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आ री आजा, निन्दिया तू ले चल कहीं....बाल दिवस पर किशोर दा लाये एक मीठी लोरी बच्चों के लिए

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 787/2011/227 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी नियमित व अनियमित श्रोता-पाठकों को हमारा सप्रेम नमस्कार! आज १४ नवंबर है, भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरु का जन्मदिन, जिसे हम सब 'बाल-दिवस' के रूप में मनाते हैं। संयोग देखिए कि इन दिनों हम जिस शृंखला को प्रस्तुत कर रहे हैं, उसका भी बच्चों के साथ ही ज़्यादा ताल्लुख़ है। पुरुष गायकों द्वारा गाई हुई फ़िल्मी लोरियों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी' की सातवीं कड़ी में आज हम लेकर आये हैं किशोर कुमार की आवाज़ में फ़िल्म 'कुवारा बाप' की लोरी "आ री आजा, निन्दिया तू ले चल कहीं, उड़नखटोले में, दूर, दूर, दूर, यहाँ से दूर"। साथ में लता जी की आवाज़ भी शामिल है। जहाँ किशोर दा की आवाज़ सजी है महमूद पर, लता जी नें एक बालकलाकार का पार्श्वगायन किया है। फ़िल्म के संगीतकार थे राजेश रोशन और इस लोरी को लिखा था मजरूह सुल्तानपुरी। १९७४ में बनी 'कुंवारा बाप' के नायक थे महमूद। फ़िल्म के शीर्षक से ज़ाहिर है कि महमूद नें इसमें कुंवारे बाप की भू

लल्ला लल्ला लोरी....जब सुनाने की नौबत आये तो यही लोरी बरबस होंठों पे आये

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 786/2011/226 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक और नई सप्ताह के साथ हम उपस्थित हैं, मैं सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ, आप सभी का इस सुरीले सफ़र में फिर एक बार स्वागत करते हैं। आमतौर पर बच्चों के साथ माँ के रिश्ते को ज़्यादा अहमियत दी जाती है, फ़िल्मों में भी माँ और बच्चे के रिश्ते को ज़्यादा साकार किया गया है। पर कई फ़िल्में ऐसी भी बनीं जिनमें पिता-पुत्र या पिता-पुत्री के सम्बंध को पर्दे पर साकार किया गया। ऐसी कई फ़िल्मों में पिता द्वारा गाई लोरियाँ भी रखी गईं, हालाँकि संख्या में ये बहुत कम हैं। पर इन लोरियों के माध्यम से गीतकारों नें वो सब जज़्बात, वो सब मनोभाव भरें जो एक पिता के मन में होता है अपने बच्चे के लिए। ऐसी ही कुछ लाजवाब पुरुष लोरियों को लेकर इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में जारी है लघु शृंखला 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी', जिसमें आप दस लोरियाँ सुन रहे हैं दस अलग अलग गायकों के गाये हुए। अब तक आपनें चितलकर, तलत महमूद, हेमन्त कुमार, मन्ना डे और मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ें सुनी। और ये लोरियाँ केवल पाँच अलग गायक ही नहीं, बल्कि पाँच अल

