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हमने काटी हैं तेरी याद में रातें अक्सर.. यादें गढने और चेहरे पढने में उलझे हैं रूप कुमार और जाँ निसार

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९० "जाँ निसार अख्तर साहिर लुधियानवी के घोस्ट राइटर थे।" निदा फ़ाज़ली साहब का यह कथन सुनकर आश्चर्य होता है.. घोर आश्चर्य। पता करने पर मालूम हुआ कि जाँ निसार अख्तर और निदा फ़ाज़ली दोनों हीं साहिर लुधियानवी के घर रहा करते थे बंबई में। अब अगर यह बात है तब तो निदा फ़ाज़ली की कही बातों में सच्चाई तो होनी हीं चाहिए। कितनी सच्चाई है इसका फ़ैसला तो नहीं किया जा सकता लेकिन "नीरज गोस्वामी" जी के ब्लाग पर "जाँ निसार" साहब के संस्मरण के दौरान इन पंक्तियों को देखकर निदा फ़ाज़ली के आरोपों को एक नया मोड़ मिल जाता है - "जांनिसार साहब ने अपनी ज़िन्दगी के सबसे हसीन साल साहिर लुधियानवी के साथ उसकी दोस्ती में गर्क कर दिए. वो साहिर के साए में ही रहे और साहिर ने उन्हें उभरने का मौका नहीं दिया लेकिन जैसे वो ही साहिर की दोस्ती से आज़ाद हुए उनमें और उनकी शायरी में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ. उसके बाद उन्होंने जो लिखा उस से उर्दू शायरी के हुस्न में कई गुणा ईजाफा हुआ." पिछली महफ़िल में "साहिर" के ग़मों और दर्दों की दुनिया से गुजरने के बाद उनके बारे

जब भी चूम लेता हूँ इन हसीन आँखों को.... कैफ़ी की "कैफ़ियत" और रूप की "रूमानियत" उतर आई है इस गज़ल में..

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८१ पि छली दस कड़ियों में हमने बिना रूके चचा ग़ालिब की हीं बातें की। हमारे लिए वह सफ़र बड़ा हीं सुकूनदायक रहा और हमें उम्मीद है कि आपको भी कुछ न कुछ हासिल तो ज़रूर हुआ होगा। यह बात तो जगजाहिर है कि ग़ालिब शायरी की दुनिया के ध्रुवतारे हैं और इस कारण हमारा हक़ बनता है कि हम उनसे वाकिफ़ हों और उनसे गज़लकारी के तमाम नुस्खे जानें। हमने पिछली दस कड़ियों में बस यही कोशिश की और शायद कुछ सफ़ल भी हुए। "कुछ" इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि ग़ालिब को पूरी तरह जान लेना किसी के बस में नहीं। फिर भी जितना कुछ हमारे हाथ आया, सारा का सारा मुनाफ़ा हीं तो था। अब जब हमें मुनाफ़े का चस्का लग हीं गया है तो क्यों ना आसमान के उस ध्रुवतारे के आस-पास टिमटिमाते, चमकते, दमकते तारों की रोशनी पर नज़र डाली जाए। ये तारे भले हीं ध्रुवतारा के सामने मंद पड़ जाते हों, लेकिन इनमें भी इतना माद्दा है, इतनी चमक है कि ये गज़ल-रूपी ब्रह्मांड के सारे ग्रहों को चकाचौंध से सराबोर कर सकते हैं। तो अगली दस कड़ियों में (आज की कड़ी मिलाकर) हम इन्हीं तारों की बातें करने जा रहे हैं। बात अब और ज्यादा नहीं घुमाई जाए

पीतल की मेरी गागरी....लोक संगीत और गाँव की मिटटी की महक से चहकता एक 'सखी सहेली' गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 399/2010/99 कु छ आवाज़ें ऐसी होती हैं जिनमें इस मिट्टी की महक मौजूद होती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसी आवाज़ें इस मिट्टी से जुड़ी हुई लगती है, जिन्हे सुनते हुए हम जैसे किसी सुदूर गाँव की तरफ़ चल देते हैं और वहाँ का नज़ारा आँखों के सामने तैरने लगता है। जैसे दूर किसी पनघट से पानी भर कर सखी सहेलियाँ कतार बना कर चली आ रही हों गाँव की पगडंडियों पर। आज हमने जिस गीत को चुना है उसे सुनते हुए शायद आपके ज़हन में भी कुछ इसी तरह के ख्यालात उमड़ पड़े। जी हाँ, 'सखी सहेली' शृंखला की आज की कड़ी में प्रस्तुत है मिनू पुरुषोत्तम और परवीन सुल्ताना की आवाज़ों में फ़िल्म 'दो बूंद पानी' का एक बड़ा ही प्यारा गीत "पीतल की मेरी गागरी"। इसमें वैसे मिनू जी और परवीन जी के साथ साथ उनकी सखी सहेलियों की भी आवाज़ें मौजूद हैं, लेकिन मुख्य आवाज़ें इन दो गायिकाओं की ही हैं। संगीतकार जयदेव की इस रचना में इस देश की मिट्टी का सुरीलापन कूट कूट कर समाया हुआ है। लोक गीत के अंदाज़ में बना यह गीत कैफ़ी आज़मी साहब के कलम से निकला था। आपको याद होगा कि सन्‍ १९७१ में ख़्वाजा अहम

