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मैंने रंग ली आज चुनरिया....मदन साहब के संगीत से शुरू हुई ओल्ड इस गोल्ड की परंपरा में एक विराम उन्हीं की एक और संगीत रचना पर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 410/2010/110 'प संद अपनी अपनी' शृंखला की आज है अंतिम कड़ी। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर युं तो इससे पहले भी पहेली प्रतियोगिता के विजेताओं को हमने अपनी फ़रमाइशी गानें सुनने और सुनवाने का मौका दिया है, लेकिन इस तरह से बिना किसी शर्त या प्रतियोगिता के फ़रमाइशी गीत सुनवाने का सिलसिला पहली बार हमने आयोजित किया है। आज इस पहले आयोजन की आख़िरी कड़ी है और इसमें हम सुनवा रहे हैं रश्मि प्रभा जी की फ़रमाइश पर फ़िल्म 'दुल्हन एक रात की' का लता मंगेशकर का गाया एक बड़ा ही सुंदर गीत "मैंने रंग ली आज चुनरिया सजना तेरे रंग में"। राजा मेहंदी अली ख़ान का गीत और मदन मोहन का संगीत। हमें ख़याल आया कि एक लम्बे समय से हमने 'ओल इज़ गोल्ड' पर मदन मोहन द्वारा स्वरबद्ध गीत नहीं सुनवाया है। तो लीजिए मदन जी के धुनों के शैदाईयों के लिए पेश है आज का यह गीत। युं तो चुनरिया रंगने की बात काफ़ी सारे गीतों में होती रही है, लेकिन इस गीत में जो मिठास है, जो सुरीलापन है, उसकी बात ही कुछ और है। इस फ़िल्म में रफ़ी साहब का गाया "एक हसीन शाम को दिल मेरा खो गया" गीत

जब छाए कहीं सावन की घटा....याद आते हैं तलत साहब और भी ज्यादा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 357/2010/57 द र्द भरे गीतों के हमदर्द तलत महमूद की मख़मली आवाज़ और कोमल स्वभाव से यही निचोड़ निकलता है कि फूल से भी चोट खाने वाला नाज़ुक दिल था उनका। और वैसी ही उनके गीत जो आज भी हमें सुकून देते हैं, हमारे दर्द के हमदर्द बनते हैं। तलत साहब का रहन सहन, उनका स्वभाव, उनके गीतों की ही तरह संजीदा और उनके दिल वैसा ही नाज़ुक था, बिल्कुल उनके नग़मों की तरह; सॊफ़्ट स्पोकेन नेचर वाली तलत साहब के अमर, लाजवाब गीतों और ग़ज़लों को आज भी चाहते हैं लोग। और यही वजह है कि इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हमने आयोजित की है उनकी गाई हुई ग़ज़लों पर आधारित एक ख़ास शृंखला 'दस महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़'। आज हम जिस ग़ज़ल को सुनवाने जा रहे हैं वह है सन् १९६० की एक फ़िल्म का। दोस्तों, ५० का दशक तलत महमूद का दशक था। या युं कहिए कि ५० के दशक मे तलत साहब सब से ज़्यादा सक्रीय भी रहे और सब से ज़्यादा उनके कामयाब गानें इस दशक में बनें। ६० के दशक के आते आते फ़िल्म संगीत में जो बदलाव आ रहे थे, गीतों से और फ़िल्मों से मासूमियत जिस तरह से कम होती जा रही थी, ऐसे में तलत साहब का क