आज कल में ढल गया....रफ़ी साहब की आवाज़ में लोरी का वात्सल्य

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 785/2011/225 न मस्कार! 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी' की पाँचवी कड़ी में आज आवाज़ रफ़ी साहब की। दोस्तों, रफ़ी साहब और लोरी का जब साथ-साथ ज़िक्र हो तो सबसे पहले जो दो गीत याद आते हैं वो हैं फ़िल्म 'ब्रह्मचारी' का "मैं गाऊँ तुम सो जाओ" और फ़िल्म 'बेटी-बेटे' का "आज कल में ढल गया दिन हुआ तमाम"। दोनों ही मास्टरपीसेस हैं अपनी अपनी जगह और मज़े की बात तो यह है कि दोनों ही शैलेन्द्र नें लिखे हैं और संगीत दिया है शंकर जयकिशन नें। बस इतना ज़रूर है कि 'ब्रह्मचारी' के गीत को व्यवसायिक कामयाबी ज़्यादा मिली, जबकि स्तर की बात करें तो 'बेटी-बेटे' का गीत ज़्यादा बेहतर लगता है। मैं बड़ा परेशान हो गया कि इन दोनों में से किस लोरी को चुना जाये, अन्त में "आज कल में ढल गया" के पक्ष में ही मन बना लिया। इस लोरी की सब से ख़ास बात यह है कि इसमें रफ़ी साहब नें हर एक शब्द में जान डाल दी है, आत्मा डाल दी है। और एस.जे. के ऑरकेस्ट्रेशन की भी क्या तारीफ़ करें! और शैलेन्द्र का काव्य, उफ़! गायक, गीतकार, और संगीतकार, तीनों के टीमवर

सो जा तू मेरे राजदुलारे सो जा...लोरी की जिद करते बच्चे पिता को भी माँ बना छोड़ते हैं

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 782/2011/222 'चं दन का पलना, रेशम की डोरी' - 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में कल से हमने शुरु की है पुरुष गायकों द्वारा गाई हुई फ़िल्मी लोरियों पर आधारित यह लघु शृंखला। लोरी, जिसे अंग्रेज़ी में ललाबाई (lullaby) कहते हैं। आइए इस 'ललाबाई' शब्द के उत्स को समझने की कोशिश करें। सन् १०७२ में टर्कीश लेखक महमूद अल-कशगरी नें अपनी किताब 'दीवानूल-लुगत अल-तुर्क' में टर्कीश लोरियों का उल्लेख किया है जिन्हें 'बालुबालु' कहा जाता है। ऐसी धारणा है कि 'बालुबालु' शब्द 'लिलिथ-बाई' (लिलिथ का अर्थ है अल्विदा) शब्द से आया है, जिसे 'लिलिथ-आबी' भी कहते हैं। जिउविश (Jewish) परम्परा में लिलिथ नाम का एक दानव था जो रात को आकर बच्चों के प्राण ले जाता था। लिलिथ से बच्चों को बचाने के लिए जिउविश लोग अपने घर के दीवार पर ताबीज़ टांग देते थे जिस पर लिखा होता था 'लिलिथ-आबी', यानि 'लिलिथ-बाई', यानि 'लिलिथ-अल्विदा'। इसी से अनुमान लगाया जाता है कि अंग्रेज़ी शब्द 'ललाबाई' भी 'लिलिथ-बाई' से ही आया होगा। और शायद य

धीरे से आजा री अँखियन में...सी रामचंद्र रचित एक कालजयी लोरी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 781/2011/221 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी रसिक श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार! दोस्तों, ज़िन्दगी की शायद सबसे आनन्ददायक अनुभूति होती है माँ-बाप बनना। यह एक ऐसी ख़ुशी है जिसका शब्दों में बयान नहीं हो सकती। ईश्वर की परम कृपा से मुझे भी पिछले दिनों पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस नन्हे के आने से जैसे ज़िन्दगी की धारा ही बदल गई। रात-रात जाग कर बच्चे को सुलाना कुछ और ही आनन्द प्रदान करती है। पुराने ज़माने में मायें लोरियाँ गा कर अपने बच्चों को सुलाती थीं, पर अब यह प्रथा केवल माओं तक सीमित नहीं रही। पिता भी समान रूप से घर के काम-काज में योगदान देते हुए बच्चों को सुलाने तक में अपना योगदान देते हैं। दोस्तों, अब तक लोरियों की तरफ़ मेरा ज़्यादा ध्यान नहीं जाता था, पर अब तो जैसे रातों को लोरियाँ याद कर कर गाने को जी चाहता है। इसी से मुझे ख़याल आया कि क्यों न 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में एक ऐसी शृंखला चलाई जाए जिसमें पुरुष गायकों द्वारा गाई हुई लोरियों को शामिल किए जाएँ। गायिकाओं द्वारा गाई लोरियों की तो फ़िल्मों में कोई कमी नहीं है, पर गायकों की ल

