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सिंदूर की होय लम्बी उमरिया...जगजीत और लता जी की पहली भेंट

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 772/2011/212 न नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में कल से हमने शुरु की है मशहूर ग़ज़ल गायक व संगीतकार स्वर्गीय जगजीत सिंह को श्रद्धांजली स्वरूप हमारी ख़ास शृंखला 'जहाँ तुम चले गए'। उनका जाना ग़ज़ल-जगत के लिए एक विराट क्षति है जिसकी कभी भरपाई नहीं हो सकती। स्वर-साम्राज्ञी लता मंगेशकर नें अपने शोक संदेश में एक निजी न्यूज़ चैनल को बताया, "इस बात का मुझे बहुत दुख है, बहुत ही ज़्यादा दुख है कि जगजीत जी आज हमारे बीच नहीं रहे। मैंने उनके साथ काम किया है, और एक ही रेकॉर्ड किया था, और वो उस वक़्त बहुत चला था। और मुझे वो सब बातें याद आती हैं कि कैसे उन्होंने वह गाना रेकॉर्ड किया था, कैसे वो मुझे सिखाते थे, क्या क्या बातें होती थीं, सब। पहले तो वो मुझे गानें पढ़ के सुनाये, ग़ज़लें जो थीं, फिर कहा कि जो पसन्द नहीं आती हैं, वो मत गाइए। मैंने कहा कि नहीं ऐसी बात नहीं है, सभी ग़ज़लें अच्छी हैं। और जब उन्होंने रिहर्सल्स शुरु किए तो एक चीज़ वो बताते थे कि ऐसा नहीं वैसा होना चाहिए, इस तरह से नहीं इस तरह से गाना चाहिए, मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे मैं एक नई सिंगर आई हू

माँ ही गंगा...जात्रागान शैली का ये गीत नीरज की कलम से

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 770/2011/210 पू र्वी और पुर्वोत्तर भारत के लोक-धुनों और शैलियों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'पुरवाई' की अन्तिम कड़ी में आप सभी का मैं सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ फिर एक बार स्वागत करता हूँ। दोस्तों, सिनेमा के आने से पहले मनोरंजन का एक मुख्य ज़रिया हुआ करता था नाट्य, जो अलग अलग प्रांतों में अलग अलग रूप में पेश होता था। नाट्य, जिसे ड्रामा या थिएटर आदि भी कहते हैं, की परम्परा कई शताब्दियों से चली आ रही है इस देश में, और इसमें अभिनय, काव्य और साहित्य के साथ साथ संगीत भी एक अहम भूमिका निभाती आई है। प्राचीन भारत नें संस्कृत नाटकों का स्वर्ण-युग देखा। उसके बाद ड्रामा का निरंतर विकास होता गया। जिस तरह से अलग अलग भाषाओं का जन्म हुआ और हर भाषा का अपने पड़ोसी प्रदेश के भाषा के साथ समानताएँ होती हैं, ठीक उसी प्रकार अलग अलग ड्रामा और नाट्य शैलियाँ भी विकसित हुईं एक दूसरे से थोड़ी समानताएँ और थोड़ी विविधताएँ लिए हुए। पूर्वोत्तर के आसाम राज्य में “ओजापाली” का चलन हुआ, तो बंगाल में "जात्रा-पाला" का, पंजाब में "स्वांग" तो

साजन की हो गयी गोरी...सुन्दर बाउल संगीत पर आधारित देवदास की अमर गाथा से ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 767/2011/207 'पु रवाई' शृंखला में इन दिनों आप आनन्द ले रहे हैं पूर्वी और उत्तरपूर्वी भारत के लोक संगीत पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी गीतों का अपने दोस्त सुजॉय चटर्जी और साथी सजीव सारथी के साथ। आज हम जिस लोक-शैली की चर्चा करने जा रहे हैं उसे बंगाल में बाउल के नाम से जाना जाता है। बाउल एक धार्मिक गोष्ठी भी है और संगीत की एक शैली भी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि बाउल में वैष्णव हिन्दू भी आते हैं और सूफ़ी मुसलमान भी। इस तरह से यह साम्प्रदायिक सदभाव का भी प्रतीक है। हालाँकि बाउल बंगाल की जनसंख्य का एक बहुत छोटा सा अंश है, पर बंगाल की संस्कृति में बाउल का महत्वपूर्ण योगदान है। सन् २००५ में बाउल शैली को UNESCO के 'Masterpieces of the Oral and Intangible Heritage of Humanity' की फ़ेहरिस्त में शामिल किया गया है। बाउल की शुरुआत कहाँ से और कब से हुई इसका सटीक पता नहीं चल पाया है, पर 'बाउल' शब्द बंगाली साहित्य में १५-वीं शताब्दी से ही पाया जाता है। बाउल संगीत एक प्रकार का लोक गीत है जिसमें हिन्दू भक्ति धारा और सूफ़ी संगीत, दोनों का प्रभाव है। बाउल गीतों में