कोई ये कैसे बताये कि वो तन्हा क्यों है....कैफी साहब और जगजीत सिंह जैसे चीर देते है दिल

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 379/2010/79 क ल हमने १९८२ की फ़िल्म 'बाज़ार' का ज़िक्र किया था। आज भी हम १९८२ पर ही कायम हैं और आज की फ़िल्म है 'अर्थ'। 'अर्थ' महेश भट्ट निर्देशित फ़िल्म थी जिसमें मुख्य कलाकार थे शबाना आज़्मी, कुलभूषण खरबंदा, स्मिता पाटिल, राज किरण, रोहिणी हत्तंगड़ी। यानी कि फिर एक बार समानांतर सिनेमा के चोटी के कलाकारों का संगम। अपनी आत्मकथा पर आधारित इस फ़िल्म की कहानी लिखी थी ख़ुद महेश भट्ट ने (उनके परवीन बाबी के साथ अविवाहिक संबंध को लेकर)। इस फ़िल्म को बहुत सारे पुरस्कार मिले। फ़िल्मफ़ेयर के अंतर्गत सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री (शबाना आज़्मी), सर्बश्रेष्ठ स्कीनप्ले (महेश भट्ट) और सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री (रोहिणी हत्तंगड़ी)। शबाना आज़्मी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार (सिल्वर लोटस) भी मिला था इसी फ़िल्म के लिए। इस फ़िल्म का साउंडट्रैक भी कमाल का है जिसमें आवाज़ें हैं ग़ज़ल गायकी के दो सिद्धहस्थ फ़नकारों के - जगजीत सिंह और चित्रा सिंह। "झुकी झुकी सी नज़र", "तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो", "तेरे ख़ुशबू में बसे", &q

और कुछ देर ठहर, और कुछ देर न जा...कहते रह गए चाहने वाले मगर कैफी साहब नहीं रुके

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 315/2010/15 ह मारे देश में ऐसे कई तरक्की पसंद अज़ीम शायर जन्में हैं जिन्होने आज़ादी के बाद एक सांस्कृतिक व सामाजिक आंदोलन छेड़ दिया था। इन्ही शायरों में से एक नाम था क़ैफ़ी आज़मी का, जिनकी इनक़िलाबी शायरी और जिनके लिखे फ़िल्मी गीत आवाम के लिए पैग़ाम हुआ करती थी। कैफ़ी साहब ने एक साक्षात्कार में कहा था कि 'I was born in Ghulam Hindustan, am living in Azad Hindustan, and will die in a Socialist Hindustan'. आज 'स्वरांजली' में श्रद्धांजली कैफ़ी आज़मी साहब को, जिनकी कल, यानी कि १४ जनवरी को ९२-वीं जयंती थी। उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले की फूलपुर तहसील के मिजवां गाँव में एक कट्टर धार्मिक और ज़मींदार ख़ानदान में अपने माँ बाप की सातवीं औलाद के रूप में जन्में बेटे का नाम सय्यद अतहर हुसैन रिज़वी रखा गया जो बाद में कैफ़ी आज़मी के नाम से मशहूर हुए। शिक्षित परिवार में पैदा हुए कैफ़ी साहब शुरु से ही फक्कड़ स्वभाव के थे। पिता उन्हे मौलवी बनाने के ख़्वाब देखते रहे लेकिन कैफ़ी साहब मज़हब से दूर होते गए। उनके गाँव की फ़िज़ां ही कुछ ऐसी थी कि जिसने उनके दिलो-दिमाग

रविवार सुबह की कॉफ़ी और कुछ दुर्लभ गीत (२२)