ये तेरा घर ये मेरा घर....आम आदमी की संकल्पनाओं को शब्द दिए जावेद अख्तर ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 779/2011/219 ज गजीत सिंह को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'जहाँ तुम चले गए' में एक बार फिर से मैं, सुजॉय चटर्जी, आपका स्वागत करता हूँ। कल की कड़ी में हमनें आपको जगजीत और चित्रा सिंह के कुछ ऐल्बमों के बारे में बताया। उनके बाद जगजीत जी के कई एकल ऐल्बम आये जिनमें शामिल थे Hope, In Search, Insight, Mirage, Visions, कहकशाँ, Love Is Blind, चिराग, और सजदा। मिर्ज़ा ग़ालिब, फ़िराक़ गोरखपुरी, कतील शिफ़ई, शाहीद कबीर, अमीर मीनाई, कफ़ील आज़ेर, सुदर्शन फ़ाकिर, निदा फ़ाज़ली, ज़का सिद्दीक़ी, नाज़िर बकरी, फ़ैज़ रतलामी और राजेश रेड्डी जैसे शायरों के ग़ज़लों को उन्होंने अपनी आवाज़ दी। जगजीत जी के शुरुआती ग़ज़लें जहाँ हल्के-फुल्के और ख़ुशमिज़ाजी हुआ करते थे, बाद के सालों में उन्होंने संजीदे ग़ज़लें ज़्यादा गाई, शायद अपनी ज़िन्दगी के अनुभवों का यह असर था। ऐसे ऐल्बमों में शामिल थे Face To Face, आईना, Cry For Cry. जगजीत जी के ज़्यादातर ऐल्बमों के नाम अंग्रेज़ी होते रहे, और कईयों में उर्दू शब्दों का प्रयोग हुआ जैसे कि 'सजदा', 'सहर', 'मुन्तज़िर', 'मारासिम' और &

बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए...पारंपरिक बोलों पर जगजीत चित्रा के स्वरों की महक

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 778/2011/218 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों का स्वागत है इस स्तंभ में जारी शृंखला 'जहाँ तुम चले गए' की आठवीं कड़ी में। आपको याद दिला दें कि यह शृंखला समर्पित है ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह को जिनका हाल में निधन हो गया। ७० के दशक में ग़ज़ल गायकी पर जिन कलाकारों का दबदबा था वो थे नूरजहाँ, मल्लिका पुखराज, बेगम अख़्तर, तलत महमूद, और महदी हसन। इन महारथियों के होने के बावजूद जगजीत सिंह नें अपनी पहचान बना ही ली। १९७६ में उनका पहला एल.पी रेकॉर्ड बाज़ार में आया 'The Unforgetables' के शीर्षक से। इस ऐल्बम की ख़ास बात यह थी कि उन दिनों ग़ज़ल गायकी शास्त्रीय संगीत आधारित हुआ करता था, पर जगजीत सिंह नें हल्के-फुल्के अंदाज़ में ग़ज़लों को गाया और बहुत लोकप्रिय हुईं ये ग़ज़लें। ग़ज़ल के रेकॉर्डों की बिक्री के सारे रेकॉर्ड तोड़ दिए उनकी गाई ग़ज़लों नें। १९६७ में जगजीत सिंह की मुलाक़ात चित्रा से हुई थी जो ख़ुद भी एक गायिका थीं। दो साल बाद दोनों नें शादी कर ली और उनकी यह जोड़ी पहली पति-पत्नी की जोड़ी थी जो गायक-गायिका के रूप में साथ में पर्फ़ॉर्म किया करते। ग़ज़ल जगत को समृद्ध करने