सुन री पवन, पवन पुरवैया.. भटयाली संगीत की लहरों में बहाते बर्मन दा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 766/2011/206 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों का इस नए सप्ताह में हार्दिक स्वागत है। इन दिनों जारी है लघु शृंखला 'पुरवाई' जिसके अन्तर्गत आप आनन्द ले रहे हैं पूर्व और पुर्वोत्तर भारत के लोक और पारम्परिक धुनों पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी रचनाओं की। आज हम आपको लिए चलते हैं पूर्वी बंगाल, यानि कि वो जगह जिसका ज़्यादातर अंश आज बंगलादेश में पड़ता है। आपको बता दें कि पूर्वी बंगाल और पश्चिम बंगाल की संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान और गीत-संगीत में बहुत अन्तर है। असम और त्रिपुरा में भी पूर्वी बंगालियों का एक बड़ा समूह वास करता है। आज के इस कड़ी में हम पूर्वी बंगाल के बहुत प्रचलित लोक-गीत शैली पर आधारित गीत सुनवाने जा रहे हैं जिसे भटियाली लोक-गीत कहा जाता है। भटियाली मांझी गीत है जिसे नाविक भाटे के बहाव में गाते हैं। जी हाँ, ज्वार-भाटा वाला भाटा। क्योंकि भाटे में चप्पु चलाने की ज़रूरत नहीं पड़ती, इसलिए मांझी लोग गुनगुनाने लग पड़ते हैं। और इस "भाटा-संगीत" को ही भटियाली कहते हैं। मूलत: इस शैली का जन्म मीमेनसिंह ज़िले में हुआ था जहाँ मांझी ब्र

जब से तूने बंसी बजाई रे....भूपेन हजारिका का स्वरबद्ध एक मधुर गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 763/2011/203 पू र्वी और पुर्वोत्तर राज्यों के लोक धुनों पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी गीतों की लघु शृंखला 'पुरवाई' की तीसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। जैसा कि पहली कड़ी में हमने कहा था कि हमारे देश के हर राज्य के अन्दर भी कई अलग अलग प्रकार के लोक गीत पाये जाते हैं; इसमे असम राज्य कोई व्यतिक्रम नहीं है। कल की कड़ी में हमने बिहु का आनद लिया था, आज प्रस्तुत है असम की भक्ति गीतों की शैली में कम्पोज़ किया एक गीत। असम के नामघरों में जिस तरह का धार्मिक संगीत गाया जाता है, यह गीत उसी शैली का है। संगीतकार भूपेन हज़ारिका नें पहली बार इसका प्रयोग अपनी असमीया फ़िल्म 'मणिराम दीवान' के "हे माई जोख़ुआ" गीत में किया था, बाद में ७० के दशक में जब उन्हे हिन्दी फ़िल्म 'आरोप' में संगीत देने का सुयोग मिला, और एक भक्ति रचना उन्हें फ़िल्म के लिए कम्पोज़ करना था, तो इसी धुन का उन्होंने दुबारा इस्तमाल किया और गायिका लक्ष्मी शंकर से यह गीत गवाया जिसके बोल थे "जब से तूने बंसी बजाई रे, बैरन निन्दिया चुराई, मेरे ओ कन्हाई, नटखट कान्हा ओ हरजाई रे काहे पकड़ी

मैं अकेला अपनी धुन में मगन - बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी अमित खन्ना से एक खास मुलाक़ात

