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तेरे लिए किशमिश चुनें, पिस्ते चुनें: ऐसे मासूम बोल पर सात क्या सत्तर खून माफ़! गुलज़ार और विशाल का कमाल!

Taaza Sur Taal (TST) - 04/2011 - SAAT KHOON MAAF एक गीतकार जो सीधे-सीधे यीशु से सवाल पूछता है कि तुम अपने चाहने वालों को कैसे चुनते हो, एक गीतकार जो अपनी प्रेमिका के लिए परिंदों से बागों का सौदा कर लेता है ताकि उसके लिए किशमिश और पिस्ते चुन सके, एक गीतकार जो प्रेमिका की तारीफ़ के लिए "म्याउ-सी लड़की" जैसे संबोधन और उपमाओं की पोटली उड़ेल देता है, एक गीतकार जो आँखों से आँखें चार करने की जिद्द तो करता है, लेकिन मुआफ़ी भी माँगता है कि "सॉरी तुझे संडे के दिन ज़हमत हुई", एक गीतकार जो ओठों से ओठों की छुअन को "ऒठ तले चोट चलने" की संज्ञा देता है, एक गीतकार जो सूखे पत्तों को आवारा बताकर ज़िंदगी की ऐसी सच्चाई बयां करता है कि सीधी-सादी बात भी सूफ़ियाना लगने लाती है .. यह एक ऐसे गीतकार की कहानी है जो शब्दों से ज्यादा भाव को अहमियत देता है और इसलिए शब्दों के गुलेल लेकर भावों के बगीचे में नहीं घुमता, बल्कि भावों के खेत में खड़े होकर शब्दों की चिड़ियों को प्यार से अपने दिल के मटर मुहैया कराता है और फिर उन चिड़ियों को छोड़ देता है खुले आसमान में परवाज़ भरने के लिए, फिर जो

अपने पडो़सी दिल से भीनी-भीनी भोर की माँग कर बैठे गोटेदार गुलज़ार साहब, आशा जी एवं राग तोड़ी वाले पंचम दा

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०९ गु लज़ार और पंचम - ये दो नाम दो होते हुए भी एक से लगते हैं और जब भी इन दोनों का नाम साथ में आता है तो सुनने वालों को मालूम हो जाता है कि कुछ नया कुछ अलबेला पक के आने वाला है बाहर.. अभी-अभी पतीला खुलेगा और कोई मीठी-सी नज़्म छलकते हुए हमारे कानों तक पहुँच जाएगी। ये दोनों फ़नकार एक-दूसरे के पूरक-से हो चले थे। कैसी भी घुमावदार सोच हो, किसी भी मोड़ पर बिन कहे मुड़ने वाले मिसरे हों या फिर किसी अखबार की सुर्खियाँ हीं क्यों न हो.. गुलज़ार के हरेक शब्द-नुमा ईंट का जवाब पंचम अपने सुरों के पत्थर (अजीब उपमा है.. यूँ होना तो फूल चाहिए, लेकिन मुहावरा बनाने वाले ने हमारे पास कम हीं विकल्प छोड़े हैं) से दिया करते थे... और जवाब ऐसा कि "साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे".. गुलज़ार के शब्द जहाँ शिखर पर हीं मौजूद रहें, वहीं उसी के इर्द-गिर्द पंचम अपनी पताका भी लहरा आएँ... तभी तो दोनों की जोड़ी आजतक प्यार और गुमान से याद की जाती है। लेकिन यह जोड़ी ज्यादा दिनों तक रह नहीं पाई। गुलज़ार को राह में अकेले छोड़कर पंचम दुसरी दुनिया में निकल लिए। पंचम के गुजरने का असर गुलज़ार पर किस हद

"यमला पगला दीवाना" का रंग चढाने में कामयाब हुए "चढा दे रंग" वाले अली परवेज़ मेहदी.. साथ है "टिंकू जिया" भी