वो देखो जला घर किसी का....लता- मदन मोहन टीम का एक बेहतरीन गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 139 'म दन मोहन विशेष' की पाँचवीं कड़ी के साथ हम हाज़िर हैं दोस्तों। मदन मोहन ने गीतकार राजा मेहंदी अली ख़ान के लिखे अनेक गीतों को संगीतबद्ध किया था। फ़िल्म 'अनपढ़' के एक गीत के बारे में ऐसा कहा जाता है कि इसकी धुन मदन मोहन ने अपने घर से 'रिकॉर्डिंग स्टुडियो' जाते वक़्त टैक्सी में बैठे बैठे केवल १० मिनट में बना लिया था। वह मन को छू लेनेवाली अमर रचना लता मंगेशकर की आवाज़ में थी "आप की नज़रों ने समझा प्यार के क़ाबिल मुझे"। इसी फ़िल्म में लता जी का गाया "जिया ले गयो जी मोरा साँवरिया" और "है इसी में प्यार की आबरू" गीत बहुत ज़्यादा मशहूर हुए थे। इनकी तुलना में लता जी का ही गाया एक ऐसा गीत भी था जो थोड़ा सा कम सुना गया, या फिर यूं कहिए कि जिसकी चर्चा कम हुई। वह गीत है "वह देखो जला घर किसी का, ये टूटे हैं किसके सितारे, वो क़िस्मत हँसीं और ऐसी हँसीं के रोने लगे ग़म के मारे"। अक्सर ऐसा देखा गया है फ़िल्मों में कि फ़िल्म के चंद मशहूर गीतों की चमक धमक से कुछ दूसरे गीत इस क़दर खो जाते हैं कि उनकी उत्कृष्टता लोग

जुल्फों की घटा लेकर सावन की परी आयी....मन्ना डे ने कहा आशा से "रेशमी रुमाल" देकर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 127 यूँ तो फ़िल्म जगत में एक से बढ़कर एक संगीतकार जोड़ियाँ रही हैं, जिनके नाम गिनवाने की कोई ज़रूरत नहीं है, लेकिन बहुत सारी ऐसी संगीतकार जोड़ियाँ भी हुई हैं जो सफलता और शोहरत में थोड़े से पीछे रह गये। कमचर्चित संगीतकार जोड़ियों की बात करें तो एक नाम बिपिन-बाबुल का ज़हन में आता है। स्वतंत्र रूप से संगीतकार जोड़ी बनने से पहले वे मदन मोहन साहब के सहायक हुआ करते थे। 1958 से वे बने कल्याणजी-आनंदजी के सहायक। बतौर स्वतंत्र संगीतकार बिपिन-बाबुल ने संगीत दिया 'सुल्ताना डाकू', 'बादल और बिजली', और '24 घंटे' जैसी फ़िल्मों में, जिनमें '24 घंटे' 'हिट' हुई थी। पर आगे चलकर बिपिन दत्त और बाबुल बोस की जोड़ी टूट गयी। बिपिन को कामयाबी नहीं मिली। लेकिन बाबुल को थोड़ी बहुत कामयाबी ज़रूर मिली। उनकी फ़िल्म '40 दिन' के गानें आज भी सदाबहार गीतों में शामिल किया जाता है। वैसे बाबुल की तमन्ना थी गायक बनने की। लखनऊ के 'मॊरिस कॊलेज' से तालीम लेकर दिल्ली और लाहौर के रेडियो से जुड़े रहे, लेकिन देश विभाजन के बाद उनहे भारत लौट आना पड़ा, तथ

आप के पहलू में आकर रो दिए... मदन मोहन के सुरों पर रफी साहब की दर्द भरी आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 120 स स्पेन्स फ़िल्मों की अगर हम बात करें तो ६० के दशक में अभिनेत्री साधना ने कम से कम तीन ऐसी मशहूर फ़िल्मों में अभिनय किया है जिनमें वो रहस्यात्मक किरदार में नज़र आती हैं। ये फ़िल्में हैं 'मेरा साया', 'वो कौन थी?' और 'अनीता'। ये फ़िल्में मक़बूल तो हुए ही, इनका संगीत भी सदाबहार रहा है। 'अनीता' में संगीत लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल' का था, जब कि बाक़ी के दो फ़िल्मों के संगीतकार थे मदन मोहन साहब। मदन साहब अपनी 'हौन्टिंग मेलडीज़' के लिये तो मशहूर थे ही। बस फिर क्या था, सस्पेन्स वाली फ़िल्मों में उनसे बेहतर और कौन संगीत दे सकता था भला! आज हम आप के लिये लेकर आये हैं फ़िल्म 'मेरा साया' से मोहम्मद रफ़ी साहब का गाया एक दर्दीला नग़मा जिसे लिखा है राजा मेहंदी अली ख़ान ने। वैसे तो इस फ़िल्म के दूसरे कई गीत बहुत ज़्यादा मशहूर हुए थे जैसे कि लताजी के गाये फ़िल्म का शीर्षक गीत "मेरा साया साथ होगा" और "नैनों में बदरा छाये", तथा आशाजी की मचलती आवाज़ में "झुमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में"। लेकिन रफ़ी

