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रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (6)

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत के नए अंक में आपका स्वागत है. आज जो गीत मैं आपके लिए लेकर आया हूँ वो बहाना है अपने एक पसंदीदा संगीतकार के बारे आपसे कुछ गुफ्तगू करने का. "फिर छिडी रात बात फूलों की..." जी हाँ इस संगीतकार की धुनों में हम सब ने हमेशा ही पायी है ताजे फूलों सी ताजगी और खुशबू भी. १९५२-५३ के आस पास आया एक गीत -"शामे गम की कसम...". इस गीत में तबला और ढोलक आदि वाध्य यंत्रों के स्थान पर स्पेनिश गिटार और इबल बेस से रिदम लेना का पहली बार प्रयास किया गया था. और ये सफल प्रयोग किया था संगीतकार खय्याम ने. खय्याम साहब फिल्म इंडस्ट्री के उन चंद संगीतकारों में से हैं जिन्होंने गीतों में शब्दों को हमेशा अहमियत दी. उन्होंने ऐसे गीतकारों के साथ ही काम किया जिनका साहित्यिक पक्ष अधिक मजबूत रहा हो. आप खय्याम के संगीत कोष में शायद ही कोई ऐसा गीत पायेंगें जो किसी भी मायने में हल्का हो. फिल्म "शोला और शबनम" के दो गीत मुझे विशेष पसंद हैं - "जाने क्या ढूंढती रहती है ये ऑंखें मुझे में..." और " जीत ही लेंगें बाज़ी हम तुम ...". राज कपूर और माला

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (5)

पराग संकला से हमारे श्रोता परिचित हैं, आप गायिका गीता दत्त के बहुत बड़े मुरीद हैं और उन्हीं की याद में गीता दत्त डॉट कॉम के नाम से एक वेबसाइट भी चलते हैं. आवाज़ पर गीता दत्त के विविध गीतों पर एक लम्बी चर्चा वो पेश कर चुके हैं अपने आलेख " असली गीता दत्त की खोज में " के साथ. आज एक बार फिर रविवार सुबह की कॉफी का आनंद लें पराग संकला के साथ गीता दत्त जी के गाये कुछ दुर्लभ "प्रेम गीतों" को सुनकर. गीता दत्त और प्रेम गीतों की भाषा हिंदी चित्रपट संगीत में अलग अलग प्रकार के गीत बनाते हैं. लोरी, भजन, नृत्यगीत, हास्यगीत, कव्वाली, बालगीत और ग़ज़ल. इन सब गानों के बीच में एक मुख्य प्रकार जो हिंदी फिल्मों में हमेशा से अधिक मात्रा में रहता हैं वह हैं प्रणयगीत यानी कि प्रेम की भाषा को व्यक्त करने वाले मधुर गीत! फिल्म चाहे हास्यफिल्म हो, या भावुक या फिर वीररस से भरपूर या फिर सामजिक विषय पर बनी हो, मगर हर फिल्म में प्रेम गीत जरूर होते हैं. कई फिल्मों में तो छः सात प्रेमगीत हुआ करते हैं. चालीस के दशक में बनी फिल्मों से लेकर आज की फिल्मों तक लगभग हर फिल्म में कोई न कोई प्रणयगीत जरूर

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (3)

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीतों की सौगात लेकर हम फिर से हाज़िर हैं. आज आपके लिए कुछ ख़ास लेकर आये हैं हम सबके प्रिय पंकज सुबीर जी. हमें उम्मीद ही नहीं यकीन है कि पंकज जी का ये नायाब नजराना आप सब को खूब पसंद आएगा. असमिया संगीतकार और गायक श्री भूपेन हजारिका का गीत "ओ गंगा बहती हो क्‍यों" जब आया तो संगीत प्रेमियों के मानस में पैठता चला गया । हालंकि भूपेन दा काफी पहले से हिंदी फिल्‍मों में संगीत देते आ रहे हैं किन्‍तु उनको हिंदी संगीत प्रेमियों ने इस गाने के बाद हाथों हाथ लिया । यद्यपि 1974 में आई फिल्‍म "आरोप" जिसके निर्देशक श्री आत्‍माराम थे तथा जिसमें विनोद खन्‍ना और सायरा बानो मुख्‍य भूमिकाओं में थे उस फिल्‍म का एक गीत जो लता जी तथा किशोर दा ने गाया था वो काफी लोकप्रिय हुआ था । गीत था- "नैनों में दर्पण है दर्पण में कोई देखूं जिसे सुबहो शाम" । इस फिल्‍म के संगीतकार भी भूपेन दा ही थे । भूपेन दा और गुलजार साहब ने मिलकर जब "रुदाली" का गीत संगीत रचा तो धूम ही मच गई । रुदाली में इस जादुई जोड़ी के साथ त्रिवेणी के रूप में आकर मिली लता जी की आव

