय भजन

राजस्थान के ग्वालियर घराने के मशहूर दो ग़ज़ल गायकों की जोड़ी उस्ताद मोहम्मद हुसैन और अहमद हुसैन की ग़ज़लों से हर कोई वाकिफ है. जो लोग फिल्मी संगीत तक ही सीमित हैं उन्होंने भी उनकी कव्वाली फ़िल्म "वीर ज़ारा" में अवश्य सुनी और सराही होंगी. जब दोनों एक स्वर में किसी ग़ज़ल को अपनी आवाज़ देते हैं तो समां बाँध देते हैं, पारस्परिक ताल मेल और संयोजन इतना जबरदस्त होता है कि देखने सुनने वाले बस मन्त्र मुग्द हो रहते हैं. कहते हैं संगीत मरहम भी है. रूह से निकली स्वरलहरियों की सदा में गजब का जादू होता है, हुसैन बंधुओं ने बेहद कमियाबी से अपने इसी संगीत को कैंसर पीडितों, नेत्रहीनों और शारीरिक विकलांगता से पीडितों को शारीरिक और मानसिक रूप से सबल बनाने में इस्तेमाल किया है. दोनों उस्ताद भाईयों ने अपने वालिद अफज़ल हुसैन जयपुरी से संगीत की तालीम ली. बहुत कम लोग जानते हैं कि ग़ज़लों के आलावा उन्होंने शास्त्रीय भजनों में भी अपने फन का ऐसा जौहर बिखेरा है कि उन्हें सुनकर तन मन और आत्मा तक आनंद से भर जाती है. आज हम आपको उनके गाये कुछ भजन सुनवायेंगे, जिन्हें सुनकर आप भी इस बात पर यकीन करने लगेंगे. ये शायद स

स्वर और सुर की देवी - एम एस सुब्बलक्ष्मी

"जब एक बार हम अपनी कला और भक्ति से भीतर की दिव्यता से सामंजस्य बिठा लेते हैं, तब हम इस शरीर के बाहर भी प्रेम और करुणा का वही रूप देख पाते हैं...कोई भी भक्त जब इस अवस्था को पा लेता है सेवा और प्रेम उसका जीवन मार्ग बन जाना स्वाभाविक ही है." ये कथन थे स्वरों की देवी एम् एस सुब्बलक्ष्मी के जिन्हें लता मंगेशकर ने तपस्विनी कहा तो उस्ताद बड़े गुलाम अली खान साहब ने उन्हें नाम दिया सुस्वरलक्ष्मी का, किशोरी अमोनकर ने उन्हें सातों सुरों से उपर बिठा दिया और नाम दिया - आठवाँ सुर. पर हर उपमा जैसे छोटी पड़ जाती है देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित पहली संगीत से जुड़ी हस्ती के सामने. संगीत जोगन एम् एस सुब्बलक्ष्मी पद्मा भूषण, संगीत नाटक अकेडमी सम्मान, कालिदास सम्मान जैसे जाने कितने पुरस्कार पाये जीवन में पर प्राप्त सभी सम्मान राशिः को कभी अपने पास नही रखा, सामाजिक सेवाओं से जुड़े कामो के दान कर दिया.शायद उनके लिए संगीत से बढ़कर कुछ भी नही था. united nation में हुआ उनका कंसर्ट एक यादगार संगीत आयोजन माना जाता है. १६ सितम्बर १९१६ में जन्मीं सुब्बलक्ष्मी जी का बचपन भी संगीतमय रहा. मदु