मेरा सुंदर सपना बीत गया....दर्द की पराकाष्ठा है गीता दत्त के इस गीत में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 67 आ ज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड' सुनकर आपका मन विकल हो उठेगा ऐसा हमारा ख्याल है, क्योंकि आज का गीत गीता राय की वेदना भरी आवाज़ में है और जब जब गीताजी ऐसे दर्दभरे गीत गाती थी तब जैसे अपने कलेजे को ग़म के समन्दर में डूबोकर रख देती थी। उनके गले से दर्द कुछ इस तरह से बाहर निकलकर आता था कि सुननेवाले को उसमें अपने दर्द की झलक मिलती थी। गीताजी के गाये इस तरह के बहुत सारे गानें हैं, लेकिन आज हमने जिस गीत को चुना है वह है फ़िल्म 'दो भाई' से "मेरा सुंदर सपना बीत गया"। यह गीताजी की पहली लोकप्रिय फ़िल्मी रचना थी। इससे पहले उन्होने संगीतकार हनुमान प्रसाद के लिये कुछ गीत गाये ज़रूर थे लेकिन उन्हे उतनी कामयाबी नहीं मिली। सचिन देव बर्मन के धुनो को पाकर जैसे गीताजी की आवाज़ खुलकर सामने आयी फ़िल्म 'दो भाई' में। यह फ़िल्म आयी थी सन् १९४७ में फ़िल्मिस्तान के बैनर तले और उस वक़्त गीताजी की उम्र थी केवल १६ वर्ष। और इसी फ़िल्म से गीतकार राजा मेहेन्दी अली ख़ान का भी फ़िल्म जगत में पदार्पण हुआ। इसी फ़िल्म में गीता राय का गाया एक और मशहूर गीत था "याद करो

तुम बिन जीवन कैसे बीता पूछो मेरे दिल से....मुकेश और एल पी का संगम

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 49 यूँ तो गीतकार राजा मेंहदी अली ख़ान का नाम लेते ही याद आ जाते हैं संगीतकार मदन मोहन. और क्यूँ ना आए, आखिर इन दोनो की जोडी ने फिल्म संगीत के ख़ज़ाने को एक से एक नायाब मोतियों से समृद्ध जो किया है. आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में हम राजा मेंहदी अली ख़ान के साथ मदन मोहन साहब की नहीं, बल्कि अगली पीढी की मशहूर संगीतकार जोडी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का बनाया हुया एक गीत सुनवा रहे हैं. राजा-जी और लक्ष्मी-प्यारे की जोडी ने बहुत कम एक साथ काम किया है. इस जोडी की सबसे चर्चित फिल्म का नाम है "अनिता". फिल्म के निर्माता शायद 1964 की फिल्म "वो कौन थी" से कुछ ज़्यादा ही प्रभावित हुए थे कि उसी 'स्टार कास्ट' यानी कि साधना और मनोज कुमार और वही गीतकार यानी राजा मेंहदी अली ख़ान को लेकर 1967 में "अनिता" फिल्म बनाने की सोची. बस मदन मोहन साहब की जगह पर आ गयी लक्ष्मी-प्यारे की जोडी. अनिता की कहानी भी कुछ रहस्यमय ही थी, पूरी फिल्म में नायिका के चरित्र पर एक रहस्य का पर्दा पड़ा रहता है. इस फिल्म में लता मंगेशकर ने कई खूबसूरत गीत गाए जो अलग अलग रंग के