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 62 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! आज के इस शनिवार विशेषांक में हम आपकी भेंट करवाने जा रहे हैं एक ऐसे शख़्स से जो बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। एक गीतकार, फ़िल्म-निर्माता, निर्देशक, टी.वी प्रोग्राम प्रोड्युसर होने के साथ साथ इन दिनों वो रिलायन्स एन्टरटेनमेण्ट के चेयरमैन भी हैं। तो आइए मिलते हैं श्री अमित खन्ना से, दो अंकों की इस शृंखला में, जिसका नाम है 'मैं अकेला अपनी धुन में मगन'। आज प्रस्तुत है इसका पहला भाग। सुजॉय - अमित जी, बहुत बहुत स्वागत है आपका 'हिंद-युग्म' में। और बहुत बहुत शुक्रिया हमारे मंच पर पधारने के लिये, हमें अपना मूल्यवान समय देने के लिए। अमित जी - नमस्कार और धन्यवाद जो मुझे आपने याद किया! सुजॉय - सच पूछिये अमित जी तो मैं थोड़ा सा संशय में था कि आप मुझे कॉल करेंगे या नहीं, आपको याद रहेगा या नहीं। अमित जी - मैं कभी कुछ भूलता नहीं। सुजॉय - मैं अपने पाठकों को यह बताना चाहूँगा कि मेरी अमित जी से फ़ेसबूक पर मुलाकात होने पर जब मैंने उनसे साक्षात्कार के लिए आग्रह किया तो वो न

कान्हा आन पड़ी मैं तेरे द्वार.....निर्गुण भक्ति और लता

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 756/2011/196 न मस्कार दोस्तों. आज हम आ पहुंचे हैं लता जी को समर्पित ‘मेरी आवाज ही पहचान है....’ श्रृंखला की सातवीं कड़ी पर. सबसे पहले तो ऊँचाइयों पर पहुँचाना कठिन होता है और जब उसे हासिल कर लिया जाए तब वहाँ पर मजबूती के साथ टिके रहना उससे भी कठिन होता है. और वही लता जी के साथ हुआ. वो उस मुकाम पर पहुँची और उन पर कई आरोप लगाये गए. एक संगीन आरोप लगा ‘मोनोपोली’ का. आरोप लगा था कि लता जी के कहने पर म्यूजिक डायरेक्टर दूसरों को गाने का मौका ही नहीं देते. लता जी ही निर्णय करती हैं कि कौन म्यूजिक डायरेक्टर होगा, कितने गाने होंगे आदि आदि ... लता जी से जब पूछा गया था तो वो नाराज होकर बोलीं कि अगर मुझे ही तय करना होता कि म्यूजिक डायरेक्टर कौन होगा तो तब तो आधी से ज्यादा फिल्मों में मेरे भाई हृदयनाथ को म्यूजिक डायरेक्टर होना चाहिए था. इसके विपरीत कविता कृष्णमूर्ती ने एक साक्षात्कार में एक अनुभव शेअर किया था. १९८२ में कविता जी ने निर्माता राजकुमार कोहली की एक निर्माणाधीन फिल्म के लिए, बप्पी दा के संगीत निर्देशन में ‘डबिंग’ गायिका के तौर पर एक गाना गाया था, यह जानते हुए, कि बा

चंदा मामा आरे आवा...एक मधुर लोरी...अरे अरे सो मत जाईयेगा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 756/2011/196 सु रों की मल्लिका लता मंगेशकर पर आधारित श्रंखला ‘मेरी आवाज ही पहचान है....' की छठी कड़ी में मैं अमित तिवारी आप सभी गुणी श्रोताओं और पाठकों का स्वागत करता हूँ. लता जी का पसन्दीदा वाद्य है ‘बाँसुरी'. पंडित पन्नालाल घोष की बाँसुरी के लिए उन्होंने कहा था कि 'उनकी बाँसुरी बजती ही नहीं थी, बल्कि गाती थी. फिल्म बसंत बहार के गाने ‘मैं पिया तेरी तू माने या न माने’ में दो गायिकाएं हैं, मैं और पन्नाबाबू की बाँसुरी.' शहनाई उन्हें उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के अलावा किसी और की पसंद ही नहीं आयी. युसूफ भाई यानी कि दिलीप कुमार से लता जी की मुलाकात बड़े ही अजीब ढंग से हुई थी. एक बार अनिल बिस्वास और लता जी ‘फिल्मिस्तान स्टूडियो’ लोकल ट्रेन से जा रहे थे. यह वो समय था जब इन सितारों के पास गाड़ियां नहीं हुआ करती थीं और ट्रेनों में भीड़ भी नहीं हुआ करती थी. बांद्रा स्टेशन से दिलीप कुमार उसी डिब्बे में चढ़े. अनिल दा से दुआ सलाम हुआ. ये लोग आमने-सामने बैठे हुए थे तो अनिल दा ने कहा की युसूफ ये लता मंगेशकर है बहुत अच्छा गाती हैं. तो उन्होंने कहा कि कहाँ की है तो

