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सरकती जाये है रुख से नक़ाब .. अमीर मीनाई की दिलफ़रेब सोच को आवाज़ से निखारा जगजीत सिंह ने

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९४ वो बेदर्दी से सर काटे 'अमीर' और मैं कहूँ उन से, हुज़ूर आहिस्ता-आहिस्ता जनाब आहिस्ता-आहिस्ता। आज की महफ़िल इसी शायर के नाम है, जो मौत की माँग भी अपने अलहदा अंदाज़ में कर रहा है। इस शायर के क्या कहने जो औरों के दर्द को खुद का दर्द समझता है और परेशान हो जाता है। तभी तो उसे कहना पड़ा है कि: खंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम 'अमीर' सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है इन दो शेरों के बाद आप समझ तो गए हीं होंगे कि मैं किन शायर कि बात कर रहा हूँ। अरे भाई, ये दोनों शेर दो अलग-अलग गज़लों के मक़ते हैं और नियमानुसार मक़ते में शायर का तखल्लुस भी शामिल होता है। तो इन दो शेरों में तखल्लुस है "अमीर"। यानि कि शायर का नाम है "अमीर" और पूरा नाम... "अमीर मीनाई"। अमीर मीनाई के बारे में बहुत कुछ तो नहीं है अंतर्जाल पर. जितना कि इनके समकालीन "दाग़ दहलवी" के बारे में है। और इसकी वज़ह जानकारों के हिसाब से यह है कि दाग़ उस जमाने के "हिन्दी और उर्दू" के सबसे बड़े शायर थे और उन्होंने हीं "हिन्दी-उर्दू" शायरी को "फ़ारस

ये कौन आता है तन्हाईयों में जाम लिए.. मख़्दूम मोहिउद्दीन के लफ़्ज़ औ' आबिदा की पुकार..वाह जी वाह!

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९३ दि न से महीने और फिर बरस बीत गये फिर क्यूं हर शब तन्हाई आंख से आंसू बनकर ढल जाती है फिर क्यूं हर शब तेरे शे’र तेरी आवाज गूंजा करती है फजाओं में आसमानों में मुझे यूं महसूस होता है जैसे तू हयात बन गया है और मैं मर गया हूं। अपने पिता "मख़्दूम मोहिउद्दीन" को याद करते हुए उनके जन्म-शताब्दी के मौके पर उनके पुत्र "नुसरत मोहिउद्दीन" की ये पंक्तियाँ मख़्दूम की शायरी के दीवानों को अश्कों और जज़्बातों से लबरेज कर जाती हैं। मैंने "मख़्दूम की शायरी के दीवाने" इसलिए कहा क्योंकि आज भी हममें से कई सारे लोग "मख़्दूम" से अनजाने हैं, लेकिन जो भी "मख्दूम" को जानते हैं उनके लिए मख़्दूम "शायर-ए-इंक़लाब" से कम कुछ भी नहीं। जिसने भी "मख़्दूम" की शायरी पढी या सुनी है, वह उनका दीवाना हुए बिना रह नहीं सकता। हैदराबाद से ताल्लुक रखने वाला यह शायर "अंग्रेजों" और "निज़ाम" की मुखालफ़त करने के कारण हमेशा हीं लोगों के दिलों में रहा है। उर्दू अदब में कई सारे ऐसे शायर हुए हैं, जिन्हें बस लिखने से काम था, तो कई ऐसे

तुझे भूलने की दुआ करूँ तो दुआ में मेरी असर न हो.. बशीर और हुसैन बंधुओं ने माँगी बड़ी हीं अनोखी दुआ