कुछ फ़िल्में अपने गीत-संगीत के लिए हमेशा याद की जाती है. कुछ फ़िल्में अपनी कहानी को ही बेहद काव्यात्मक रूप से पेश करती है, जैसे उस फिल्म से गुजरना एक अनुभव हो किसी कविता से गुजरने जैसा. कैफ़ी साहब (कैफ़ी आज़मी) और फिल्म "नसीम" में उनकी अदाकारी को भला कौन भूल सकता है, ७० के दशक की एक फिल्म याद आती है -"हँसते ज़ख्म", जिसमें एक अनूठी कहानी को बेहद शायराना /काव्यात्मक अंदाज़ में निर्देशक ने पेश किया था. इत्तेफक्कन यहाँ भी फिल्म के गीतकार कैफ़ी आज़मी थे. ये तो हम नहीं जानते कि फिल्म कामियाब हुई थी या नहीं पर फिल्म अभिनेत्री प्रिया राजवंश की संवाद अदायगी, नवीन निश्चल के बागी तेवर और बलराज सहानी के सशक्त अभिनय के लिए आज भी याद की जाती है, पर फिल्म का एक पक्ष ऐसा था जिसके बारे में निसंदेह कहा जा सकता है कि ये उस दौर में भी सफल था और आज तो इसे एक क्लासिक का दर्जा हासिल हो चुका है, जी हाँ हम बात कर रहे हैं मदन मोहन, कैफ़ी साहब, मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर के रचे उस सुरीले संसार की जिसका एक एक मोती सहेज कर रखने लायक है. चलिए इस रविवार इसी फिल्म के संगीत पर एक चर्चा हो जाए. &qu

जाने क्या ढूंढती रही है ये ऑंखें मुझमें...ढूंढते हैं हम संगीत प्रेमी आज भी उस आवाज़ को जो कहीं आस पास ही है हमेशा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 157 'द स चेहरे एक आवाज़ - मोहम्मद रफ़ी', आवाज़ पर इन दिनों आप सुन रहे हैं गायक मोहम्मद रफ़ी को समर्पित यह लघु शृंखला, जिसमें दस अलग अलग अभिनेताओं पर फ़िल्माये रफ़ी साहब के गाये गीत सुनवाये जा रहे हैं। आज बारी है अभिनेता धर्मेन्द्र की। धर्मेन्द्र और रफ़ी साहब का एक साथ नाम लेते ही झट से जो गानें ज़हन में आ जाते हैं वो हैं "यही है तमन्ना तेरे घर के सामने", "मैं निगाहें तेरे चेहरे से हटाऊँ कैसे", "क्या कहिये ऐसे लोगों से जिनकी फ़ितरत छुपी रहे", "आप के हसीन रुख़ पे आज नया नूर है", "मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे", "एक हसीन शाम को दिल मेरा खो गया", "छलकायें जाम आइये आपकी आँखों के नाम", "गर तुम भुला न दोगे", "हो आज मौसम बड़ा बेइमान है", "मैं जट यमला पगला दीवाना", और भी न जाने कितने ऐसे हिट गीत हैं जिन्हे रफ़ी साहब ने गाये हैं परदे पर अभिनय करते हुए धर्मेन्द्र के लिये। लेकिन आज हम ने इस जोड़ी के नाम जिस गीत को समर्पित किया है वह उस फ़िल्म का है जो धर्मेन्द्

आज की काली घटा...याद कर रही है उस आवाज़ को जो कहीं दूर होकर भी पास है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 147 सु प्रसिद्ध पार्श्व गायिका गीता दत्त जी के आख़िर के दिनों की दुखभरी कहानी का ज़िक्र हमनें यहाँ कई बार किया है। दोस्तों, आज यानी कि २० जुलाई का ही वह दिन था, साल १९७२, जब काल के क्रूर हाथों ने गीता जी को हम से हमेशा हमेशा के लिए छीन लिया था। आज उनके गुज़रे ३७ साल हो गये हैं, लेकिन उनके बाद दूसरी किसी भी गायिका की आवाज़ के ज़रिये उनका वह अंदाज़ फिर वापस नहीं आया, जो कभी समा को नशीला बना जाती थी तो कभी मन में एक अजीब सी विकलता भर देती थी, और कभी वेदना के स्वरों से मन को उदास कर देती थी। अगर आप मेरे एक बात का कोई ग़लत अर्थ न निकालें तो मैं यह ज़रूर कहना चाहूँगा कि लता जी की आवाज़ के करीब करीब सुमन कल्याणपुर की आवाज़ ५० और ६० के दशकों में सुनाई दी थी, और दक्षिण की सुप्रसिद्ध गायिका एस. जानकी की आवाज़ भी कुछ कुछ आशा जी की आवाज़ से मिलती जुलती है। लेकिन ऐसी कोई भी दूसरी आवाज़ आज तक पैदा नहीं हुई है जो गीता जी की आवाज़ के करीब हो। कुल मिलाकर कहने का अर्थ यह है कि गीता दत्त, गीता दत्त हैं, उनकी जगह आज तक न कोई ले सका है और लगता नहीं कि आगे भी कोई ले पायेगा। आज गीता