आप यूँ फासलों से गुजरते रहे...रहस्य की वादियों में हुस्न की पुकार और लता

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 755/2011/195 ल ता जी के बारे में जितना लिखा जाये कम ही है. तो आज फिर से "मेरी आवाज ही पहचान है...." श्रृंखला में उनके बारे में कुछ और रोचक बातों को यहाँ पर प्रस्तुत करा जाए. एक बार एक रेडियो इंटरव्यू के दौरान हरीश जी ने लता जी से एक सवाल पूछा थे, " क्या आपको कभी ऐसा महसूस हुआ है, कि आपको अपनी योग्यता से ज्यादा मिला है, धन, ऐश्वर्य, ख्याति? इस विषय में कोई अपराध बोध? " लता जी बड़ी सरलता से बोलीं, " मैं इश्वर की आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे जो कुछ दिया है बहुत ज्यादा दिया है. मेरे से अच्छे गाने वाले और समझने वाले बहुत सारे लोग हैं पर जो कुछ शोहरत मुझे मिली है वह बहुत कम लोगों को मिलती है. मेरे से अच्छा गाने वाले, जैसे बड़े गुलाम अली खान साहब, या फिर अमीर खान साहब. सहगल साहब जैसा तो मैं कभी नहीं गा सकती. " मधुबाला से लेकर माधुरी दीक्षित और काजोल तक हिंदी सिनेमा के स्क्रीन पर शायद ही ऐसी कोई बड़ी तारिका रही हो जिसे लता मंगेशकर ने अपनी आवाज़ उधार न दी हो. बीस से अधिक भारतीय भाषाओं में लता ने 30 हज़ार से अधिक गाने गए, 1991 में ही गिनीस बुक

ए दिले नादान, आरज़ू क्या है....इसके सिवा कि लता जी को मिले लंबी उम्र और उनकी आवाज़ का साया साथ चले हमेशा हमारे

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 754/2011/194 ‘ओ ल्ड इज गोल्ड’ के सभी पाठकों की तरफ से लता जी को जन्मदिवस की बहुत बहुत शुभकामनाएँ. आज लता जी ने अपने जीवन के ८२ साल पूरे कर लिए हैं. हम सभी की कामना है कि वो दीर्घायु हों और हमेशा स्वस्थ रहें. लता जी के लिए अभिनेता-निर्माता ओम प्रकाश जी ने एक बार कहा था, " हे ईश्वर, दुनिया में जितने लोग हैं, उनकी जिंदगी से तू सिर्फ़ एक सेकंड कम कर दे और वह लताजी की जिन्दगी में जोड़ दे. " ऐसी प्रतिभा के लिए एक सेकंड तो क्या १ घंटा भी कम है. लता जी के ८० वें जन्मदिन पर आईबीएन7 के लिए जावेद अख्तर ने उनका इंटरव्यू लिया था. जावेद जी ने कहा था – " सदियों में एकाध बार ऐसा होता है कि कोई इंसान इतना बड़ा होता है कि उसकी तारीफ नहीं की जाती। उसकी तारीफ इसलिए नहीं की जाती क्योंकि उसकी तारीफ की नहीं जा सकती। ऐसे शब्द ही नहीं होते। उसकी तारीफ की जरूरत भी नहीं होती। कोई नहीं कहता कि शेक्सपियर बहुत अच्छा राइटर था। कोई नहीं कहता कि माइकल एंजेलो बहुत अच्छे स्टेच्यू बनाता था। कोई नहीं कहता कि बीथोवन बहुत अच्छा म्यूजिक बनाता था। शेक्सपियर नाम अपने आप ही तारीफ है। उसी त

