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यादें जी उठी....मन्ना डे के संग

"दिल का हाल सुने दिलवाला..." की मस्ती हो, या "एक चतुर नार..." में किशोर से नटखट अंदाज़ में मुकाबला करती आवाज़ हो, "ऐ भाई ज़रा देख के चलो.." के अट्टहास में छुपी संजीदगी हो, या "पूछो न कैसे मैंने रैन बितायी...", "लागा चुनरी में दाग...", "केतकी गुलाब जूही..." और "आयो कहाँ से घनश्याम..." जैसे राग आधारित गीतों को लोकप्रिय अंदाज़ में प्रस्तुत करना हो, एक मुक्कमल गायक है जो हमेशा एक "परफेक्ट रेंडरिंग" देता है. जी हाँ आपने सही अंदाजा लगाया. हम बात कर रहे हैं, एक और एकलौते मन्ना डे की. मन्ना डे का जन्म १ मई १९१९ को पूर्णचंद्र और महामाया डे के यहाँ हुआ। अपने माता-पिता के अलावा वे अपने चाचा संगीताचार्य के.सी. डे से बहुत अधिक प्रभावित थे और वे ही उनके प्रेरणास्रोत भी थे। मन्ना ने अपने छुटपन की पढ़ाई एक छोटे से स्कूल "इंदु बाबुर पाठशाला" से हुई। स्कॉटिश चर्च कालिजियेट स्कूल व स्कॉटिश चर्च कॉलेज से पढ़ाई करने के बाद उन्होंने विद्यासागर कॉलेज से स्नातक की शिक्षा पूरी की। अपने बचपन से ही मन्ना को कुश्ती और मुक्क

जब रफी साहब की आवाज़ ढली शम्मी कपूर के मदमस्त अंदाज़ में...

जब दो कलाकार एक दूसरे के प्रर्याय बन जाते हैं तो कई मायनों में एक दुसरे की परछाई की तरह लगने लगते हैं। जिस तरह दो घनिष्ठ दोस्तों की जोडी में से एक को देखते ही दूसरे की ही याद आ जाये, ठीक उसी तरह जब हम शम्मी कपूर के गानों को सुनते हैं तो मोहम्मद रफी बरबस ही याद आते हैं और जब मोहम्मद रफी के चुलबुलेपन से सनी हुई आवाज को सुनते हैं तो सबसे पहले हमें शम्मी कपूर की अदायें ही याद आती हैं। एक अच्छे दोस्त की यही तो पहचान है कि वह अपने दोस्त के अनुसार खुद को ढाल ले। शम्मी के शोख व्यक्तित्व के अनुसार ही उन्हीं की तरह की शोखी मोहम्मद रफी ने अपनी आवाज में भरी और उनके गीतों को अलग अंदाज दिया। एक समय था जब लगातार चौदह फ्लाप फिल्में दे कर शम्मी कपूर की गिनती एक असफल कलाकार के रुप में की जाने लगी थी। उनकें फिल्मी कैरियर में बेहतरीन मोड उस वक्त आया जब नासिर हुसैन की फिल्म "तुमसा नहीं देखा" आई जिसमें उनका चुलबुला अंदाज और उसमें मोहम्मद रफी के गाये हुये गीत बेहद प्रसिद्द हुए जो आज तक भी संगीत प्रेमियों की पसंद बने हुये हैं, उसके बाद तो मोहम्मद रफी शम्मी कपूर की ही आवाज बन गये थे । १९६० का वह दौर

एक प्यार का नग्मा है...कुछ यादें जो साथ रह गई...

