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हम देखेंगे... लाज़िम है कि हम भी देखेंगे...

पाकिस्तान से कोई ताज़ा ख़बर है?... ज़रूर कोई बुरी ख़बर होगी। याद नहीं पिछली बार कब इस मुल्क से कोई अच्छी ख़बर सुनने को मिली थी। करेले जैसी ख़बरें वो भी नीम चढ़ी कि उनपर अफ़सोस करने के लिये न तो दिमाग़ के पास फ़ालतू-दिमाग़ रह गया है और न दिल के पास वो धड़कनें जो आंसू में ढल जाती हैं। नहीं दोस्त ये वाक़ई बुरी ख़बर है... और फिर जो कुछ मोबाइल पर कहा गया वो वाक़ई यक़ीन करने वाला नहीं था। इक़बाल बानों नहीं रहीं। हँसी कब ग़ायब हो गई, बेयक़ीनी कब यक़ीन में बदल गई, पता ही नहीं चला। एक ऐसे मुल्क में जहाँ ख़तरनाक ख़बरें रोज़मर्रा की हक़ीक़त बन चुकी हैं। जहां मौत तमाशा बन चुकी है वहां इक़बाल बानों की मौत ने उस आवाज़ को भी हमसे छीन लिया जो ज़ख़्म भरने का काम करती थी, जो रूह का इलाज थी। “दश्ते तंहाई में ऐ जाने जहां ज़िंदा हैं…” फ़ैज़ की ये नज़्म अगर सुननेवालों के दिलों में ज़िंदा है तो इसकी एक बड़ी वजह इक़बाल बानों की वो आवाज़ है जो इसका जिस्म बन गई। बहरहाल ये सच है कि 21 अप्रैल 2009 को इकबाल बानो अपने चाहने वालों को ख़ुदा हाफिज़ कहके हमेशा-हमेशा के लिये रुख़सत हो गईं। और इसी के साथ ठुमरी, दादरा,