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९१ "ज गजीत सिंह ने आठ गज़लें गाईं और उनसे एक लाख रुपए मिले, अपने जमाने में गालिब ने कभी एक लाख रुपए देखे भी नहीं होंगे।" - शाइरी की बदलती दुनिया पर बशीर बद्र साहब कुछ इस तरह अपने विचार व्यक्त करते हैं। वे खुद का मुकाबला ग़ालिब से नहीं करते, लेकिन हाँ इतना तो ज़रूर कहते हैं कि उनकी शायरी भी खासी मक़बूल है। तभी तो उनसे पूछे बिना उनकी शायरी प्रकाशित भी की जा रही है और गाई भी जा रही है। बशीर साहब कहते हैं- "पाकिस्तान में मेरी शाइरी ऊर्दू में छपी है, खूब बिक रही है, वह भी मुझे रायल्टी दिए बिना। वहां किसी प्रकाशक ने कुलयार बशीर बद्र किताब छापी है। जिसे हिंदी में तीन अलग अलग पुस्तक "फूलों की छतरीयां", "सात जमीनें एक सितारा" और "मोहब्बत खुशबू हैं" नाम से प्रकाशित किया जा रहा है। अभी हरिहरन ने तीस हजार रुपए भेजे हैं, मेरी दो गजलें गाईं हैं। मुझसे पूछे बगैर पहले गा लिया और फिर मेरे हिस्से के पैसे भेज दिए। मेरे साथ तो सभी अच्छे हैं। अल्लामा इकबाल, फैज अहमद फैज, सरदार जाफरी, कैफी आजमी, साहिर लुधियानवी ये सब इंकलाबी शायरी करते थे, लेकिन म

हमने काटी हैं तेरी याद में रातें अक्सर.. यादें गढने और चेहरे पढने में उलझे हैं रूप कुमार और जाँ निसार

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९० "जाँ निसार अख्तर साहिर लुधियानवी के घोस्ट राइटर थे।" निदा फ़ाज़ली साहब का यह कथन सुनकर आश्चर्य होता है.. घोर आश्चर्य। पता करने पर मालूम हुआ कि जाँ निसार अख्तर और निदा फ़ाज़ली दोनों हीं साहिर लुधियानवी के घर रहा करते थे बंबई में। अब अगर यह बात है तब तो निदा फ़ाज़ली की कही बातों में सच्चाई तो होनी हीं चाहिए। कितनी सच्चाई है इसका फ़ैसला तो नहीं किया जा सकता लेकिन "नीरज गोस्वामी" जी के ब्लाग पर "जाँ निसार" साहब के संस्मरण के दौरान इन पंक्तियों को देखकर निदा फ़ाज़ली के आरोपों को एक नया मोड़ मिल जाता है - "जांनिसार साहब ने अपनी ज़िन्दगी के सबसे हसीन साल साहिर लुधियानवी के साथ उसकी दोस्ती में गर्क कर दिए. वो साहिर के साए में ही रहे और साहिर ने उन्हें उभरने का मौका नहीं दिया लेकिन जैसे वो ही साहिर की दोस्ती से आज़ाद हुए उनमें और उनकी शायरी में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ. उसके बाद उन्होंने जो लिखा उस से उर्दू शायरी के हुस्न में कई गुणा ईजाफा हुआ." पिछली महफ़िल में "साहिर" के ग़मों और दर्दों की दुनिया से गुजरने के बाद उनके बारे

दिल मगर कम किसी से मिलता है... बड़े हीं पेंचो-खम हैं इश्क़ की राहो में, यही बता रहे हैं जिगर आबिदा

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८८ "को "कोई अच्छा इनसान ही अच्छा शायर हो सकता है।" ’जिगर’ मुरादाबादी का यह कथन किसी दूसरे शायर पर लागू हो या न हो, स्वयं उन पर बिलकुल ठीक बैठता है। यों ऊपरी नज़र डालने पर इस कथन में मतभेद की गुंजाइश कम ही नज़र आती है लेकिन इसको क्या किया जाए कि स्वयं ‘जिगर’ के बारे में कुछ समालोचकों का मत यह है कि जब वह अच्छे इनसान नहीं थे, तब बहुत अच्छे शायर थे। ’जिगर’ के बारे में खुद कुछ कहूँ (इंसान खुद कुछ कहने की हालत में तभी आता है, जब उसने उस शख्सियत पर गहरा शोध कर लिया हो और मैं यह मानता हूँ कि मैने जिगर साहब की बस कुछ गज़लें पढी हैं, उनपर आधारित अली सरदार ज़ाफ़री का "कहकशां" देखा है और उनके बारे में कुछ बड़े लेखकों के आलेख पढे हैं.... इससे ज्यादा कुछ नहीं किया...... इसलिए मुझे नहीं लगता कि मैं इस काबिल हूँ कि अपनी लेखनी से दो शब्द या दो बोल निकाल सकूँ) इससे बेहतर मैंने यही समझा कि हर बार की तरह "प्रकाश पंडित" जी की पुस्तक का सहारा लिया जाए। तो अभी ऊपर मैंने ’जिगर’ की जो हल्की-सी झांकी दिखाई, वो "प्रकाश पंडित" जी की मेहरबानी से हीं संभ

ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात... फ़ैज़ साहब के बेमिसाल बोल और इक़बाल बानो की मदभरी आवाज़

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८२ बा त तो दर-असल पुरानी हो चुकी है, फिर भी अगर ऐसा मुद्दा हो, ऐसी घटना हो जिससे खुशी मिले तो फिर क्यों न दोस्तों के बीच उसका ज़िक्र किया जाए। है ना? तो हुआ यह है कि आज से कुछ ३३ दिन पहले यानि कि २ अप्रैल के दिन महफ़िल-ए-गज़ल की सालगिरह थी। अब हमारी महफ़िल कोई माशूका या फिर कोई छोटा बच्चा तो नहीं कि जो शिकायतें करें ,इसलिए हमें इस दिन का इल्म हीं न हुआ। हाँ, गलती हमारी है और हम अपनी इस खता से मुकरते भी नहीं, लेकिन आप लोग किधर थे... आप तमाम चाहने वालों का तो यह फ़र्ज़ बनता था कि हमें समय पर याद दिला दें। अब भले हीं हमारी यह महफ़िल नाज़ न करे या फिर तेवर न दिखाए, लेकिन इसकी आँखों से यह ज़ाहिर है कि इसे हल्का हीं सही, लेकिन बुरा तो ज़रूर हीं लगा है। क्या?..... क्या कहा? नहीं लगा... ऐसा क्यों... ऐसा कैसे.... ओहो... यह वज़ह है.. सही है भाई.. जब महफ़िल में चचा ग़ालिब विराजमान हों और वो भी पूरे के पूरे ढाई महिने के लिए तो फिर कौन नाराज़ होगा.. नाराज़ होना तो दूर की बात है.. किसी को अपनी खबर हो तो ना वो कुछ और सोचे। यही हाल हमारी महफ़िल का भी था... यानि कि अनजाने में हीं हमने म

जब भी चूम लेता हूँ इन हसीन आँखों को.... कैफ़ी की "कैफ़ियत" और रूप की "रूमानियत" उतर आई है इस गज़ल में..

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८१ पि छली दस कड़ियों में हमने बिना रूके चचा ग़ालिब की हीं बातें की। हमारे लिए वह सफ़र बड़ा हीं सुकूनदायक रहा और हमें उम्मीद है कि आपको भी कुछ न कुछ हासिल तो ज़रूर हुआ होगा। यह बात तो जगजाहिर है कि ग़ालिब शायरी की दुनिया के ध्रुवतारे हैं और इस कारण हमारा हक़ बनता है कि हम उनसे वाकिफ़ हों और उनसे गज़लकारी के तमाम नुस्खे जानें। हमने पिछली दस कड़ियों में बस यही कोशिश की और शायद कुछ सफ़ल भी हुए। "कुछ" इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि ग़ालिब को पूरी तरह जान लेना किसी के बस में नहीं। फिर भी जितना कुछ हमारे हाथ आया, सारा का सारा मुनाफ़ा हीं तो था। अब जब हमें मुनाफ़े का चस्का लग हीं गया है तो क्यों ना आसमान के उस ध्रुवतारे के आस-पास टिमटिमाते, चमकते, दमकते तारों की रोशनी पर नज़र डाली जाए। ये तारे भले हीं ध्रुवतारा के सामने मंद पड़ जाते हों, लेकिन इनमें भी इतना माद्दा है, इतनी चमक है कि ये गज़ल-रूपी ब्रह्मांड के सारे ग्रहों को चकाचौंध से सराबोर कर सकते हैं। तो अगली दस कड़ियों में (आज की कड़ी मिलाकर) हम इन्हीं तारों की बातें करने जा रहे हैं। बात अब और ज्यादा नहीं घुमाई जाए