मेरी आवाज़ सुनो, प्यार का राग सुनो.....स्वर्गीय मदन साहब के गीत बोले रफी के स्वरों में ढल कर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 140 स न् १९२४ में इराक़ के बग़दाद में जन्मे मदन मोहन कोहली को द्वितीय विश्व युद्ध के समय फ़ौजी बनकर बंदूक थामनी पड़ी थी। लेकिन बंदूक की जगह साज़ों को थामने की उनकी बेचैनी उन्हे संगीत के क्षेत्र में आख़िरकार ले ही आयी। १९४६ में आकाशवाणी के लखनऊ केन्द्र में वो कार्यरत हुए और वहीं वो सम्पर्क में आये उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब और बेग़म अख्तर जैसे नामी फ़नकारों के। १९५० में देवेन्द्र गोयल की फ़िल्म 'आँखें' में उन्होने बतौर स्वतंत्र संगीतकार पहली बार संगीत दिया। फ़िल्म 'मदहोशी' के एक गीत में उन्होने पहली बार लता मंगेशकर और तलत महमूद को एक साथ ले आये थे। १९८० में उनके संगीत से सजी फ़िल्म आयी थी 'चालबाज़'. १९५० से १९८० के इन ३० सालों में उन्होने एक से बढ़कर एक धुन बनायी और सुननेवालों को मंत्रमुग्ध किया। उनका हर गीत जैसे हम से यही कहता कि "मेरी आवाज़ सुनो, प्यार का राग सुनो"। फ़िल्म 'नौनिहाल' के इस गीत की तरह कई अन्य गानें उनके ऐसे हैं जिनको समझने के लिए अहसास की ज़बान ही काफ़ी है। मदन मोहन के संगीत में समुन्दर सी गहराई है

मैं ये सोच कर उसके दर से उठा था...रफी साहब के गाये बहतरीन नज्मों में से एक

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 137 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों हम उस सुर साधक की बातें कर रहे हैं जिनका अंदाज़ था सब से जुदा, जिनका संगीत कानों से होते हुए सीधे रूह में समा जाता है। वह संगीत, जो कभी प्रेम, कभी विरह, कभी पीड़ा, तो कभी प्यार में समर्पण की भावना जगाती है। अपने संगीत से श्रोताओं को बेसुध कर देनेवाले उस सुर-गंधर्व को हम और आप मदन मोहन के नाम से जानते हैं। 'मदन मोहन विशेष' के तीसरे अंक में आज हम उनके संगीत के जिस रंग को लेकर आये हैं वह रंग है अपनी महबूबा से बिछड़ने की घड़ी में दिल से निकलती पुकार, कि काश वो एक बार हमें जाने से रोक ले। छुट्टी पर आये सैनिक को अचानक तार मिलता है कि पड़ोसी मुल्क ने हमारे देश पर हमला बोल दिया है और उसे तुरंत सीमा पर पहुँचना है। ऐसे में एक दम से महबूबा से जुदा होने का ख़याल सैनिक के दिल को दहलाकर रख देता है। क्या पता कि फिर कभी उन से इस ज़िंदगी में मुलाक़ात हो, ना हो! १९६४ में बनी चेतन आनंद की फ़िल्म 'हक़ीक़त' की हम बात कर रहे हैं, जिसके मुख्य कलाकार थे चेतन आनंद और प्रिया राजवंश। १९६२ के 'इंडो-चायना वार' पर आधारित इस