तेरे गीतों की मैं दीवानी ओ दिलबरजानी...फिल्म संगीत की शोखियों से भी वाकिफ़ थे जगजीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 774/2011/214 न नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक और कड़ी में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। दोस्तों, चारों तरफ़ दीवाली की धूम है, ख़ुशियों भरा आलम है, पर इस बार दीवाली मनाने को जी नहीं करता। ग़ज़लों के शहदाई ग़मगीन हैं ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह के आकस्मिक निधन से। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों जारी है स्वर्गीय जगजीत सिंह को श्रद्धांजली स्वरूप उन्हें समर्पित लघु शृंखला 'जहाँ तुम चले गए'। इसमें हम न केवल उनके गाये फ़िल्मी गीत सुनवा रहे हैं, बल्कि ज़्यादा से ज़्यादा कोशिश यही है कि उनके द्वारा स्वरबद्ध फ़िल्मों के गीत शामिल किए जाएँ। आज हमनें जिस गीत को चुना है, उसे जगजीत सिंह नें स्वरबद्ध किया है और गाया है आशा भोसले नें। गीत के बारे में बताने से पहले ये रहा आशा जी का शोक संदेश - "जगजीत जी की ग़ज़लें मन को शान्ति देती है, उनकी ग़ज़लों को सुनना एक सूदिंग् एक्स्पीरियन्स होता है। अगर किसी को दैनन्दिन तनाव से बाहर निकलना चाहता है तो सबसे अच्छा साधन है जगजीत सिंह का कोई रेकॉर्ड बजाना। मुझे चित्रा के लिए बहुत अफ़सोस है। उन्होंने पहले अपने बेटे को ख

तुम इतना जो मुस्कुरा रही हो....जब कैफी के सवालों को स्वरों में साकार किया जगजीत ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 770/2011/210 न मस्कार! श्रोता-मित्रों, गत १० अक्टूबर को काल के क्रूर हाथों नें हमसे छीन लिया एक बेमिसाल फ़नकार को। ये वो फ़नकार रहे जिनकी मख़मली आवाज़ नें ग़ज़ल गायकी को न केवल एक नया आयाम दिया, बल्कि छोटे, बड़े, बूढ़े, हर पीढ़ी के चहेते ग़ज़ल गायक बन कर उभरे। ग़ज़ल-सम्राट जगजीत सिंह अब हमारे बीच नहीं रहे। ब्रेन-हैमरेज की वजह से उन्हें २३ सितम्बर को मुंबई के लीलावती अस्पताल में भर्ती कराया गया था। १८ दिनों तक ज़िन्दगी और मौत के बीच लड़ाई चली और आख़िर में मौत हावी हो गया, और १० अक्टूबर सुबह ८:१० बजे जगजीत जी इस फ़ानी दुनिया को हमेशा हमेशा के लिए अलविदा कह गए। ऐसा लगा जैसे उन्हीं का गाया वह गीत उन पर लागू हो गया कि "चिट्ठी न कोई संदेस, जाने वह कौन सा देस, जहाँ तुम चले गए"। पर जीवितावस्था में जगजीत जी जो काम कर गए हैं, वो उन्हें अमर बना दिया है। जब जब ग़ज़ल गायकी की बात चलेगी, जब जब ग़ज़लों का ज़िक्र छिड़ेगा, तब तब जगजीत सिंह का नाम सम्मान से लिया जाएगा। स्वर्गीय जगजीत सिंह को 'आवाज़' परिवार की तरफ़ से श्रद्धांजली स्वरूप आज से हम 'ओल्ड इज़ गोल