ज़ुल्मतकदे में मेरे.....ग़ालिब को अंतिम विदाई देने के लिए हमने विशेष तौर पर आमंत्रित किया है जनाब जगजीत सिंह जी को

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८० आ ज से कुछ दो या ढाई महीने पहले हमने ग़ालिब पर इस श्रृंखला की शुरूआत की थी और हमें यह कहते हुए बहुत हीं खुशी हो रही है कि हमने सफ़लतापूर्वक इस सफ़र को पूरा किया है क्योंकि आज इस श्रृंखला की अंतिम कड़ी है। इस दौरान हमने जहाँ एक ओर ग़ालिब के मस्तमौला अंदाज़ का लुत्फ़ उठाया वहीं दूसरी ओर उनके दु:खों और गमों की भी चर्चा की। ग़ालिब एक ऐसी शख्सियत हैं जिन्हें महज दस कड़ियों में नहीं समेटा जा सकता, फिर भी हमने पूरी कोशिश की कि उनकी ज़िंदगी का कोई भी लम्हा अनछुआ न रह जाए। बस यही ध्यान रखकर हमने ग़ालिब को जानने के लिए उनका सहारा लिया जिन्होंने किसी विश्वविद्यालय में तो नहीं लेकिन दिल और साहित्य के पाठ्यक्रम में ग़ालिब पर पी०एच०डी० जरूर हासिल की है। हमें उम्मीद है कि आप हमारा इशारा समझ गए होंगे। जी हाँ, हम गुलज़ार साहब की हीं बात कर रहे हैं। तो अगर आपने ग़ालिब पर चल रही इस श्रृंखला को ध्यान से पढा है तो आपने इस बात पर गौर ज़रूर किया होगा कि ग़ालिब पर आधारित पहली कड़ी हमने गुलज़ार साहब के शब्दों में हीं तैयार की थी, फिर तीसरी या चौथी कड़ी को भी गुलज़ार साहब ने संभाला था..... अब

उस पे बन जाये कुछ ऐसी कि बिन आये न बने.. जसविंदर सिंह की जोरदार आवाज़ में ग़ालिब ने माँगी ये दुआ

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७९ पि छली किसी कड़ी में इस बात का ज़िक्र आया था कि "ग़ालिब" के उस्ताद "ग़ालिब" हीं थे। उस वक्त तो हमने इस बात पे ध्यान नहीं दिया, लेकिन जब आज का आलेख लिखने की बारी आई तो हमने सोचा कि क्यों न एक नया मुद्दा,एक नया विषय ढूँढा जाए, अंतर्जाल पर ग़ालिब से जु़ड़ी सारी कहानियों को हमने खंगाल डाला और फिर ढूँढते-ढूँढते बात चचा ग़ालिब के उस्ताद पे आके अटक गई। श्री रामनाथ सुमन की पुस्तक "ग़ालिब" में इस सुखनपरवर के उस्ताद का लेखा-जोखा कुछ इस तरह दर्ज़ है: फ़ारसी की प्रारम्भिक शिक्षा इन्होंने आगराके उस समय के प्रतिष्ठित विद्वान मौलवी मुहम्मद मोवज्ज़म से प्राप्त की। इनकी ग्रहण शक्ति इतनी तीव्र थी कि बहुत जल्द वह ज़हूरी जैसे फ़ारसी कवियों का अध्ययन अपने आप करने लगे बल्कि फ़ारसी में गज़लें भी लिखने लगे। इसी ज़माने (१८१०-१८११ ई.) में मुल्ला अब्दुस्समद ईरान से घूमते-फिरते आगरा आये और इन्हींके यहाँ दो साल तक रहे। यह ईरान के एक प्रतिष्ठत एवं वैभवसम्पन्न व्यक्ति थे और यज़्द के रहनेवाले थे। पहिले ज़रथुस्त्र के अनुयायी थे पर बाद में इस्लाम को स्वीकार कर लिया था। इ