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फ़िल्मी चक्र समीर गोस्वामी के साथ || एपिसोड 10 || एस डी बर्मन

Filmy Chakra With Sameer Goswami  Episode 10 S.D.Burman  फ़िल्मी चक्र कार्यक्रम में आप सुनते हैं मशहूर फिल्म और संगीत से जुडी शख्सियतों के जीवन और फ़िल्मी सफ़र से जुडी दिलचस्प कहानियां समीर गोस्वामी के साथ, लीजिये आज इस कार्यक्रम के दसवें एपिसोड में सुनिए कहानी बेमिसाल बर्मन दा की...प्ले पर क्लिक करें और सुनें.... फिल्मी चक्र में सुनिए इन महान कलाकारों के सफ़र की कहानियां भी - किशोर कुमार शैलेन्द्र  संजीव कुमार  आनंद बक्षी सलिल चौधरी  नूतन  हृषिकेश मुखर्जी  मजरूह सुल्तानपुरी साधना 

हिन्दी फिल्मी गीतों में रवीद्र संगीत - एक शोध

स्वरगोष्ठी – ६७ में आज रवीन्द्र-सार्द्धशती वर्ष में विशेष ‘पुरानो शेइ दिनेर कथा...’ ज हाँ एक ओर फ़िल्म-संगीत का अपना अलग अस्तित्व है, वहीं दूसरी ओर फ़िल्म-संगीत अन्य कई तरह के संगीत पर भी आधारित रही है। शास्त्रीय, लोक और पाश्चात्य संगीत का प्रभाव फ़िल्म-संगीत पर हमेशा रहा है और आज भी है। उधर बंगाल की संस्कृति में रवीन्द्र संगीत एक मुख्य धारा है, जिसके बिना बांग्ला संगीत, नृत्य और साहित्य अधूरा है। समय-समय पर हिन्दी सिने-संगीत-जगत के कलाकारों ने रवीन्द्र-संगीत को भी फ़िल्मी गीतों का आधार बनाया है। इस वर्ष पूरे देश मेँ रवीन्द्रनाथ ठाकुर की १५०वीं जयन्ती मनायी जा रही है। इस उपलक्ष्य मेँ हम भी उन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं। ‘स्व रगोष्ठी’ के सभी संगीत रसिकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! इस स्तम्भ के वाहक कृष्णमोहन जी की पारिवारिक व्यस्तता के कारण आज का यह अंक मैं सुजॉय चटर्जी प्रस्तुत कर रहा हूँ। कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर के लिखे गीतों का, जिन्हें हम "रवीन्द्र-संगीत" के नाम से जानते हैं, बंगाल के साहित्य, कला और संगीत पर ज

सुन री पवन, पवन पुरवैया.. भटयाली संगीत की लहरों में बहाते बर्मन दा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 766/2011/206 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों का इस नए सप्ताह में हार्दिक स्वागत है। इन दिनों जारी है लघु शृंखला 'पुरवाई' जिसके अन्तर्गत आप आनन्द ले रहे हैं पूर्व और पुर्वोत्तर भारत के लोक और पारम्परिक धुनों पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी रचनाओं की। आज हम आपको लिए चलते हैं पूर्वी बंगाल, यानि कि वो जगह जिसका ज़्यादातर अंश आज बंगलादेश में पड़ता है। आपको बता दें कि पूर्वी बंगाल और पश्चिम बंगाल की संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान और गीत-संगीत में बहुत अन्तर है। असम और त्रिपुरा में भी पूर्वी बंगालियों का एक बड़ा समूह वास करता है। आज के इस कड़ी में हम पूर्वी बंगाल के बहुत प्रचलित लोक-गीत शैली पर आधारित गीत सुनवाने जा रहे हैं जिसे भटियाली लोक-गीत कहा जाता है। भटियाली मांझी गीत है जिसे नाविक भाटे के बहाव में गाते हैं। जी हाँ, ज्वार-भाटा वाला भाटा। क्योंकि भाटे में चप्पु चलाने की ज़रूरत नहीं पड़ती, इसलिए मांझी लोग गुनगुनाने लग पड़ते हैं। और इस "भाटा-संगीत" को ही भटियाली कहते हैं। मूलत: इस शैली का जन्म मीमेनसिंह ज़िले में हुआ था जहाँ मांझी ब्र