श्याम रंग रंगा रे...येसुदास के पावन स्वरों से महका एक गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 769/2011/209 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! लघु शृंखला 'पुरवाई' की नवी कड़ी में आज हम लेकर आये हैं बंगाल के कीर्तन और श्यामा संगीत पर आधारित एक गीत। हर राज्य का अपना भक्ति-संगीत का स्वरूप होता है। जैसे कि असम के भक्ति-संगीत पर आधारित एक गीत इसी शृंखला में हमने सुनवाया था, वैसे ही बंगाल में भी कई तरह के भक्ति गीतों की लोकप्रियता है जिनमें कीर्तन शैली और श्यामा संगीत का काफ़ी नाम है। श्यामा संगीत की बात करें तो ये भक्ति रचनाएँ माँ काली को समर्पित रचनाएँ होती हैं ('श्यामा' शब्द काली माता के लिए प्रयोग होता है), और इन्हें शक्तिगीति भी कहते हैं। और क्योंकि बंगाल में माँ काली को लोग बहुत मानते हैं, इसलिए श्यामा-संगीत भी ख़ूब लोकप्रिय है। श्यामा संगीत इसलिए भी लोकप्रिय है क्योंकि इसमें माँ और उसके बच्चे के रिश्ते की बातें होती हैं। साधारण पूजा-पाठ के नियमों से परे होता है श्यामा संगीत। १२-वीं और १३-वीं शताब्दी में जब शक्तिवाद बंगाल में पनपने लगी, तब कई कवि और लेखक प्रेरीत हुए माँ काली पर गीत और कविताएँ लिखने के लिए। १५८९ में मुकुन्दरामा,

धितंग धितंग बोले, मन तेरे लिए डोले....सलिल दा की ताल पर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 768/2011/208 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनो जारी लघु शृंखला 'पुरवाई' की आठवीं कड़ी में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। आज हम आपके लिए लेकर आये हैं बंगाल की एक लोकगाथा, या रूपकथा (fairy-tale) भी कह सकते हैं। इस कहानी का शीर्षक है 'सात भाई चम्पा और एक बहन पारुल'। चम्पा और पारुल बंगाल में पाये जाने वाले पेड़ हैं। बहुत समय पहले सुन्दरपुर में एक राजा अपनी सात रानियों के साथ रहता था। वह राजा बहुत ही नेक और साहसी था और इमानदारी को हर चीज़ से उपर रखता था। इसलिए प्रजा भी उन्हें बहुत प्यार करती थी। पर उनके पहली छह रानियाँ बहुत ही स्वार्थी और क्रूर थीं और छोटी रानी से जलती थीं क्योंकि वह राजा की प्यारी थी। राजा के मन में बस एक दुख था कि उनका कोई सन्तान नहीं था। किसी भी रानी से उन्हें सन्तान प्राप्ति नहीं हुई। जैसे जैसे दिन गुज़रते गए, राजा एक सन्तान की आस में बेचैन होते गए। जब एक दिन उन्हें पता चला कि छोटी रानी गर्भवती है, तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। राजा नें एक दिन छोटी रानी को सोने का एक घण्टा के साथ सोने की एक चेन बांध कर दिया और कहा कि जैसे ही

संग मेरे निकले थे साजन....आज लीजिए नेपाली लोक धुन से प्रेरित ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 765/2011/205 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में पूर्वी और उत्तर-पूर्वी भारत के लोक धुनों पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी रचनाओं की चल रही शृंखला 'पुरवाई' में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। असम, सिक्किम और उत्तर बंगाल में एक बड़ा समुदाय नेपालियों का भी है। मूलत: नेपाल से ताल्लुख़ रखने वाले ये लोग बहुत समय पहले इन अंचलों में आ बसे थे और अब ये भारत के ही नागरिक हैं और भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग भी। नेपाली लोक-गीत इतने मधुर होते हैं कि तनाव भरी ज़िन्दगी जी रहे लोग अगर इन्हें सुनें तो जैसे मन-मस्तिष्क ताज़गी से भर जाता है। पहाड़ों की मन्द-मन्द शीतल बयार जैसे इन गीतों के साथ-साथ चलने लग जाती है। जितने भी भारत के पहाड़ी अंचल हैं, उनमें जो लोक-संगीत की परम्परा है, उनमें नेपाली लोक-संगीत एक बेहद महत्वपूर्ण स्थान रखती है। और शायद इसी वजह से हमारी हिन्दी फ़िल्मों में भी कई बार नेपाली लोक धुनों का गीतों में इस्तमाल किया गया है। सलिल चौधरी एक ऐसे संगीतकार हुए जिन्होंने असम और पहाड़ी संगीत का ख़ूब इस्तमाल किया जिनमें नेपाली लोक धुनें भी शामिल थीं। इसका सबसे महत्वपूर्ण उ