वक़्त ने किया क्या हसीं सितम...तुम रहे न तुम हम रहे न हम

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 112 आ ज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड' बड़ा ही ग़मगीन है दोस्तो, क्यूँकि आज हम इसमें एक बेहद प्रतिभाशाली और कामयाब फ़िल्मकार और एक बहुत ही मशहूर और सुरीली गायिका के दुखद अंत की कहानी आप को बताने जा रहे हैं। अभिनेता और निर्माता-निर्देशक गुरुदत्त साहब की एक महत्वाकांक्षी फ़िल्म थी 'काग़ज़ के फूल' (१९५९)। इस फ़िल्म से गुरुदत्त को बहुत सारी उम्मीदें थीं। लेकिन व्यावसायिक रूप से फ़िल्म बुरी तरह से पिट गयी, जिससे गुरु दत्त को ज़बरदस्त झटका लगा। 'काग़ज़ के फूल' की कहानी कुछ इस तरह से थी कि सुरेश सिन्हा (गुरु दत्त) एक मशहूर फ़िल्म निर्देशक हैं। उनकी पत्नी बीना (वीणा) के साथ उनके रिश्ते में अड़चनें आ रही हैं क्यूँकि बीना के परिवार वाले फ़िल्म जगत को अच्छी दृष्टि से नहीं देखते। आगे चलकर सुरेश को अपनी बच्ची पम्मी (बेबी नाज़) से भी अलग कर दिया जाता है। तभी सुरेश के जीवन में एक नयी लड़की शांति (वहीदा रहमान) का आगमन होता है जिसमें सुरेश एक बहुत बड़ी अभिनेत्री देखते हैं। सुरेश उसे अपनी फ़िल्म 'देवदास' में पारो का किरदार देते हैं और रातों रात शांति एक मश

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (3)

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीतों की सौगात लेकर हम फिर से हाज़िर हैं. आज आपके लिए कुछ ख़ास लेकर आये हैं हम सबके प्रिय पंकज सुबीर जी. हमें उम्मीद ही नहीं यकीन है कि पंकज जी का ये नायाब नजराना आप सब को खूब पसंद आएगा. असमिया संगीतकार और गायक श्री भूपेन हजारिका का गीत "ओ गंगा बहती हो क्‍यों" जब आया तो संगीत प्रेमियों के मानस में पैठता चला गया । हालंकि भूपेन दा काफी पहले से हिंदी फिल्‍मों में संगीत देते आ रहे हैं किन्‍तु उनको हिंदी संगीत प्रेमियों ने इस गाने के बाद हाथों हाथ लिया । यद्यपि 1974 में आई फिल्‍म "आरोप" जिसके निर्देशक श्री आत्‍माराम थे तथा जिसमें विनोद खन्‍ना और सायरा बानो मुख्‍य भूमिकाओं में थे उस फिल्‍म का एक गीत जो लता जी तथा किशोर दा ने गाया था वो काफी लोकप्रिय हुआ था । गीत था- "नैनों में दर्पण है दर्पण में कोई देखूं जिसे सुबहो शाम" । इस फिल्‍म के संगीतकार भी भूपेन दा ही थे । भूपेन दा और गुलजार साहब ने मिलकर जब "रुदाली" का गीत संगीत रचा तो धूम ही मच गई । रुदाली में इस जादुई जोड़ी के साथ त्रिवेणी के रूप में आकर मिली लता जी की आव

दो दिल टूटे दो दिल हारे...जब लता ने पिया हीर का दर्द

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 55 ही र-रांझा पंजाब के चार प्रसिद्ध दुखद प्रेम कहानियों में से एक है। बाक़ी के तीन हैं मिर्ज़ा साहिबा, सस्सि पुन्नू और सोहनी महिवाल। युँ तो हीर-रांझा को कई काव्य रूपों में प्रस्तुत किया गया है लेकिन १७६६ में वारिस शाह का लिखा हीर-रांझा सब से ज़्यादा चर्चित हुआ। हीर एक बेहद ख़ूबसूरत अमीर परिवार की लड़की है, और रांझा अपने चार भाइयों में सब से छोटा होने की वजह से अपने पिता का चहेता। वह बहुत अच्छी बांसुरी बजाता है। अपने लालची भाइयों और भाभियों से तंग आकर रांझा घर छोड़ देता है और भटकते हुए हीर के गाँव आ पहुँचता है। दोनों की मुलाक़ात होती है और एक दूसरे से प्यार हो जाता है। रांझा को हीर के घर मवेशियों की देख-रेख करने की नौकरी भी मिल जाती है। हीर उसके बांसुरी की मधुर तानों से सम्मोहित सी हो जाती है और उससे बेहद प्यार करने लगती है। जब उनके प्यार की भनक हीर के लालची चाचा को लगती है तो वह जबरदस्ती हीर की शादी किसी और से करवा देते हैं। रांझा का दिल टूट कर रह जाता है और वह एक जोगी बन जाता है। घूमते घामते एक रोज़ रांझा उसी गाँव आ पहुँचता हैं जहाँ पर हीर रहती है। दोनो एक बार