Taaza Sur Taal 02/2011 - Yamla Pagla Deewana "अपने तो अपने होते हैं" शायद यही सोच लेकर अपना चिर-परिचित देवल परिवार "अपने" के बाद अपनी तिकड़ी लेकर हम सब के सामने फिर से हाजिर हुआ है और इस बार उनका नारा है "यमला पगला दीवाना"। फिल्म पिछले शुक्रवार को रीलिज हो चुकी है और जनता को खूब पसंद भी आ रही है। यह तो होना हीं था, जबकि तीनों देवल अपना-अपना जान-पहचाना अंदाज़ लेकर परदे पर नज़र आ रहे हों। "गरम-धरम" , "जट सन्नी" और "सोल्ज़र बॉबी"... दर्शकों को इतना कुछ एक हीं पैकेट में मिले तो और किस चीज़ की चाह बची रहेगी... हाँ एक चीज़ तो है और वो है संगीत.. अगर संगीत मन का नहीं हुआ तो मज़े में थोड़ी-सी खलल पड़ सकती है। चूँकि यह एक पंजाबी फिल्म है, इसलिए इससे पंजाबी फ़्लेवर की उम्मीद तो की हीं जा सकती है। अब यह देखना रह जाता है कि फ़िल्म इस "फ़्रंट" पर कितनी सफ़ल हुई है। तो चलिए आज की "संगीत-समीक्षा" की शुरूआत करते हैं। "यमला पगला दीवाना" में गीतकारों-संगीतकारों और गायक-गायिकाओं की एक भीड़-सी जमा है। पहले संगीतकारों

इसी को प्यार कहते हैं.. प्यार की परिभाषा जानने के लिए चलिए हम शरण लेते हैं हसरत जयपुरी और हुसैन बंधुओं की

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०८ ग़ ज़लों की दुनिया में ग़ालिब का सानी कौन होगा! कोई नहीं! है ना? फिर आप उसे क्या कहेंगे जिसके एक शेर पर ग़ालिब ने अपना सारा का सारा दीवान लुटाने की बात कह दी थी.. "तुम मेरे पास होते हो गोया, जब कोई दूसरा नहीं होता।" इस शेर की कीमत आँकी नहीं जा सकती, क्योंकि इसे खरीदने वाला खुद बिकने को तैयार था। आपको पता न हो तो बता दूँ कि यह शेर उस्ताद मोमिन खाँ ’मोमिन’ का है। अब बात करते हैं उस शायर की, जिसने इस शेर पर अपना रंग डालकर एक रोमांटिक गाने में तब्दील कर दिया। न सिर्फ़ इसे तब्दील किया, बल्कि इस गाने में ऐसे शब्द डाले, जो उससे पहले उर्दू की किसी भी ग़ज़ल या नज़्म में नज़र नहीं आए थे - "शाह-ए-खुबां" (इस शब्द-युग्म का प्रयोग मैंने भी अपने एक गाने " हुस्न-ए-इलाही " में कर लिया है) एवं "जान-ए-जानाना"। दर-असल ये शायर ऐसे प्रयोगों के लिए "विख्यात"/"कुख्यात" थे। इनके गानों में ऐसे शब्द अमूमन हीं दिख जाते थे, जो या तो इनके हीं गढे होते थे या फिर न के बराबर प्रचलित। फिर भी इनके गानों की प्रसिद्धि कुछ कम न थी। इन्हें यूँ ह

नव दधीचि हड्डियां गलाएँ, आओ फिर से दिया जलाएँ... अटल जी के शब्दों को मिला लता जी की आवाज़ का पुर-असर जादू

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०७ रा जनीति और साहित्य साथ-साथ नहीं चलते। इसका कारण यह नहीं कि राजनीतिज्ञ अच्छा साहित्यकार नहीं हो सकता या फिर एक साहित्यकार अच्छी राजनीति नहीं कर सकता.. बल्कि यह है कि उस साहित्यकार को लोग "राजनीति" के चश्मे से देखने लगते हैं। उसकी रचनाओं को पसंद या नापसंद करने की कसौटी बस उसकी प्रतिभा नहीं रह जाती, बल्कि यह भी होती है कि वह जिस राजनीतिक दल से संबंध रखता है, उस दल की क्या सोच है और पढने वाले उस सोच से कितना इत्तेफ़ाक़ रखते हैं। अगर पढने वाले उसी सोच के हुए या फिर उस दल के हिमायती हुए तब तो वो साहित्यकार को भी खूब मन से सराहेंगे, लेकिन अगर विरोधी दल के हुए तो साहित्यकार या तो "उदासीनता" का शिकार होगा या फिर नकारा जाएगा... कम हीं मौके ऐसे होते हैं, जहाँ उस राजनीतिज्ञ साहित्यकार की प्रतिभा का सही मूल्यांकन हो पाता है। वैसे यह बहस बहुत ज्यादा मायना नहीं रखती, क्योंकि "राजनीति" में "साहित्य" और "साहित्यकार" के बहुत कम हीं उदाहरण देखने को मिलते है, जितने "साहित्य" में "राजनीति" के। "साहित्य" में