सितम्बर ३, १९४० को गोरखपुर, उत्तर प्रदेश में जन्में प्यारेलाल (लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जोड़ी के) का बचपन बेहद संघर्षभरा रहा. उनका माँ का देहांत छोटी उम्र में ही हो गया था. उनके पिता पंडित रामप्रसाद जी ट्रम्पेट बजाते थे और चाहते थे कि प्यारेलाल वोयलिन सीखे. पिता के आर्थिक हालात ठीक नही थे, वे घर घर जाते थे जब भी कहीं उन्हें बजाने का मौका मिलता था और साथ में प्यारे को भी ले जाते. उनका मासूम चेहरा सबको आकर्षित करता था. एक बार पंडित जी उन्हें लता जी के घर लेकर गए. लता जी प्यारे के वोयलिन वादन से इतनी खुश हुई कि उन्होंने प्यारे को ५०० रुपए इनाम में दिए जो उस जमाने में बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी. वो घंटों वोयलिन का रीयाज़ करते. अपनी मेहनत के दम पर उन्हें मुंबई के रंजीत स्टूडियो के ओर्केस्ट्रा में नौकरी मिल गई जहाँ उन्हें ८५ रुपए मासिक वेतन मिलता था. अब उनके परिवार का पालन इन्हीं पैसों से होने लगा. उन्होंने एक रात्रि स्कूल में सातवें ग्रेड की पढाई के लिए दाखिला लिया पर ३ रुपये की मासिक फीस उठा पाने की असमर्थता के चलते छोड़ना पड़ा. मुश्किल हालातों ने भी उनके हौसले कम नही किए, वो बहुत महत्वकांक्षी थे

लक्ष्मीकांत प्यारेलाल से लक्ष्मी प्यारे..और आज के एल पी तक...एक सुनहरा अध्याय

३७ लंबे वर्षों तक श्रोताओं को दीवाना बनाकर रखने वाले इस संगीत जोड़ी को अचानक ही हाशिये पर कर दिया गया. आखिर ऐसा क्यों हुआ. ५०० से भी अधिक फिल्में, अनगिनत सुपरहिट गीत, पर फ़िर भी संगीत कंपनियों ने और मिडिया ने उन्हें नई पीढी के सामने उस रूप में नही रखा जिस रूप में कुछ अन्य संगीतकारों को रखा गया. गायक महेंद्र कपूर ने एक बार इस मुद्दे पर अपनी राय कुछ यूँ रखी थी- "उनका संगीत पूरी तरह से भारतीय था, जहाँ लाइव वाद्यों का भरपूर प्रयोग होता था. चूँकि उनके अधिकतर गीत मेलोडी प्रधान हैं उनका रीमिक्स किया जाना बेहद मुश्किल है और संगीत कंपनियाँ अपने फायदे के लिए केवल उन्हीं को "मार्केट" करती हैं जिनके गीतों में ये "खूबी" होती है." ये बात काफ़ी हद तक सही प्रतीत होती है. पर अगर हम बात करें हिट्स की तो किसी भी सच्चे हिन्दी फ़िल्म संगीत के प्रेमी को जो थोड़ा बहुत भी बीते सालों पर अपनी नज़र डालने की जेहमत करें वो बेझिझक एल पी के बारे में यह कह सकेगा - "बॉस" कौन था मालूम है जी... चलिए इस बात को कुछ तथ्यों के आधार पर परखें - हिन्दी फिल्मों कि स्वर सम्राज्ञी लता मंगेशकर न

एक चित का चोर जो गायक भी है, गीतकार भी और संगीतकार भी....- रविन्द्र जैन

हमने आपको सुनवाया था येसुदास का गाया रविन्द्र जैन का स्वरबद्ध किया एक अनमोल गीत . चलिए अब बात करते हैं एक बेहद अदभुत संगीत निर्देशक, गीतकार और गायक रंविन्द्र जैन की, जिन्हें फ़िल्म जगत प्यार से दादू के नाम से जानता है. स्वर्गीय के सी डे के बाद वो पहले संगीत सर्जक हैं जिन्होंने चक्षु बाधा पर विजय प्राप्त कर अपनी प्रतिभा को दक्षिण एशिया ही नही, वरन संसार भर में फैले समस्त भारतीय परिवारों तक बेहद सफलता के साथ पहुंचाया. दादू के संगीत में अलीगढ की सामासिक संस्कृति, बंगाल के माधुर्य और हिंदू जैन परम्परा का अदभुत मिश्रण है. २८ फरवरी १९४४ में जन्में रविन्द्र जैन की फिल्मी सफर शुरू हुआ १४ जनवरी १९७२ के दिन जब कोलकत्ता से मुंबई पहुंचे दादू ने फ़िल्म सेण्टर स्टूडियो में अपना पहला गाना रिकॉर्ड किया, गायक थे मोहम्मद रफी साहब. रफी साहब को जब ज्ञात हुआ की दादू अलीगढ से हैं तो उनसे ग़ज़ल सुनाने का आग्रह किया तो दादू ने पेश किया ये कलाम- गम भी हैं न मुक्कमल, खुशियाँ भी हैं अधूरी, आंसू भी आ रहे हैं, हंसना भी है जरूरी, ग़ज़ल का मत्तला सुनते ही रफी साहब ने कहा की देखिये मास्टर जी, देखिये मेरे बाल खड़े हो

