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कैसे सजन घर जईबे हो रामा....पारंपरिक चैत गीतों की मधुरता

सुर संगम - 14 - चैत्र मास की चैती जब महिला या पुरुष इसे एकल रूप में गाते हैं तो इसे 'चैती' कहा जाता है परन्तु जब समूह या दल बना कर गाया जाता है तो इसे 'चैता' कहा जाता है| इस गायकी का एक और प्रकार है जिसे 'घाटो' कहते हैं | 'घाटो' की धुन 'चैती' से थोड़ी बदल जाती है| इसकी उठान बहुत ऊँची होती है और केवल पुरुष वर्ग ही इसे समूह में गाते हैं| कभी-कभी दो दलों में बँट कर सवाल-जवाब या प्रतियोगिता के रूप में भी प्रस्तुत किया जाता है, इसे 'चैता दंगल' कहा जाता है। सु र-संगम के इस साप्ताहिक स्तंभ मे सभी श्रोता-पाठकों का स्वागत है। परंपरागत भारतीय संगीत शैलियों को आज़ादी के बाद सुप्रसिद्ध संगीतविद व सांस्कृतज्ञ ठाकुर जयदेव सिंह ने 'आकाशवाणी' के लिए चार वर्गों- शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, सुगम और लोक संगीत में वर्गीकृत किया था| इन शैलियो के अलग-अलग रंग हैं और इन्हें पसंद करने वालों के अलग-अलग वर्ग भी हैं| लोक संगीत, वह चाहे किसी भी क्षेत्र का हो, उसमें ऋतुओं के अनुकूल गीतों का समृद्ध खज़ाना होता है| लोक संगीत की एक ऐसी ही शैली है- 'चैती'

सुर संगम में आज - जल तरंग की मधुरता से तरंगित है आज रविवार की सुबह

सुर संगम - 13 - जल तरंग की उमंग जल तरंग असाधारण इसलिए है कि यह एक तालवाद्‍य भी है और घनवाद्‍य भी। मूलतः इसमें चीनी मिट्टी की बनी कटोरियों में पानी भर उन्हें अवरोही क्रम(descending order) अथवा पंक्ति अथवा किसी भी और सुविधाजनक समाकृति में सजाया जाता है। फिर इन कटोरियों में अलग-अलग परिमाण में जल भर कर इन्हें रागानुसार समस्वरित(tune) किया जाता है। जब इन कटोरियों पर बेंत अथवा लकड़ी के बने छड़ों से मार की जाती है तब इनकी कंपन से एक मधुर झनकार सी ध्वनि उत्पन्न होती है। न मस्कार! सुर-संगम की एक और संगीतमयी कड़ी में सभी श्रोता-पाठकों का हार्दिक अभिनंदन। कैसी रही आप सब की होली? आशा है सब ने खूब धूम मचाई होगी। मैनें भी हमारे 'ओल्ड इज़ गोल्ड" के साथी सुजॉय दा के साथ मिलकर जम के होली मनाई। ख़ैर अब होली के बादल छट गए हैं और अपने साथ बहा ले गए हैं शीत एवं बसंत के दिनों को, साथ ही दस्तक दे चुकी हैं गरमियाँ। ऐसे में हम सब का जल का सहारा लेना अपेक्षित ही है। तो हमनें भी सोचा कि क्यों न आप सबकी संगीत-पिपासा को शाँत करने के लिए आज की कड़ी भी ऐसे ही किसी वाद्‍य पर आधारित हो जिसका संबंध जल से है। आ

सुर संगम में आज - होरी की उमंग और ठुमरी के लोक रंग से सजाएँ इस होली को

सुर संगम - 12 - शास्त्रिय और लोक संगीत की होली फाल्गुन के महीने में पिचकारियों से निकले रंग मानो मुर्झाने वाली, शीतकालीन हवाओं को बहाकर पृथ्वी की छवि में बसंत ऋतु के जीवंत दृश्य भर देते हैं। तो आइये सुनते हैं ऐसे ही दृश्य को दर्शाती इस ठुमरी को, शोभा गुर्टू जी की आवाज़ में। "आ ज बिरज में होरी रे रसिया आज बिरज में होरी रे रसिया अबीर गुलाल के बादल छाए अबीर गुलाल के बादल छाए आज बिरज में होरी रे रसिया आज बिरज में होरी रे रसिया" सुप्रभात! रविवार की इस रंगीन सुबह में सुर-संगम की १२वीं कड़ी लिए मैं सुमित चक्रवर्ती पुन: उपस्थित हूँ। दोस्तों क्या कभी आपने महसूस किया है कि होली के आते ही समां में कैसी मस्ती सी घुल जाती है. इससे पहले कि आप बाहर निकल कर रंग और गुलाल से जम कर होली खेलें जरा संगीत के माध्यम से अपना मूड तो सेट कर लीजिए. आज की हमारी कड़ी भी रंगों के त्योहार - होली पर ही आधारित है जिसमें हमने पारंपरिक लोक व शास्त्रीय संगीत की होली रचने की एक कोशिश की है। भारतीय त्योहारों में होली को शास्त्रीय व लोक संगीत का एक महत्त्वपूर्ण घटक माना गया है। रंगों का यह उत्सव हमारे जीवन को हर्ष