ए री मैं तो प्रेम दीवानी....भक्ति, प्रेम और समर्पण के भावों से ओत प्रेत ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 753/2011/193 न मस्कार! आप सभी संगीत रसिकों का स्वागत है ‘आवाज’ की महफ़िल में. आज मैं हाजिर हूँ ‘ओल्ड इज गोल्ड’ में लता जी के ऊपर आधारित श्रृंखला ‘मेरी आवाज ही पहचान है....’ की तीसरी कड़ी लेकर. लता जी का बचपन ही शुरू हुआ संगीत के आँचल से. सबसे पहले उन्होंने अपने पिताजी को गाते हुए सुना. के. एल. सहगल की तो भक्त हैं लता जी. छह साल की उम्र में के.एल. सहगल की जो पहली फिल्म देखी थी वो थी ‘चण्डीदास’. फिल्म देख कर घर आयीं तो एलान कर दिया कि मैं तो बड़े होकर सहगल से ही शादी करूंगी. लता जी के गुरु उनके पिता मास्टर दीनानाथ मंगेशकर थे. एक बार लता जी से पूछा गया कि पिता से संगीत की शिक्षा के अलावा कोई ऐसी सीख मिली, जो मन में हमेशा के लिए अंकित हो गयी हो? उन्हें जवाब सोचना नहीं पड़ा और तुरंत उत्तर आया “ हाँ, उन्होंने मुझसे कहा था कि ‘अगर एक बार तुम्हे विश्वास हो जाये कि जो तुम कर रही हो वह सत्य है, सही है, बस...तो फिर कभी किसी से डरना नहीं. ’”. पिता अपनी पुत्री से बहुत प्यार करते थे. लता की माई (माँ) ने बताया था, मास्टर दीनानाथ जी, ने जिन्हें माई ‘मालक’ कहा करती थीं, अपनी

उड़ के पवन के रंग चलूंगी....उन्मुक्त भावनाओं की उड़ान और लता

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 752/2011/192 "मे री आवाज ही पहचान है...." की दूसरी कड़ी में मैं अमित तिवारी आप सब लोगों का तहेदिल से स्वागत करता हूँ. लता जी एक ऐसा नाम है जिसे किसी पहचान की जरूरत नहीं है. लता नाम लेते ही आँखों में जो सूरत आती है वो लता दीदी की होती है. आज कुछ और बातें उनके बारे में. लता जी अपने छोटे भाई और बहनों को छोड़ कर किसी को कभी भी 'तुम' नहीं कहतीं - चाहे वो उम्र में कितना ही छोटा क्यों न हो. सबको सम्मान देना आता है. बात है भी सही, अगर आप दूसरों को सम्मान दोगे तो आपको भी मिलेगा. लता जी की एक और खासियत थी कि वो अपनी रिकॉर्डिंग केवल तभी कैंसिल करती थीं जब उन्हें लगता था कि उनका गला गाने के साथ न्याय नहीं कर पायेगा. सुबह उठ कर, रियाज़ करते वक्त,जहाँ उनको अपनी आवाज उन्नीस-बीस लगी, वहीं उनका फोन आ जाता था कि 'आज तो माफ ही करें'. देवानन्द ने एक बार कहा था कि 'ऐसा आज तक नहीं सुना गया कि लता जी किसी बड़े म्यूजिक डायरेक्टर या बैनर के लिए, किसी नए प्रोड्यूसर या कम्पोजर की रिकॉर्डिंग केंसिल करी हो." यानी अपनी गुणवत्ता पर रत्ती-भर भी संदेह हो तो रि