दिन ढल जाए हाय रात न जाए....सरफिरे वक्त को वापस बुलाती रफ़ी साहब की आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 711/2011/151 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है आप सभी का इस सुरीले सफ़र में। कृष्णमोहन मिश्र जी द्वारा प्रस्तुत दो बेहद सुंदर शृंखलाओं के बाद मैं, सुजॉय चटर्जी वापस हाज़िर हूँ इस नियमित स्तंभ के साथ। इस स्तंभ की हर लघु शृंखला की तरह आज से शुरु होने वाली शृंखला भी बहुत ख़ास है, और साथ ही अनोखा और ज़रा हटके भी। दोस्तों, आप में से बहुत से श्रोता-पाठकों को मालूम होगा कि 'आवाज़' के मुख्य सम्पादक सजीव सारथी की लिखी कविताओं का पहला संकलन हाल ही में प्रकाशित हुआ है, और इस पुस्तक का शीर्षक है ' एक पल की उम्र लेकर '। जब सजीव जी नें मुझसे अपनी इस पुस्तक के बारे में टिप्पणी चाही, तब मैं ज़रा दुविधा मे पड़ गया क्योंकि कविताओं की समीक्षा करना मेरे बस की बात नहीं। फिर मैंने सोचा कि क्यों न इस पुस्तक में शामिल कुल ११० कविताओं में से दस कविताएँ छाँट कर और उन्हें आधार बनाकर फ़िल्मी गीतों से सजी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला पेश करूँ? फ़िल्मी गीत जीवन के किसी भी पहलु से अंजान नहीं रहा है, इसलिए इन १० कविताओं से मिलते जुलत

"नज़र लागी राजा तोरे बंगले पर.." - ठुमरी जब लोक-रंग में रँगी हो

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 686/2011/126 'ओ ल्ड इज गोल्ड' पर जारी श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" के दूसरे सप्ताह में मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सभी संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ| पिछले अंकों में हमने आपके साथ "ठुमरी" के प्रारम्भिक दौर की जानकारी बाँटी थी| यह भी चर्चा हुई थी कि उस दौर में "ठुमरी" कथक नृत्य का एक हिस्सा बन गई थी| परन्तु एक समय ऐसा भी आया जब "ठुमरी" की विकास-यात्रा में थोड़ा व्यवधान भी आया| इस शैली के पृष्ठ-पोषक नवाब वाजिद अली शाह को 1856 में अंग्रेजों ने अपनी साम्राज्यवादी नीतियों के कारण बन्दी बना लिया गया| नवाब को बन्दी बना कर कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के मटियाबुर्ज नामक स्थान पर भेज दिया गया| नवाब यहाँ पर मृत्यु-पर्यन्त (1887) तक स्थायी रूप से रहे| नवाब वाजिद अली शाह के लखनऊ छूटने से पहले तक "ठुमरी" की जड़ें जमीन को पकड़ चुकी थीं| इस दौर में केवल संगीतज्ञ ही नहीं बल्कि शासक, दरबारी, सामन्त, शायर, कवि आदि सभी "ठुमरी" की रचना, गायन और उसके भावाभिनय में प्रवृत्त हो गए थे| वाजिद अली शाह के रिश्ते

तेरी बिंदिया रे....शब्द और सुरों का सुन्दर मिलन है ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 668/2011/108 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों जारी है मजरूह सुल्तानपुरी पर केन्द्रित लघु शृंखला '...और कारवाँ बनता गया'। इसके तहत हम दस अलग अलग संगीतकारों द्वारा स्वरबद्ध मजरूह साहब के लिखे गीत सुनवा रहे हैं जो बने हैं अलग अलग दौर में। ४०, ५० और ६० के बाद आज हम क़दम रख रहे हैं ७० के दशक में। ५० के दशक में नौशाद, अनिल बिस्वास, ओ.पी. नय्यर, मदन मोहन, के अलावा एक और नाम है जिनका उल्लेख किये बग़ैर यह शृंखला अधूरी ही रह जायेगी। और वह नाम है सचिन देव बर्मन का। अब आप सोच रहे होंगे कि ५० के दशक के संगीतकारों के साथ हमनें उन्हें क्यों नहीं शामिल किया। दरअसल बात ऐसी है कि हम बर्मन दादा द्वारा स्वरबद्ध जिस गीत को सुनवाना चाहते हैं, वह गीत है ७० के दशक का। इससे पहले कि हम इस गीत का ज़िक्र करें, हम वापस ४०-५० के दशक में जाना चाहेंगे। मेरा मतलब है मजरूह साहब के कहे कुछ शब्द जिनका ताल्लुख़ उस ज़माने से है। विविध भारती के किसी कार्यक्रम में उन्होंने ये शब्द कहे थे - " १९४५ से १९५२ के दरमियाँ की बात है। उस समय मैंने तरक्की-पसंद अशार की शुरुआत की थी। मेरे उम्र

