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'स्वरगोष्ठी' में ठुमरी : ‘का करूँ सजनी आए न बालम...’

स्वरगोष्ठी-९९ में आज फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी – १० विरहिणी नायिका की व्यथा : ‘का करूँ सजनी आए न बालम...’ ‘स्वरगोष्ठी’ के ९९वें अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत-प्रेमियों का एक बार पुनः हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। मित्रों, शास्त्रीय, उप-शास्त्रीय और लोक संगीत पर केन्द्रित आपका यह प्रिय स्तम्भ दो सप्ताह बाद दो वर्ष पूरे करने जा रहा है। आगामी २३ और ३० दिसम्बर को हम आपके लिए दो विशेष अंक प्रस्तुत करेंगे। वर्ष के अन्तिम रविवार के अंक में हम इस वर्ष की पहेली के विजेताओं के नामों की घोषणा भी करेंगे। आपके लिए कुछ और सूचनाएँ है, जिन्हें हम समय-समय पर आपको देते रहेंगे। आइए, अब आरम्भ करते हैं, आज का अंक। आपको स्मरण ही होगा कि इन दिनों हमारी लघु श्रृंखला ‘फिल्मों के आँगन ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ जारी है। इस श्रृंखला की दसवीं कड़ी में आज हम आपके लिए लेकर आए हैं राग भैरवी अथवा सिन्धु भैरवी की विख्यात ठुमरी- ‘का करूँ सजनी आए न बालम...’ के विविध प्रयोगों पर एक चर्चा।  ‘स्व रगोष्ठी’ के ९९वें अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत-प्रेमियों क

फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी – ७

स्वरगोष्ठी – ९६ में आज लौकिक और आध्यात्मिक भाव का बोध कराती ठुमरी ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय...’ चौथे से लेकर छठें दशक तक की हिन्दी फिल्मों के संगीतकारों ने राग आधारित गीतों का प्रयोग कुछ अधिक किया था। उन दिनों शास्त्रीय मंचों पर या ग्रामोफोन रेकार्ड के माध्यम से जो बन्दिशें, ठुमरी, दादरा आदि बेहद लोकप्रिय होती थीं, उन्हें फिल्मों में कभी-कभी यथावत और कभी अन्तरे बदल कर प्रयोग किये जाते रहे। चौथे दशक के कुछ संगीतकारों ने फिल्मों में परम्परागत ठुमरियों का बड़ा स्वाभाविक प्रयोग किया था। फिल्मों में आवाज़ के आगमन के इस पहले दौर में राग आधारित गीतों के गायन के लिए सर्वाधिक यश यदि किसी गायक को प्राप्त हुआ, तो वह कुन्दनलाल (के.एल.) सहगल ही थे। उन्होने १९३८ में प्रदर्शित ‘न्यू थियेटर’ की फिल्म ‘स्ट्रीट सिंगर’ में शामिल पारम्परिक ठुमरी- ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय...’ गाकर उसे कालजयी बना दिया। ‘स्वरगोष्ठी’ के आज के अंक में आप संगीत-प्रेमियों के बीच, मैं कृष्णमोहन मिश्र, भैरवी की इसी ठुमरी से जुड़े कुछ तथ्यों पर चर्चा करूँगा। अ वध के नवाब वाजिद अली शाह संगीत-नृत

फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी

स्वरगोष्ठी – ९० में आज   ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन...’   ‘स्वरगोष्ठी’ के एक नए अंक के साथ मैं, कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों के बीच उपस्थित हूँ और आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ। मित्रों, आज से हम आरम्भ कर रहे हैं, एक नई लघु श्रृंखला- ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’। शीर्षक से आपको यह अनुमान हो ही गया होगा कि इस श्रृंखला में हम आपके लिए कुछ ऐसी पारम्परिक ठुमरियाँ प्रस्तुत करने जा रहे हैं, जिन्हें भारतीय फिल्मों में शामिल किया गया। फिल्मों का हिस्सा बन कर इन ठुमरियों को इतनी लोकप्रियता मिली कि लोग मूल पारम्परिक ठुमरी को प्रायः भूल गए। इस श्रृंखला में हम आपके लिए उप-शास्त्रीय संगीत की इस मनमोहक विधा के पारम्परिक स्वरूप के साथ-साथ फिल्मी स्वरूप भी प्रस्तुत करेंगे।  ल घु श्रृंखला- ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ के आज के पहले अंक का राग है, झिंझोटी और ठुमरी है- ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन...’ । परन्तु इस ठुमरी पर चर्चा से पहले ठुमरी शैली पर थोड़ी चर्चा आवश्यक है। ठुमरी भारतीय संगीत की रस, रंग और भाव से परिपूर्ण शैली है, जिसे उन