षड़ज ने पायो ये वरदान - एक दुर्लभ गीत

येसू दा का जिक्र जारी है, सलिल दा के लिए वो "आनंद महल" के गीत गा रहे थे, उन्हीं दिनों रविन्द्र जैन साहब भी अभिनेता अमोल पालेकर के लिए एक नए स्वर की तलाश में थे. जब उन्होंने येसू दा की आवाज़ सुनी तो लगा कि यही एक भारतीय आम आदमी की सच्ची आवाज़ है, दादा(रविन्द्र जैन) ने बासु चटर्जी जो कि फ़िल्म "चितचोर" के निर्देशक थे, को जब ये आवाज़ सुनाई तो दोनों इस बात पर सहमत हुए कि यही वो दिव्य आवाज़ है जिसकी उन्हें अपनी फ़िल्म के लिए तलाश थी. उसके बाद जो हुआ वो इतिहास बना. चितचोर के अविस्मरणीय गीतों को गाकर येसू दा ने राष्टीय पुरस्कार जीता और उसके बाद दादा और येसू दा की जुगलबंदी ने खूब जम कर काम किया. वो सही मायनों में संगीत का सुनहरा दौर था. जब पूरे पूरे ओर्केस्ट्रा के साथ हर गीत के लिए जम कर रिहर्सल हुआ करती थी, जहाँ फ़िल्म के निर्देशक भी मौजूद होते थे और गायक अपने हर गीत में जैसे अपना सब कुछ दे देता था. येसू दा और रविन्द्र दादा के बहाने हम एक ऐसे ही गीत के बनने की कहानी आज आपको सुना रहे हैं. येसू दा की माने तो ये उनका हिन्दी में गाया हुआ सबसे बहतरीन गीत है. पर दुखद ये है कि न

बस एक धुन याद आ गई थी....संगीतकार रोशन की याद में

संगीतकार रोशन की ४१ वीं पुण्यतिथी पर हिंद युग्म आवाज़ की श्रद्धांजली संगीतकार रोशन अक्सर अनिल दा (अनिल बिस्वास) को रिकॉर्डिंग करते हुए देखने जाया करते थे. एक दिन अनिल दा रिकॉर्डिंग कर रहे थे "कहाँ तक हम गम उठाये..." गीत की,कि उन्होंने पीछे से किसी के सुबकने की आवाज़ सुनी.मुड कर देखा तो रोशन आँखों में आंसू लिए खड़े थे. भावुक स्वरों में ये उनके शब्द थे- "दादा, क्या मैं कभी कुछ ऐसा बना पाउँगा..." अनिल दा ने उन्हें डांट कर कहा "ऐसा बात मत कहो...कौन जाने तुम इससे भी बेहतर बेहतर गीत बनाओ किसी दिन..." कितना सच कहा था अनिल दा ने. बात १९४९ की है. निर्देशक केदार शर्मा फ़िल्म बना रहे थे "नेकी और बदी", जिसके संगीतकार थे स्नेहल भटकर. तभी उन्हें मिला हाल ही में दिल्ली से मुंबई पहुँचा एक युवा संगीतकार रोशन, जिसकी धुनों ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि उन्होंने स्नेहल साहब से बात कर फ़िल्म "नेकी और बदी" का काम रोशन साहब को सौंप दिया. फ़िल्म नही चली पर केदार जी को अपनी "खोज" पर पूरा विशवास था तो उन्होंने अगली फ़िल्म "बावरे नैन" से रोशन स