जानू जानूं रे काहे खनके है तोरा कंगना.....आपसी छेड़ छाड और गीत में गूंजते हँसी ठहाके

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 651/2011/91 'ओ ल्ड इस गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! मनुष्य मन अपनी हर अनुभूति को किसी न किसी तरह से व्यक्त करता है। दुख में आँसू, सुख में हँसी, और अशांत मन में कभी कभी क्रोध उत्पन्न होती है। इनमें से जो सब से हसीन अभिव्यक्ति है, वह है हमारी मुस्कान, हमारी हँसी। कहा जाता है कि एक छोटी सी मुस्कान दो दिलों के बीच पनप रही दूरी को पलक झपकते ही ख़त्म देने की शक्ति रखता है। सच में बड़ा ही संक्रामक होता है यह हास्य रस। हास्य रस, यानी कि ख़ुशी के भाव जो अंदर से हम महसूस करते हैं। बनावटी हँसी को हास्य रस नहीं कहा जा सकता। हास्य रस इतना संक्रामक होता है कि आप इस रस को अपने आसपास के लोगों में भी पल में आग की तरह फैला सकते हैं। सीधे सरल शब्दों में हास्य का अर्थ तो यही होता है कि ख़ुश होना, जो चेहरे पर हँसी या मुस्कुराहट के ज़रिए खिलती है, लेकिन जो शुद्ध हास्य होता है वह हम अपने अंदर बिना किसी कारण के ही महसूस करते हैं। और यह भाव तब उत्पन्न होती है जब हम यह समझ या अनुभूति कर लेते हैं कि ईश्वर या जीवन हम पर मेहरबान है। इस तरह का हास्य एक दैवीय रस होता है, जिसे एक दैवीय त

हटो काहे को झूठी बनाओ बतियाँ...मेलोडी और हास्य के मिश्रण वाले ऐसे गीत अब लगभग लुप्त हो चुके हैं

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 649/2010/349 म न्ना डे के गीतों की चर्चा महमूद के बिना अधूरी रहेगी। हास्य अभिनेता महमूद नें रुपहले परदे पर बहुतेरे गीत गाये, जिन्हें मन्ना डे ने ही स्वर दिया। एक समय ऐसा लगता था, मानो मन्ना डे, महमूद की आवाज़ बन चुके हैं। परन्तु बात ऐसी थी नहीं। इसका स्पष्टीकरण फिल्म "पड़ोसन" के प्रदर्शन के बाद स्वयं महमूद ने दिया था। पत्रकारों के प्रश्न के उत्तर में महमूद ने कहा था -"मन्ना डे साहब को मेरी नहीं बल्कि मुझे उनकी ज़रुरत होती है। उनके गाये गानों पर स्वतः ही अच्छा अभिनय मैं कर पाता हूँ। महमूद के इस कथन में शत-प्रतिशत सच्चाई थी। यह तो निर्विवाद है कि उन दिनों शास्त्रीय स्पर्श लिये गानों और हास्य मिश्रित गानों के लिए मन्ना डे के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था। उस दौर के प्रायः सभी हास्य अभिनेताओं के लिए मन्ना डे ने पार्श्वगायन किया था। 1961 में एक फिल्म आई थी "करोड़पति', जिसमें किशोर कुमार नायक थे। किशोर कुमार उन दिनों गायक के रूप में कम, अभिनेता बनने के लिए अधिक प्रयत्न कर रहे थे। फिल्म में संगीत शंकर-जयकिशन का था। मन्ना डे नें उस फिल्म में हास