है इसी में प्यार की आबरू....लता की आवाज़ में कसक दर्द की

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 40 क हते हैं कि प्यार अंधा होता है. दिमाग़ कहता है कि वो बेवफा है, लेकिन दिल है कि उनसे वफ़ा पे वफ़ा किये जा रहा है. शायद इसलिए कि दिल यह नहीं चाहता कि उसका प्यार बदनाम हो, बे-आबरू हो. "वो मेरे यादों से जाते नहीं हैं, नींद भी अब एक पल को आती नहीं है, गम की बातों में बस डूबा है दिल, बात कोई और दिल को भाती नहीं है". दर्द में कोई मौसम प्यारा नहीं होता, दिल हो प्यासा तो पानी से गुज़ारा नहीं होता, कोई देखे तो हमारी बेबसी, हम सभी के हो जाते हैं, पर कोई हमारा नहीं होता. मुझे गम भी उनका अज़ीज़ है, यह उन्ही की दी हुई चीज़ है. दिल तो वफ़ा पे वफ़ा किये जा रहा है लेकिन वो वफ़ा भी अगर रिश्ते को बचा ना सके तो फिर दिल क्या करे! कुछ ऐसी ही बात कही गयी है हमारे आज के 'ओल्ड इस गोल्ड' के गीत में. और इतनी खूबसूरत अंदाज़ में कहा गया है कि गीत एक सदाबहार नग्मा बनकर रह गया है. रजा मेहंदी अली खान, मदन मोहन, लता मंगेशकर, और एक फिल्मी ग़ज़ल, और क्या चाहिए दोस्तों, कमाल तो होना ही था! 1962 की फिल्म "अनपढ़" में ऐसे ही दो ग़ज़लें लताजी की थी जिन्हे पर्दे पर माला

जो हमने दास्तां अपनी सुनाई आप क्यों रोये...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 22 "मे रे लिए न अश्क बहा मैं नहीं तो क्या, है तेरे साथ मेरी वफ़ा मैं नहीं तो क्या, ज़िंदा रहेगा प्यार मेरा मैं नहीं तो क्या". दोस्तों, मदन मोहन द्वारा स्वरबद्ध इस गीत का एक एक शब्द जैसे उन्हीं के लिए लिखा गया हो. आज भले ही वो हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनका अमर संगीत युगों युगों तक सुननेवालों के दिलों पर राज करता रहेगा. आज की शाम मदन मोहन, लता मंगेशकर और राजा महेंदी अली ख़ान के नाम. सन् 1964 में बनी फिल्म "वो कौन थी" अपने गीत संगीत की वजह से कालजयी बन गयी. आज 45 साल बाद भी जब हम इस फिल्म के गीतों को सुनते हैं तो इनमें वही ताज़गी, वही असर पाते हैं. शायद यही ख़ासीयत थी फिल्म संगीत के उस सुनहरे दौर की. दोस्तों, आशा भोंसले की आवाज़ में "वो कौन थी" फिल्म का एक गीत हमने कुछ दिन पहले आपको सुनवाया है. आज सुनिए इसी फिल्म से लता मंगेशकर की आवाज़ में एक दर्द भरा नग्मा . 1958 की फिल्म "अदालत" में भी लताजी और मदन मोहन साहब ने एक इसी तरह का गीत बनाया था "यूँ हसरतों के दाग़ मोहब्बत में धो लिए". कुछ ऐसा ही ग़मज़दा अंदाज़ "व

शोख नज़र की बिजिलियाँ...दिल पे मेरे गिराए जा..

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 07 'ओल्ड इस गोल्ड' में आज गिरनेवाली है बिजली, यह बिजली आपके दिल पर गिरेगी और यह बिजली है किसी के शोख नज़र की. जी हाँ, "शोख नज़र की बिजलियाँ दिल पे मेरे गिराए जा". आशा भोसले की आवाज़ फिल्म "वो कौन थी" में. यूँ तो मदन मोहन की चेहेती रही हैं लता मंगेशकर, लेकिन समय समय पर उन्होने आशा भोसले से कुछ ऐसे गीत गवाए हैं जो केवल आशा भोंसले ही गा सकती थी, और यह गीत भी ऐसा ही एक गीत है. क्योंकि यह गीत फिल्म के 'हेरोईन' साधना पर नहीं, बल्कि 'वेंप' हेलेन पर फिल्माया जाना था, इसलिए आशा भोंसले की आवाज़ चुनी गयी जिसमें ज़रूरत थी एक मादकता की, एक नशीलेपन की, जो नायक को अपनी ओर सम्मोहित करे. और ऐसे गीतों में आशा-जी की आवाज़ किस क़दर निखरकर सामने आती है यह किसी को बताने की ज़रूरत नहीं. बस, फिर क्या था, आशा भोंसले ने इस गीत को इस खूबसूरती से गाया कि इस फिल्म के दूसरे 'हिट' गीतों के साथ साथ इस गीत ने भी सुन्नेवालों के दिलों में एक अलग ही जगह बना ली. राज खोंसला निर्देशित फिल्म "वो कौन थी" बनी थी सन 1964 में. राजा महेंदी अली