जाने क्या है जी डरता है...असम के चाय के बागानों से आती एक हौन्टिंग पुकार

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 764/2011/204 अ सम के लोक-संगीत की बात चल रही हो और चाय बागानों के संगीत की चर्चा न हो, यह सम्भव नहीं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और स्वागत है शृंखला 'पुरवाई' में जिसमें इन दिनों आप पूर्व और उत्तर-पूर्व भारत के लोक धुनों पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी गीत सुन रहे हैं। चाय बागानों की अपनी अलग संस्कृति होती है, अपना अलग रहन-सहन, गीत-संगीत होता है। दरअसल इन चाय बागानों में काम करने वाले मज़दूर असम, बंगाल, बिहार और नेपाल के रहने वाले हैं और इन सब की भाषाओं के मिश्रण से एक नई भाषा का विकास हुआ जिसे चाय बागान की भाषा कहा जाता है। यह न तो असमीया है, न ही बंगला, न नेपाली है और न ही हिन्दी। इन चारों भाषाओं की खिचड़ी लगती है सुनने में, पर इसका स्वाद जो है वह खिचड़ी जैसा ही स्वादिष्ट है। यहाँ का संगीत भी बेहद मधुर और कर्णप्रिय होता है। असम के चाय बागानों में झुमुर नृत्य का चलन है। यह नृत्य लड़कों और लड़कियों द्वारा एक साथ किया जाता है, और कभी-कभी केवल लड़कियाँ करती हैं झुमुर नृत्य। इस नृत्य में पाँव के स्टेप्स का बहुत महत्व होता है, एक क़दम ग़लत पड़ा और नृत्य बिग

फूले बन बगिया, खिली कली कली....बिहु रंग रंगा ये सुरीला गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 762/2011/202 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है आप सभी का इस सुरीली महफ़िल में। कल से हमने शुरु की है पूर्वी और पुर्वोत्तर भारत के लोक गीतों पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी गीतों से सजी लघु शृंखला 'पुरवाई'। कल पहली कड़ी में आपनें सुनी अनिल बिस्वास के संगीत में मेघालय के खासी जनजाति के एक लोक धुन पर आधारित मीना कपूर की गाई फ़िल्म 'राही' की एक लोरी। आज जो गीत हम लेकर आये हैं उसके संगीतकार भी अनिल बिस्वास ही हैं और गायिका भी मीना कपूर ही हैं। पर साथ में मन्ना डे की आवाज़ भी शामिल है। पर यह गीत किसी खासी लोक धुन पर नहीं बल्कि असम की सबसे ज़्यादा लोकप्रिय लोक-गीत 'बिहु' पर आधारित है। बिहु में गीत, संगीत और नृत्य, तीनों की समान रूप से प्रधानता होती है। इनमें से कोई भी एक अगर कमज़ोर पड़ जाए, तो बात नहीं बनती। बिहु असम का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार भी है और बिहु गीत व बिहु नृत्य इस त्योहार का प्रतीक स्वरूप है। 'बिहु' शब्द 'दिमसा कछारी' जनजाति के भाषा से आया है। ये लोग मुख्यत: कृषि प्रधान होते हैं और ये ब्र