कहाँ गया चितचोर....जब संगीत के खासे जानकार राज कपूर ने किया खुद अपने लिए पार्श्वगायन

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 631/2010/331 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को हमारा नमस्कार और बहुत बहुत स्वागत है इस सुरीली महफ़िल में। पिछली शृंखला केन्द्रित थी हिंदी सिनेमा के प्रथम सिंगिंग् सुपरस्टार के.एल. सहगल साहब पर। सिंगिंग् स्टार्स की बात करें तो सहगल साहब के अलावा पंकज मल्लिक, के. सी. डे, कानन देवी, शांता आप्टे, नूरजहाँ, सुरैया जैसे नाम झट से ज़ुबान पर आ जाते हैं। प्लेबैक सिंगर्स के आगमन से धीरे धीरे सिंगिंग् स्टार्स का दौर समाप्त हो चला और एक से एक लाजवाब पार्श्वगायकों नें क़दम जमाया जिन्होंने फ़िल्म संगीत को नई बुलंदियों तक पहुँचाया। और स्टार्स केवल अभिनय तक ही सीमित रह गये। इस तरह से अभिनय और गायन, दोनों जगत को श्रेष्ठ फ़नकार मिले जिन्हें अपनी अपनी विधा में महारथ हासिल थी। वैसे समय समय पर हमारे फ़िल्म निर्माता-निर्देशक और संगीतकारों नें अभिनेताओं से गानें भी गवाये हैं, जो उनकी आवाज़ में बड़े ही निराले और अनोखे बन पड़े हैं। आइए आज से शुरु करें कुछ ऐसे ही अभिनेताओं द्वारा गाये फ़िल्मी गीतों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'सितारों की सरगम

जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला....पूरी तरह पियानो पर रचा बुना एक अमर गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 594/2010/294 'पि यानो साज़ पर फ़िल्मी परवाज़', इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है यह शृंखला, जिसमें हम आपको पियानो के बारे में जानकारी भी दे रहे हैं, और साथ ही साथ फ़िल्मों से चुने हुए कुछ ऐसे गानें भी सुनवा रहे हैं जिनमें मुख्य साज़ के तौर पर पियानो का इस्तमाल हुआ है। पिछली तीन कड़ियों में हमने पियानो के इतिहास और उसके विकास से संबम्धित कई बातें जानी, आइए आगे पियानो की कहानी को आगे बढ़ाया जाए। साल १८२० के आते आते पियानो पर शोध कार्य का केन्द्र पैरिस बन गया जहाँ पर प्लेयेल कंपनी उस किस्म के पियानो निर्मित करने लगी जिनका इस्तमाल फ़्रेडरिक चौपिन करते थे; और ईरार्ड कंपनी ने बनाये वो पियानो जो इस्तमाल करते थे फ़्रांज़ लिस्ज़्ट। १८२१ में सेबास्टियन ईरार्ड ने आविष्कार किया 'डबल एस्केपमेण्ट ऐक्शन' पद्धति का, जिसमें एक रिपिटेशन लीवर, जिसे बैलेन्सर भी कहा जाता है, का इस्तमाल हुआ जो किसी नोट को तब भी रिपीट कर सकता था जब कि वह 'की' अपने सर्वोच्च स्थान तक अभी वापस पहुंचा नहीं था। इससे फ़ायदा यह हुआ कि किसी नोट को बार बार और तुरंत रिपीट करना