"हर इन्सान को अपनी ज़िंदगी जीने का पूरा हक़ है..."- युवा अभिनेता युवराज पराशर

अभिनेता युवराज पराशर के पसन्द के ५ लता नम्बर्स ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 60 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का 'शनिवार विशेषांक' में। मैं, सुजॉय चटर्जी, हाज़िर हूँ फिर एक बार फिर एक साक्षात्कार के साथ। आज हम आपको मिलवा रहे हैं हाल में बनी फ़िल्म 'डोन्नो व्हाई न जाने क्यों' के नायक श्री युवराज पराशर से, जो बनाएंगे अपनी इस फ़िल्म के बारे में और साथ ही साथ हमें सुनवाएंगे लता जी के गाए हुए उनके पसन्दीदा पाँच गीत। आइए मिलते हैं युवा अभिनेता युवराज पराशर से। सुजॉय - नमस्कार युवराज, स्वागत है आपका 'हिन्द-युग्म' के 'आवाज़' मंच पर और यह है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का साप्ताहिक विशेषांक। युवराज - नमस्कार, और बहुत बहुत धन्यवाद आपका! सुजॉय - युवराज, क्योंकि लता जी के जनमदिवस के उपलक्ष्य पर इस सप्ताह का यह विशेषांक प्रस्तुत हो रहा है, और आपका भी लता जी से एक तरह का सम्बंध हुआ है आपकी फ़िल्म के ज़रिए, इसलिए बातचीत का सिलसिला भी मैं लता जी से ही शुरु करना चाहूँगा। सबसे पहले तो अपने पाठकों को वह तस्वीर दिखा दें जिसमें आप और कपिल

चली गोरी पी के मिलन को चली...राग भैरवी में पी को ढूंढती हेमन्त दा की आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 750/2011/190 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड’ पर चल रही श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की समापन कड़ी में, मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। इस श्रृंखला के आरम्भ में हमने आपसे स्पष्ट किया था कि शास्त्रीय संगीत से सम्बन्धित इस प्रकार की लघु श्रृंखलाओं का उद्देश्य पाठकों को कलाकार बनाना नहीं है, बल्कि संगीत का अच्छा श्रोता बनाना है। प्रायः लोग कहते मिल जाते हैं कि शास्त्रीय संगीत बहुत जटिल है और सिर के ऊपर से गुज़र जाता है। परन्तु यह जटिलता और क्लिष्टता तो प्रस्तुतकर्त्ता यानी कलाकार के लिए है, साधारण श्रोता के लिए नहीं। संगीत की थोड़ी प्रारम्भिक जानकारी पाकर भी आप अच्छे श्रोता बन सकते हैं। ऐसी श्रृंखलाएँ प्रस्तुत करने के पीछे हमारा यही उद्देश्य है। श्रृंखला की कल की कड़ी तक हमने संगीत के नौ थाटों और उनके आश्रय रागों का परिचय प्राप्त किया। आज हम ‘भैरवी’ थाट और राग के बारे में चर्चा करेंगे। परन्तु इससे पहले आइए, थाट और राग के अन्तर को समझने का प्रयास किया जाए। दरअसल थाट केवल ढाँचा है और राग एक व्यक्तित्व है। थाट-निर्माण के लिए सप्तक के

जागो रे जागो प्रभात आया...मन और जीवन के अंधेरों को प्रकाशित करता एक गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 749/2011/189 रा गदारी संगीत में प्रचलित थाट प्रणाली पर परिचयात्मक श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की नौवीं कड़ी में, मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आपका स्वागत करता हूँ। आज बारी है थाट ‘तोड़ी’ से परिचय प्राप्त करने की। श्रृंखला की अभी तक की कड़ियों में हमने उत्तर भारतीय संगीत में प्रचलित थाट प्रणाली को रेखांकित करने का प्रयास किया है। आज की कड़ी में हम दक्षिण भारतीय संगीत में प्रचलित प्राचीन थाट व्यवस्था पर चर्चा करेंगे। दक्षिण भारतीय संगीत पद्यति के विद्वान पण्डित व्यंकटमखी ने थाटों की संख्या निश्चित करने के लिए गणित को आधार बनाया और पूर्णरूप से गणना कर थाटों की कुल संख्या ७२ निर्धारित की। इनमें से उन्होने १९ व्यावहारिक थाटों का चयन किया। व्यंकटमखी की थाट संख्या को दक्षिण भारतीय संगीतज्ञों ने तो अपनाया, किन्तु उत्तर भारत के संगीत पर इसका विशेष प्रभाव नहीं हुआ। उत्तर भारतीय संगीत के विद्वान पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे ने रागों के वर्गीकरण के लिए १० थाट प्रणाली को अपनाया और रागों का वर्गीकरण किया, जो आज तक प्रचलित है। थाट का उद्देश्य मात्र राग के शुद्ध और