चाँद सो गया, तारे सो गए....मधुर लोरी में पुरवैया की महक लाये अनिल दा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 761/2011/201 ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है आप सभी का इस सुरीले सफ़र में। और इस सुरीले सफ़र के हमसफ़र, मैं, सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ और आप सभी को साथ लेकर फिर से चल पड़ा हूँ एक और नई शृंखला के साथ। दोस्तों, किसी भी देश में जितने भी प्रकार के संगीत पाये जाते हैं, उनमें से सबसे ज़्यादा लोकप्रिय संगीत होता है वहाँ का लोक-संगीत। जैसा कि नाम में ही "लोक" शब्द का प्रयोग है, यह है ही आम लोगों का संगीत, सर्वसाधारण का संगीत। लोक-संगीत एक ऐसी धारा है संगीत की जिसे गाने के लिए न तो किसी संगीत शिक्षा की ज़रूरत पड़ती है और न ही इसमें सुरों या तकनीकी बातों को ध्यान में रखना पड़ता है। यह तो दिल से निकलने वाला संगीत है जो सदियों से लोगों की ज़ुबाँ से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती चली आई है। हमारे देश में पाये जाने वाला लोक-संगीत यहाँ की अन्य सब चीज़ों की तरह ही विविध है, विस्तृत है, विशाल है। यहाँ न केवल हर राज्य का अपना अलग लोक-संगीत है, बल्कि एक राज्य के अन्दर भी कई कई अलग तरह के लोक-संगीत पाये जाते हैं। आज

निंदिया से जागी बहार....और लता जी के पावन स्वरों से जागा संसार

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 760/2011/200 न मस्कार दोस्तों!! आज हम आ पहुंचे हैं लता जी पर आधारित श्रृंखला ‘मेरी आवाज ही पहचान है....’ की अंतिम कड़ी पर. लता जी ने हजारों गाने गाये और उनमें से १० गाने चुन कर प्रस्तुत करना बड़ा ही मुश्किल है. मजे की बात तो यह है कि हमने आपने ये सारे गाने कई बार सुने हैं पर हमेशा इन गानों में ताजगी झलकती है. आप इन गानों को सुन कर बोर नहीं हो सकते. बेमिसाल और सर्वदा शीर्ष पर रहने के बावजूद लता ने बेहतरीन गायन के लिए रियाज़ के नियम का हमेशा पालन किया, उनके साथ काम करने वाले हर संगीतकार ने यही कहा कि वे गाने में चार चाँद लगाने के लिए हमेशा कड़ी मेहनत करती रहीं. लता जी के लिए संगीत केवल व्यवसाय नहीं है. उनकी जीवन शैली में ही एक प्रकार का संगीत है. लता जी ने अपना संपूर्ण जीवन संगीत को समर्पित कर दिया. संगीत ही उनके जीवन की सबसे बडी़ पूंजी है. आज के युग में जब संगीत के नाम पर फूहड़ता और अश्लीलता परोसी जा रही है और लोकप्रियता के लिए गायक हर परिस्थिति से समझौता करने को तैयार है, हमारे लिए लता जी एक प्रेरणा-ज्योति की तरह हैं जो संगीत के अंधकारपूर्ण भविष्य को देदीप्यमान

मिला है किसी का झुमका....नटखट बोल शैलेन्द्र के और चहकती आवाज़ लता की

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 758/2011/198 ‘आ वाज’ के सभी पाठकों और श्रोताओं को अमित तिवारी का नमस्कार. लता जी का कायल हर संगीतकार था. मदन मोहन ने एक बार कहा था कि मैं इतनी मुश्किल धुनें बनाता हूँ कि लता के सिवा कोई और इन्हें नहीं गा सकता. एक बार फिल्म उद्योग के साजिंदों की हड़ताल हुई थी तब संगीतकारों की मीटिंग में सचिन देव बर्मन कई बार पूछ चुके थे कि "भाई लोता गायेगा न?" साथी संगीतकार कहते "हाँ दादा", तो दादा यह कह कर फिर चुप हो जाते, "तो फिर हम ‘सेफ’ हैं." लता जी की एक सबसे बड़ी खासियत है उनका दृढ निश्चय. कुछ लोग उन्हें इसके लिए अक्खड़ मानते हैं. उनके सिद्धांतों से उन्हें कोई नहीं डिगा सकता. उन्होंने पहले से ही तय कर रखा था कि फूहड़ व अश्लील शब्दों के प्रयोग वाले गीत वे नहीं गाएंगी. राजकपूर द्वारा निर्देशित फिल्म ‘संगम’ का गीत ‘मैं क्या करूं राम मुझे बुढ्ढा मिल गया’, जैसे गाने को वे आज भी अपनी भारी भूल मानती हैं. उन्होंने अपने कॅरियर में केवल तीन कैबरे गीत गाए. ये तीन कैबरे गीत थे ‘मेरा नाम रीटा क्रिस्टीना’ (फिल्म-अप्रैल फूल, 1964), ‘मेरा नाम है जमीला’-( फिल