मनमोर हुआ मतवाला किसने जादू डाला....सुर्रैया के लिए प्रेम वो जादू था जो मन से कभी नहीं उतरा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 586/2010/286 न मस्कार! रविवार की शाम और 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर एक नई सप्ताह का आग़ाज़। दोस्तों नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है इस महफ़िल में। इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल रोशन है उस गायिका-अभिनेत्री के गाये हुए गीतों से जिन्हें हम जानते हैं सुरैया के नाम से। इस शृंखला के पहले हिस्से में पाँच गानें ४० के दशक के सुनने के बाद, आइए आज क़दम रखते हैं ५० के दशक में। सुरैया की ज़िंदगी का एक अध्याय रहे हैं अभिनेता देव आनंद। सुरैया और देव साहब का प्रेम-संबंध इण्डस्ट्री में चर्चा का विषय बन गया था। सुरैया पर केन्द्रित कोई भी चर्चा देव साहब के ज़िक्र के बिना समाप्त नहीं हो सकती। क्या हुआ था कि वे दोनों मिल ना सके, एक दूजे का हमसफ़र बन ना सके। आइए आज देव साहब की किताब 'रोमांसिंग् विद् लाइफ़' से कुछ अंश यहाँ पेश करें। देव साहब कहते हैं, "मैं सातवें आसमान पर उड़ रहा था क्योंकि हम दोनों अब एन्गेज हो चुके थे। मैं उसे पाना चाहता था, ज़्यादा, और भी ज़्यादा, लेकिन फिर मुझे उसकी तरफ़ से कोई आवाज़ नहीं आई। हमारी फ़िल्मों की शूटिंग् भी ख़त्म हो गई, और

आसमां के नीचे हम आज अपने पीछे, प्यार का जहाँ बसा के चले...लता और किशोर दा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 555/2010/255 फ़ि ल्म संगीत के सुनहरे दौर के कुछ सदाबहार युगल गीतों से सज रही है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल इन दिनों। ये वो प्यार भरे तराने हैं, जिन्हे प्यार करने वाले दिल दशकों से गुनगुनाते चले आए हैं। ये गानें इतने पुराने होते हुए भी पुराने नहीं लगते। तभी तो इन्हे हम कहते हैं 'सदाबहार नग़में'। इन प्यार भरे गीतों ने वो कदमों के निशान छोड़े हैं कि जो मिटाए नहीं मिटते। आज इस 'एक मैं और एक तू' शृंखला में हमने एक ऐसे ही गीत को चुना है जिसने भी अपनी एक अमिट छाप छोड़ी है। लता मंगेशकर और किशोर कुमार की सदाबहार जोड़ी का यह सदाबहार नग़मा है फ़िल्म 'ज्वेल थीफ़' का - "आसमाँ के नीचे, हम आज अपने पीछे, प्यार का जहाँ बसाके चले, क़दम के निशाँ बनाते चले"। मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे इस गीत को दादा बर्मन ने स्वरबद्ध किया था। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के शुरुआती दिनों में, बल्कि युं कहें कि कड़ी नं - ६ में हमने आपको इस फ़िल्म का " रुलाके गया सपना मेरा " सुनवाया था, और इस फ़िल्म की जानकारी भी दी थी। आज इस युगल गीत के फ़िल्मांक

देखी ज़माने की यारी, बिछड़े सभी बारी बारी.....शब्द कैफी के और और दर्द गुरु दत्त का

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 548/2010/248 गु रु दत्त के जीवन की कहानी इन दिनों आप पढ़ रहे हैं और उनकी कुछ महत्वपूर्ण फ़िल्मों के गानें भी सुन रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' के चौथे खण्ड के अंतर्गत। कल हमने जाना कि गुरु दत्त साहब ने फ़िल्म 'प्यासा' की स्क्रिप्ट फ़िल्म के बनने से बहुत पहले, ४० के दशक में ही लिख ली थी। १० महीनों तक बेरोज़गार रहने के बाद गुरु दत्त को अमीय चक्रवर्ती की फ़िल्म 'गर्ल्स स्कूल' में बतौर सहायक निर्देशक काम करने का मौका मिला, और फिर १९५० में ज्ञान मुखर्जी के सहायक के रूप में फ़िल्म 'संग्राम' में। और आख़िरकार वह दिन आ ही गया जिसका उन्हें इंतज़ार था। १९५१ में उनके मित्र देव आनंद ने अपनी फ़िल्म 'बाज़ी' को निर्देशित करने के लिए गुरु दत्त को निमंत्रण दिया। फ़िल्म ने बेशुमार शोहरत हासिल की और गुरु दत्त का नाम रातों रात मशहूर हो गया। फ़िल्म 'बाज़ी' के ही मशहूर गीत "तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले" की रेकॊर्डिंग् पर ही गुरु दत्त की मुलाक़ात गायिका गीता रॊय से हुई, और दोनों