उस्ताद शफ़कत अली खान की आवाज़ में राधा की "नदिया किनारे मोरा गाँव" की पुकार कुछ अलग हीं असर करती है

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०६ पि छले कुछ हफ़्तों से अगर आपने महफिल को ध्यान से देखा होगा तो महफ़िल पेश करने के तरीके में हुए बदलाव पर आपकी नज़र ज़रूर गई होगी। पहले महफ़िल देर-सबेर १० बजे तक पूरी की पूरी तैयार हो जाती थी और फिर उसके बाद उसमें न कुछ जोड़ा जाता था और न हीं उससे कुछ हटाया जाता था। लेकिन अब १०:३० तक महफ़िल का एक खांका हीं तैयार हो पाता है, जिसमें उस दिन पेश होने वाली नज़्म/ग़ज़ल होती है, उसके बोल होते हैं, फ़नकार के बारे में थोड़ी-सी जानकारी होती है एवं पिछली महफ़िल के गायब हुए शब्द और शेर का ज़िक्र होता है। और इस तरह महफ़िल जब पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं के लिए खोल दी जाती है, उस वक़्त महफ़िल खुद पूरी तरह से रवानी पर नहीं होती। ऐसा लगता है मानो दर्शक फ़नकारों का प्रदर्शन देख रहे हैं लेकिन उस वक़्त मंच पर दरी, चादर, तकिया भी सही से नहीं सजाए गए हैं। ऐसे समय में जो दर्शक एवं श्रोता महफ़िल से लौट जाते हैं और दुबारा नहीं आते, वो महफ़िल का सही मज़ा नहीं ले पाते, उनसे बहुत कुछ छूट जाता है। इसलिए मैं आप सभी प्रियजनों से आग्रह करूँगा कि भले हीं आप बुधवार की सुबह महफ़िल का आनंद ले चुके हों,

मिर्च, ब्रेक के बाद, तेरा क्या होगा जॉनी, नो प्रोब्लम और इसी लाईफ़ में के गानों के साथ हाज़िर है इस साल की आखिरी समीक्षा

हम हरबार किसी एक या किन्ही दो फिल्मों के गानों की समीक्षा करते थे और इस कारण से कई सारी फिल्में हमसे छूटती चली गईं। अब चूँकि अगले मंगलवार से हम दो हफ़्तों के लिए अपने "ताजा सुर ताल" का रंग कुछ अलग-सा रखने वाले हैं, इसलिए आज हीं हमें बची हुई फिल्मों को निपटाना होगा। हमने निर्णय लिया है कि हम चार-फिल्मों के चुनिंदा एक या दो गाने आपको सुनवाएँगे और उस फिल्म के गाने मिला-जुलाकर कैसे बन पड़े हैं (और किन लोगों ने बनाया है), वह आपको बताएँगे। तो चलिए इस बदले हुए हुलिये में आज की समीक्षा की शुरूआत करते हैं। आज की पहली फिल्म है "ब्रेक के बाद"। इस फिल्म में संगीत दिया है विशाल-शेखर ने और बोल लिखे हैं प्रसून जोशी ने। बहुत दिनों के बाद प्रसून जोशी की वापसी हुई है हिन्दी फिल्मों में... और मैं यही कहूँगा कि अपने बोल से वे इस बार भी निराश नहीं करते। अलग तरह के शब्द लिखने में इनकी महारत है और कुछ गानों में इसकी झलक भी नज़र आती है, हाँ लेकिन वह कमाल जो उन्होंने "लंदन ड्रीम्स" में किया था, उसकी थोड़ी कमी दिखी। बस एक गाना "धूप के मकान-सा" में उनका सिक्का पूरी तरह से

है जिसकी रंगत शज़र-शज़र में, खुदा वही है.. कविता सेठ ने सूफ़ियाना कलाम की रंगत हीं बदल दी है