सुर संगम में आज - राजस्थान की आत्मा में बसा है माँगणियार लोक-संगीत

सुर संगम - 11 - राजस्थान का माँगणियार लोक-संगीत लोकगीतों में धरती गाती है, पर्वत गाते हैं, नदियाँ गाती हैं, फसलें गाती हैं। उत्सव, मेले और अन्य अवसरों पर मधुर कंठों में लोक समूह लोकगीत गाते हैं। वैदिक ॠचाओं की तरह लोक-संगीत या लोकगीत अत्यंत प्राचीन एवं मानवीय संवेदनाओं के सहजतम स्त्रोत हैं। सु प्रभात! सुर-संगम की ११वीं कड़ी में आप सबका अभिनंदन! आज से हम सुर-संगम में एक नया स्तंभ जोड़ रहे हैं - वह है 'लोक-संगीत'। इसके अंतर्गत हम आपको भारत के विभिन्न प्रांतों के लोक-संगीत का स्वाद चखवाएँगे। आशा करते हैं कि इस स्तंभ के प्रभाव से सुर-संगम का यह मंच एक 'आनंद-मेला' बन उठे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था,"लोकगीतों में धरती गाती है, पर्वत गाते हैं, नदियाँ गाती हैं, फसलें गाती हैं। उत्सव, मेले और अन्य अवसरों पर मधुर कंठों में लोक समूह लोकगीत गाते हैं। वैदिक ॠचाओं की तरह लोक-संगीत या लोकगीत अत्यंत प्राचीन एवं मानवीय संवेदनाओं के सहजतम स्त्रोत हैं।" भारत में लोक-संगीत एक बहुमूल्य धरोहर रहा है। विभिन्न प्रांतों की सांस्कृतिक विविधता असीम लोक कलाओं व लोक संगीतों को जन

शततंत्री वीणा से आधुनिक संतूर तक, वादियों की खामोशियों को सुरीला करता ये साज़ और निखरा पंडित शिव कुमार शर्मा के संस्पर्श से

सुर संगम - 10 - संतूर की गूँज - पंडित शिव कुमार शर्मा इसके ऊपरी भाग पर लकड़ी के पुल से बने होते हैं जिनके दोनों ओर बने कीलों से तारों को बाँधा जाता है। संतूर को बजाने के लिए इन तारों पर लकड़ी के बने दो मुंगरों (hammers) - जिन्हें 'मेज़राब' कहा जाता है, से हल्के से मार की जाती है। र विवार की मधुर सुबह हो, सूरज की सुनहरी किरणे हल्के बादलों के बीच से धरती पर पड़ रही हों, हाथ में चाय का प्याला, बाल्कनी पर खड़े बाहर का नज़ारा ताकते हुए आप, और रेडियो पर संगीत के तार छिड़े हों जिनमें से मनमोहक स्वरलहरियाँ गूँज रही हों! सुर-संगम की ऐसी ही एक संगीतमयी सुबह में मैं सुमित आप सभी संगीत प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ| हम सभी ने कई अलग-अलग प्रकार के वाद्‍य यंत्रों की ध्वनियाँ सुनी होंगी| पर क्या आपने कभी इस बात पर ग़ौर किया है कि कुछ वाद्‍यों से निकली ध्वनि-कंपन सपाट(flat) होती है जैसे कि पियानो या वाय्लिन से निकली ध्वनि; जबकि कुछ वाद्‍यों की ध्वनि-कंपन वृत्त(round) होती है तथा अधिक गूँजती है। आज हम ऐसे ही एक शास्त्रीय वाद्‍य के बारे में चर्चा करेंगे जिसका उल्लेख वेदों में "शततंत्

सुर संगम में आज - परवीन सुल्ताना की आवाज़ का महकता जादू

सुर संगम - 09 - बेगम परवीन सुल्ताना अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि जितना महत्वपूर्ण एक अच्छा गुरू मिलना होता है, उतना ही महत्वपूर्ण होता है गुरू के बताए मार्ग पर चलना। संभवतः इसी कारण वे कठिन से कठिन रागों को सहजता से गा लेती हैं, उनका एक धीमे आलाप से तीव्र तानों और बोल तानों पर जाना, उनके असीम आत्मविश्वास को झलकाता है, जिससे उस राग का अर्क, उसका भाव उभर कर आता है। चाहे ख़याल हो, ठुमरी हो या कोई भजन, वे उसे उसके शुद्ध रूप में प्रस्तुत कर सबका मन मोह लेती हैं। सु र-संगम की इस लुभावनी सुबह में मैं सुमित चक्रवर्ती आप सभी संगीत प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। हिंद-युग्म् के इस मंच से जुड़ कर मैं अत्यंत भाग्यशाली बोध कर रहा हूँ। अब आप सब सोच रहे होंगे कि आज 'सुर-संगम' सुजॉय जी प्रस्तुत क्यों नही कर रहे। दर-असल अपने व्यस्त जीवन में समय के अभाव के कारण वे अब से सुर-संगम प्रस्तुत नहीं कर पाएँगे। परन्तु निराश न हों, वे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के ज़रिये इस मंच से जुड़े रहेंगे। ऐसे में उन्होंने और सजीव जी ने 'सुर-संगम' का उत्तरदायित्व मेरे कन्धों पर सौंपा है।