लौट चलो पाँव पड़ूँ तोरे श्याम-रफ़ी साहब का एक नायाब ग़ैर फ़िल्मी गीत

विविध भारती द्वारा प्रसारित किया जाने वाला ग़ैर-फ़िल्मी यानी सुगम संगीत रचनाओं का कार्यक्रम रंग-तरंग सुगम संगीत की रचनाओं को प्रचारित करने में मील का पत्थर कहा जाना चाहिये. इस कार्यक्रम के ज़रिये कई ऐसी रचनाएं संगीतप्रेमियों को सुनने को मिलीं हैं जिनके कैसेट अस्सी के दशक में बड़ी मुश्किल से बाज़ार में उपलब्ध हो पाते थे. ख़ासकर फ़िल्म जगत की कुछ नायाब आवाज़ों मो.रफ़ी, लता मंगेशकर, आशा भोसले, गीता दत्त, सुमन कल्याणपुरकर, मन्ना डे, महेन्द्र कपूर, उषा मंगेशकर, मनहर, मुबारक बेगम आदि के स्वर में निबध्द कई रचनाएं रंग-तरंग कार्यक्रम के ज़रिये देश भर में पहुँचीं. संगीतकार ख़ैयाम साहब ने फ़िल्मों में कम काम किया है लेकिन जितना भी किया है वह बेमिसाल है. उन्होंने हमेशा क्वॉलिटी को तवज्जो दी है. ख़ैयाम साहब ने बेगम अख़्तर, मीना कुमारी और मोहम्मद रफ़ी साहब को लेकर जो बेशक़ीमती रचनाएं संगीत जगत को दीं हैं उनमें ग़ज़लें और गीत दोनो हैं. सुगम संगीत एक बड़ी विलक्षण विधा है और हमारे देश का दुर्भाग्य है कि फ़िल्म संगीत के आलोक में सुगम संगीत की रचनाओं को एक अपेक्षित फ़लक़ नहीं मिल पाया है. संगीतकार ख़ैयाम ख़ैयाम साहब की संगीतबध्

जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे...

आवाज़ पर आज का दिन समर्पित रहा, अजीम फनकार मोहमद रफी साहब के नाम, संजय भाई ने सुबह वसंत देसाई की बात याद दिलाई थी, वे कहते थे " रफ़ी साहब कोई सामान्य इंसान नही थे...वह तो एक शापित गंधर्व था जो किसी मामूली सी ग़लती का पश्चाताप करने इस मृत्युलोक में आ गया ." बात रूपक में कही गई है लेकिन रफ़ी साहब की शख़्सियत पर एकदम फ़बती है.( पूरा पढ़ें ...) मोहम्मद रफी, ऐतिहासिक हिन्दी सिनेमा जगत का एक ऐसा स्तम्भ जो आज भी संगीत प्रेमियों के दिल पर अमिट छाप बनाये है, जिनकी सुरीली अद्वितीय आवाज हर रोज हमें दीवाना करती है और जिन्होंने करीब पैंतीस सालों में अपनी अतुलनीय आवाज में मधुर गीतों का एक बड़ा अम्बार हमारे लिये छोड़ा । रफी जी की आवाज एक ऐसी आवाज, जिसने दुःख भरे नगमों से लेकर धूम-धड़ाके वाले मस्ती भरे गीतों सभी को एक बहतरीन गायकी के साथ निभाया, यूँ तो बहुत से नये गायक कलाकारों द्वारा रफी जी की आवाज को नकल करने की कोशिश की गयी और उनको सराहा भी गया परंतु कोई भी मोहम्मद रफी के उस जादू को नही ला सका; शायद कोई कर भी न सके । पुरजोर कोशिशों के बावजूद कोई भी ऐसा गायक रफी साहब की केवल एक-आध आवाज को नकल कर

वो शुरुवाती दिन...

मो. रफी को याद कर रहे हैं, युनुस खान अट्ठाईस बरस पहले 31 जुलाई के दिन सुरसंसार का ये सुरीला पंछी, दुनिया को बेगाना मानकर उड़ गया, और तब से आज तक वो डाली कांप रही है । दरअसल मोहम्‍मद रफ़ी संगीत की दुनिया में शोर की साजिश के खि़लाफ़ एक सुरीला हस्‍तक्षेप थे। दुनिया के नक्‍शे में खोजने चलें, तो पाकिस्‍तान के दायरे में लाहौर के नज़दीक कोटला सुल्‍तान सिंह को खोज पाना, काफी मशक्‍कत का काम होगा । यहां चौबीस दिसंबर 1924 को रफ़ी साहब का जन्‍म हुआ था । बाद में रफ़ी का परिवार लाहौर चला आया । यहां उन्होंने उस्ताद बड़े गु़लाम अली ख़ां साहब और उस्ताद अब्‍दुल वहीद ख़ां साहब से संगीत की तालीम ली थी । लाहौर में कुंदन लाल सहगल का एक कंसर्ट हो रहा था, लेकिन अचानक बिजली चली गयी और आयोजन रूक गया । सहगल ने कहा कि जब तक बिजली नहीं आयेगी वो नहीं गायेंगे । तेरह बरस के मोहम्‍मद रफ़ी इस आयोजन में अपने जीजा मोहम्‍मद हमीद के साथ आये हुए थे । उन्होंने कहा कि रफ़ी गाना गाकर जनता को शांत कर सकते हैं । इस तरह रफ़ी साहब को मंच पर गाने का मौका़ मिला था । रफ़ी साहब को पहली बार गाने का मौक़ा संगीतकार श्याम सुंदर ने दिया था