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०५ इ ससे पहले कि हम आज की महफ़िल की शुरूआत करें, मैं अश्विनी जी (अश्विनी कुमार रॉय) का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा। आपने हमें पूरी की पूरी नज़्म समझा दी। नज़्म समझकर हीं यह पता चला कि "और" कितना दर्द छुपा है "छल्ला" में जो हम भाषा न जानने के कारण महसूस नहीं कर पा रहे थे। आभार प्रकट करने के साथ-साथ हम आपसे दरख्वास्त करना चाहेंगे कि महफ़िल को अपना समझें और नियमित हो जाएँ यानि कि ग़ज़ल और शेर लेकर महफ़िल की शामों (एवं सुबहों) को रौशन करने आ जाएँ। आपसे हमें और भी बहुत कुछ सीखना है, जानना है, इसलिए उम्मीद है कि आप हमारी अपील पर गौर करेंगे। धन्यवाद! आज हम अपनी महफ़िल को उस गायिका की नज़र करने वाले हैं, जो यूँ तो अपनी सूफ़ियाना गायकी के लिए मक़बूल है, लेकिन लोगों ने उन्हें तब जाना, तब पहचाना जब उनका "इकतारा" सिद्दार्थ (सिड) को जगाने के लिए फिल्मी गानों के गलियारे में गूंज उठा। एकबारगी "इकतारा" क्या बजा, फिल्मी गानों और "पुरस्कारों" का रूख हीं मुड़ गया इनकी ओर। २००९ का ऐसा कौन-सा पुरस्कार है, ऐसा कौन-सा सम्मान है, जो इन्हें न मिल

सुर्खियों से बुनती है मकड़ी की जाली रे.. "नो वन किल्ड जेसिका" के संगीत की कमान संभाली अमित-अमिताभ ने

सुजॉय जी की अनुपस्थिति में एक बार फिर ताज़ा-सुर-ताल की बागडोर संभालने हम आ पहुँचे हैं। जैसा कि मैंने दो हफ़्ते पहले कहा था कि गानों की समीक्षा कभी मैं करूँगा तो कभी सजीव जी। मुझे "बैंड बाजा बारात" के गाने पसंद आए थे तो मैंने उनकी समीक्षा कर दी, वहीं सजीव जी को "तीस मार खां" ने अपने माया-जाल में फांस लिया तो सजीव जी उधर हो लिए। अब प्रश्न था कि इस बार किस फिल्म के गानों को अपने श्रोताओं को सुनाया जाए और ये सुनने-सुनाने का जिम्मा किसे सौंपा जाए। अच्छी बात थी कि मेरी और सजीव जी.. दोनों की राय एक हीं फिल्म के बारे में बनी और सजीव जी ने "बैटन" मुझे थमा दिया। वैसे भी क्रम के हिसाब से बारी मेरी हीं थी और "मन" के हिसाब से मैं हीं इस पर लिखना चाहता था। अब जहाँ "देव-डी" और "उड़ान" की संगीतकार-गीतकार-जोड़ी मैदान में हो, तो उन्हें निहारने और उनका सान्निध्य पाने की किसकी लालसा न होगी। आज के दौर में "अमित त्रिवेदी" एक ऐसा नाम, एक ऐसा ब्रांड बन चुके हैं, जिन्हें परिचय की कोई आवश्यकता नहीं। अगर यह कहा जाए कि इनकी सफ़लता का दर (सक्सेस

छल्ला कालियां मर्चां, छल्ला होया बैरी.. छल्ला से अपने दिल का दर्द बताती विरहणी को आवाज़ दी शौकत अली ने

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०४ यूँ तो हमारी महफ़िल का नाम है "महफ़िल-ए-ग़ज़ल", लेकिन कभी-कभार हम ग़ज़लों के अलावा गैर-फिल्मी नगमों और लोक-गीतों की भी बात कर लिया करते हैं। लीक से हटने की अपनी इसी आदत को ज़ारी रखते हुए आज हम लेकर आए हैं एक पंजाबी गीत.. या यूँ कहिए पंजाबी लोकगीतों का एक खास रूप, एक खास ज़ौनर जिसे "छल्ला" के नाम से जाना जाता है। इस "छल्ला" को कई गुलुकारों ने गाया है और अपने-अपने तरीके से गाया है। तरीकों के बदलाव में कई बार बोल भी बदले हैं, लेकिन इस "छल्ला" का असर नहीं बदला है। असर वही है, दर्द वही है... एक "विरहणी" के दिल की पीर, जो सुनने वालों के दिलों को चीर जाती है। आखिर ये "छल्ला" होता क्या है, इसके बारे में "एक शाम मेरे नाम" के मनीष जी लिखते हैं (साभार): जैसा कि नाम से स्पष्ट है "छल्ला लोकगीत" के केंद्र में वो अंगूठी होती है, जो प्रेमिका को अपने प्रियतम से मिलती है। पर जब उसका प्रेमी दूर देश चला जाता है तो वो अपने दिल का हाल किससे बताए? और किससे? उसी छल्ले से जो उसके साजन की दी हुई एकमात्र निशानी है