रुलाके गया सपना मेरा...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 06 दोस्तों, हम उम्मीद करते हैं कि आवाज़ पर 'ओल्ड इस गोल्ड' का यह जो सिलसिला हमने शुरू किया है, वो आपको पसंद आ रहा होगा, और आप इन गीतों और बातों का लुत्फ़ उठा रहे होंगे. आपको यह स्तंभ कैसा लग रहा है, आपकी क्या प्रतिक्रिया है, आपके क्या सुझाव हैं, हमें ज़रूर बताईएगा. आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में प्रस्तुत है एक बहुत ही मशहूर फिल्म का एक गीत. इस फिल्म के सभी के सभी गीत 'सूपर-डूपर हिट' रहे, और फिल्म भी बेहद कामयाब रही. हम बात कर रहे हैं सन 1967 में बनी फिल्म "जुवेल थीफ" की. नवकेतन के 'बॅनर' तले बनी इस फिल्म को निर्देशित किया था विजय आनंद ने, और मुख्य भूमिकाओं में थे अशोक कुमार, देव आनंद, वैजन्ती माला और तनूजा. एक तरफ 'सस्पेनस' से भरी रोमांचक कहानी, तो दूसरी तरफ मधुर गीत संगीत इस फिल्म के आकर्षण रहे. अगर हम यूँ कहे कि यह फिल्म संगीतकार सचिन देव बर्मन के सफलतम फिल्मों में से एक है तो शायद ग़लत नहीं होगा. इस फिल्म का हर एक गीत अपने आप में सदा बहार है जो आज भी अक्सर कहीं ना कहीं से गूंजते हुए सुनाई देते हैं. यूँ तो इस फिल्म के

आपको प्यार छुपाने की बुरी आदत है...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला (०१) आवाज़ की दुनिया के मेरे दोस्तों, आज से आवाज़ पर हम शुरू कर रहे हैं एक नया स्तंभ -"ओल्ड इस गोल्ड".यह एक ऐसा स्तंभ है जो सलाम करती है फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के उन बेशकीमती गीतों को जिनसे फ़िल्म संगीत संसार आज तक महका हुआ है. इस स्तंभ के अंतर्गत हम न केवल आपको उस गुज़रे दौर के लोकप्रिय गाने सुनवायेंगे, बल्कि उन गीतों की थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे. आज इस नए स्तंभ की पहली कड़ी में हमने जिस गीत को चुना है आपले साथ बाँटने के लिए, वो फ़िल्म "नीला आकाश" का है. ये फ़िल्म बनी थी १९६५ में. राजेंदर भाटिया द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्या कलाकार थे धर्मेन्द्र और माला सिन्हा.जहाँ तक इसके गीत संगीत का सवाल है, इस फ़िल्म के गाने लिखे रजा मेहंदी अली खान ने, और संगीतकार थे मदन मोहन. दोस्तों, आपको शायद ये बताने की जरुरत नही कि राजा मेहंदी अली खान और मदन मोहन की जोड़ी ने बहुत सारे खूबसूरत गीत हमें दिए हैं. बल्कि यूँ कहें कि राजेंदर कृष्ण के बाद मदन मोहन जिस गीतकार के सबसे ज्यादा गीत संगीतबद्ध किए, वो थे राजा मेहंदी अली खान. नीला आकाश के ज्यादातर गाने आश