रातों को जब नींद उड़ जाए....सलिल दा के संगीत की मासूमियत और लता

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 757/2011/197 न मस्कार साथियों, लता जी अपने आप में एक ऐसी किताब हैं जिसको जितना भी पढ़ो कम ही है. गाना चाहे कैसा भी हो अगर उनकी आवाज आ जाए तो क्या कहना? गाने में शक्कर अपने आप घुल जाती है. ओ.पी.नय्यर को छोड़कर लता मंगेशकर ने हर बड़े संगीतकार के साथ काम किया, मदनमोहन की ग़ज़लें और सी रामचंद्र के भजन लोगों के मन-मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ चुके हैं. जितना भी आप सुनें आपका मन नही भरेगा. ओ.पी.नय्यर साहब के साथ लता जी ने कभी काम नहीं करा.एक बार लता जी ने हरीश भिमानी जी से कहा " आप शायद जानते होंगे, कि मैंने नय्यर साहब के लिए गीत क्यों नहीं गाये! ". हरीश जी ने कहा कि मैंने सुना है कि बहुत पहले, नय्यर साहब के शुरुआत के दिनों में, फिल्म सेन्टर में एक रिकॉर्डिंग करते समय आप "सिंगर्स बूथ" में गा रही थीं और वह 'मिक्सर' पर रिकॉर्डिस्ट और निर्देशक के साथ थे और आपने 'इन्टरकोम' पर उन्हें कुछ अपशब्द कहते हुए सुना और वहीँ के वहीं हेडफोन्स उतार कर स्टूडियो से सीधे घर चल दीं, किसी को बताये बगैर. बस फिर उनके लिए कभी गाया ही नहीं. " अच्छा...? &q

ये रातें ये मौसम, ये हँसना हँसाना...जब लता ने दी श्रद्धाजन्ली पंकज मालिक को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 751/2011/191 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड’ के सभी श्रोता-पाठकों का मैं, सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ हार्दिक स्वागत करता हूँ। श्री कृष्णमोहन मिश्र द्वारा प्रस्तुत पिछली शृंखला के बाद आज से हम अपनी १०००-वें अंक की यात्रा का अंतिम चौथाई भाग शुरु कर रहे हैं, यानी अंक-७५१। आज से शुरु होनेवाली नई शृंखला को प्रस्तुत करने के लिए हमने आमन्त्रित किया है ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’ के नियमित श्रोता-पाठक व पहेली प्रतियोगिता के सबसे तेज़ खिलाड़ी श्री अमित तिवारी को। आगे का हाल अमित जी से सुनिए… ------------------------------------------------------------------------------- नमस्कार! "ओल्ड इज गोल्ड" पर आज से आरम्भ हो रही श्रृंखला कुछ विशेष है.बिलकुल सही पढ़ा आपने. यह श्रृंखला दुनिया की सबसे मधुर आवाज को समर्पित है. एक ऐसी आवाज जो न केवल भारत बल्कि दुनिया के कोने कोने में छाई हुई है. जिस आवाज को सुनकर आदमी एक अलग ही दुनिया में चला जाता है. ये श्रृंखला लता दीदी पर आधारित है.२८ सितम्बर लता जी का जन्मदिवस है ओर इससे बेहतर तरीका क्या हो सकता है उनका जन्मदिन मनाने का कि पूरी श्रृंखल