कविता और संगीत से अव्वल, सुर को जिताने वाले मोहम्मद रफ़ी

अमर आवाज़ मोहम्मद रफ़ी को उनकी 28वीं बरसी पर याद कर रहे हैं संजय पटेल मेरा तो जो भी कदम है वो तेरी राह में है॰॰॰ जी हाँ, स्तम्भकार संजय पटेल ने अपने ज़िंदगी के बहुत से कदम रफ़ी की याद में बढ़ाये हैं। संयोग है कि हमारे लिये ये विशेष आलेख रचने वाले संजय भाई ने मोहम्मद रफ़ी की मृत्यु पर ही पहला लेख इन्दौर के एक प्रतिष्ठित दैनिक में लिखा था. संजय भाई रफ़ी साहब के अनन्य मुरीद हैं और इस महान गायक की पहली बरसी से आज तक 31 जुलाई के दिन रफ़ी साहब की याद में उपवास रखते हैं। प्रस्तुत संजय की श्रद्धाँजलि- रफ़ी एक ऐसी मेलोडी रचते थे कि मिश्री की मिठास शरमा जाए,सुनने वाले के कानों में मोगरे के फ़ूल झरने लगे,सुर जीत जाए और शब्द और कविता पीछे चली जाए. मेरी यह बात अतिरंजित लग सकती है आपको लेकिन रफ़ी साहब का भावलोक है ही ऐसा. आप जितना उसके पास जाएंगे आपको वह एक पाक़ साफ़ संसारी बना कर ही छोड़ेगा. मोहम्मद रफ़ी साहब को महज़ एक प्लै-बैक सिंगर कह कर हम वाक़ई एक बड़ी भूल करते हैं.दर असल वह महज़ एक आवाज़ नहीं;गायकी की पूरी रिवायत थे.सोचिये थे तो सही साठ साल से सुनी जा रही ये आवाज़ न जाने किस किस मेयार से गुज़री है. पंजाब के एक

सीखिए गायकी के गुर

गाना आए या न आए,गाना चाहिए...जनाब बाथरूम सिंगिंग छोडिये, और महफिलों की जान बनिए, आवाज़ पर संजय पटेल लेकर आए हैं, नए गायकारों के लिए मशहूर संगीतकार कुलदीप सिंह के सुझाये कुछ नायाब टिप्स... दोस्तो, एक संगीत प्रतियोगिता के संचालन के दौरान, मैंने बतौर निर्णायक उपस्थित, जाने माने संगीतकार कुलदीप सिंह (फ़िल्म साथ-साथ और अंकुश से मशहूर), जिन पर ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह को पहली बार पार्श्व गायन में उतारने का श्रेय भी है, से जानना चाहा कुछ ऐसे मशवरे, जो उभरते हुए नए गायकों, विशेषकर जो सुगम संगीत (गीत, ग़ज़ल,और भजन आदि ) गा रहे हैं या फ़िर इस क्षेत्र में अपनी किस्मत आजमाना चाहते हैं. कुलदीप जी ने जो बातें बतायीं वो आपके साथ बाँट रहा हूँ, एक बार फ़िर "आवाज़" के मध्यम से, तो गायक दोस्तो, नोट कर लीजिये कुछ अनमोल टिप्स : - ज़्यादातर बाल कलाकार अपने गुरू का रटवाया हुआ गाते हैं.गुरूजनों का दायित्व है कि वे इस बात का ख़ास ख़याल रखें कि क्या जो बच्चे को सिखाया जा रहा है, वह उसकी उम्र पर फ़बता है. - कविता/शायरी की समझ सबसे बड़ी चीज़ है.जब गा रहे हैं ' रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ’ तो ये जानना ज़र