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (2)

रविवार सुबह की कॉफी के साथ कुछ और दुर्लभ गीत लेकर हम हाज़िर हैं. आज हम जिस फिल्म के गीत आपके लिए लेकर आये हैं वो कोई ज्यादा पुरानी नहीं है. अमृता प्रीतम के उपन्यास पर आधारित चन्द्र प्रकाश द्विवेदी निर्देशित २००३ में आयी एक बेहतरीन फिल्म है -"पिंजर". उर्मिला मातोंडकर और मनोज वाजपई ने अपने अभिनय से सजाया था फिल्म में पुरो और राशिद के किरदारों को. फिल्म का एक और बड़ा आकर्षण था उत्तम सिंह का संगीत. वैसे तो इस फिल्म के गीत बेहद मशहूर हुए विशेषकर "शाबा नि शाबा" और "मार उड़ारी". अमृता प्रीतम द्वारा उपन्यास में दर्ज गीत "चरखा चलाती माँ" और जगजीत सिंह का गाया "हाथ छूटे भी तो" भी काफी सराहा गया. यूँ तो आज हम आपको प्रीती उत्तम का गाया "चरखा चलाती माँ" और वाड्ली बंधुओं का "दर्द मारियाँ" भी सुन्वायेगें. पर विशेष रूप से दो गीत जो हम आपको सुनवा रहे हैं वो बहुत कम सुने गए हैं पर इतने बेहतरीन हैं कि उन्हें इस कड़ी में आपको सुनवाना लाजमी ही है. एक "वतन वें" और दूसरा है अमृता प्रीतम का लिखा "वारिस शाह नु..." अभी कुछ

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (1)

सुनिए १९४९ में आयी फिल्म "बाज़ार" से लता के कुछ दुर्लभ गीत रविवार की अलसाई सुबह का आनंद और बढ़ जाता है जब सुबह सुबह की कॉफी के साथ कुछ ऐसे दुर्लभ गीत सुनने को मिल जाएँ जिसे कहीं गाहे बगाहे सुना तो था, पर फिर कभी सुनने का मौका नहीं मिला - एक पुराना मौसम लौटा , यादों की पुरवाई भी, ऐसा तो कम ही होता है, वो भी हो तन्हाई भी... चलिए आपका परिचय कराएँ आवाज़ के एक संगीत प्रेमी से. अजय देशपांडे जी नागपुर महाराष्ट्र में रहते हैं, आवाज़ के नियमित श्रोता हैं और जबरदस्त संगीत प्रेमी हैं. लता मंगेशकर इनकी सबसे प्रिय गायिका है, और रोशन साहब को ये संगीतकारों में अव्व्वल मानते हैं. मानें या न मानें इनके पास १९३५ से लेकर १९६० तक के लगभग ८००० गीतों का संकलन उपलब्ध है, जाहिर है इनमें से अधिकतर लता जी के गाये हुए हैं. आवाज़ के श्रोताओं के साथ आज वो बंटाना चाहते हैं १९४९ में आई फिल्म "बाज़ार" से लता और रफी के गाये कुछ बेहद मधुर गीत. फिल्म "बाज़ार" में संगीत था श्याम सुंदर का, दरअसल १९४९ का वर्ष श्याम सुंदर के लिए सर्वश्रेष्ठ रहा, "बाज़ार" के आलावा "लाहौर" म