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स्वरगोष्ठी में आज : ठुमरी- ‘गोरी तोरे नैन काजर बिन कारे...’

'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' की पहली वर्षगाँठ पर सभी पाठकों-श्रोताओं का हार्दिक अभिनन्दन     स्वरगोष्ठी-९८  में आज   फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी –९  श्रृंगार रस से परिपूर्ण ठुमरी ‘गोरी तोरे नैन काजर बिन कारे...’ फिल्मों में शामिल की गई पारम्परिक ठुमरियों पर केन्द्रित ‘स्वरगोष्ठी’ की लघु श्रृंखला ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ के एक नए अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। मित्रों, आज का यह अंक जारी श्रृंखला की ९वीं कड़ी है और आज की इस कड़ी में हम आपको पहले राग पीलू की ठुमरी ‘गोरी तोरे नैन, काजर बिन कारे... ’ का पारम्परिक स्वरूप, और फिर इसी ठुमरी का फिल्मी स्वरूप प्रस्तुत करेंगे। इसके अलावा इस अंक में एकल तथा युगल ठुमरी गायन की परम्परा के बारे में आपके साथ चर्चा करेंगे।  आ ज पीलू की यह ठुमरी ‘गोरी तोरे नैन काजर बिन कारे...’ हम आपको सबसे पहले गायिका इकबाल बानो की आवाज़ में सुनवाते हैं। इकबाल बनो का जन्म १९३५ में दिल्ली के एक सामान्य परिवार में हुआ था। बचपन में ही उनकी प्रतिभा क

ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात... फ़ैज़ साहब के बेमिसाल बोल और इक़बाल बानो की मदभरी आवाज़

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८२ बा त तो दर-असल पुरानी हो चुकी है, फिर भी अगर ऐसा मुद्दा हो, ऐसी घटना हो जिससे खुशी मिले तो फिर क्यों न दोस्तों के बीच उसका ज़िक्र किया जाए। है ना? तो हुआ यह है कि आज से कुछ ३३ दिन पहले यानि कि २ अप्रैल के दिन महफ़िल-ए-गज़ल की सालगिरह थी। अब हमारी महफ़िल कोई माशूका या फिर कोई छोटा बच्चा तो नहीं कि जो शिकायतें करें ,इसलिए हमें इस दिन का इल्म हीं न हुआ। हाँ, गलती हमारी है और हम अपनी इस खता से मुकरते भी नहीं, लेकिन आप लोग किधर थे... आप तमाम चाहने वालों का तो यह फ़र्ज़ बनता था कि हमें समय पर याद दिला दें। अब भले हीं हमारी यह महफ़िल नाज़ न करे या फिर तेवर न दिखाए, लेकिन इसकी आँखों से यह ज़ाहिर है कि इसे हल्का हीं सही, लेकिन बुरा तो ज़रूर हीं लगा है। क्या?..... क्या कहा? नहीं लगा... ऐसा क्यों... ऐसा कैसे.... ओहो... यह वज़ह है.. सही है भाई.. जब महफ़िल में चचा ग़ालिब विराजमान हों और वो भी पूरे के पूरे ढाई महिने के लिए तो फिर कौन नाराज़ होगा.. नाराज़ होना तो दूर की बात है.. किसी को अपनी खबर हो तो ना वो कुछ और सोचे। यही हाल हमारी महफ़िल का भी था... यानि कि अनजाने में हीं हमने म

उल्फ़त की नई मंज़िल को चला....... महफ़िल में इक़बाल बानो और क़तील एक साथ

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३४ १८वें एपिसोड में हमने आपको " तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे " सुनवाया था जिसे अपनी पुरकशिश आवाज़ से रंगीन किया था मोहतरमा "इक़बाल बानो" ने। उस एपिसोड के ९ एपिसोड बाद यानी कि २७ वें एपिसोड में हम लेकर आए थे " मोहे आई न जग से लाज, मैं इतनी जोर से नाची आज कि घुंघरू टूट गए "। यूँ तो उस नज़्म में आवाज़ थी "रूना लैला" की लेकिन जिसकी कलम ने उस कलाम को शिखर तक पहुँचाया उस शख्स का नाम था "क़तील शिफ़ाई"। तो हाँ आज हम इ़क़बाल बानो और क़तील शिफ़ाई की मिलीजुली मेहनत को सलाम करने के लिए जमा हुए हैं। हम आज जो गज़ल लेकर हाज़िर हुए हैं उसकी फ़रमाईश श्री शरद तैलंग जी ने की थी। जानकारी के लिए बता दें कि अगली कड़ी में हम दिशा जी की फ़रमाईश की हीं गज़ल प्रस्तुत करेंगे। अब चूँकि उनकी गज़लों की फ़ेहरिश्त हमें देर से हासिल हुई, इसलिए वक्त लगना लाजिमी है। आज की गज़ल इसलिए भी खास है क्योंकि टिप्पणियों के माध्यम से कई बार शरद जी इसकी खूबसूरती का ज़िक्र कर चुके हैं। इतना होने के बावजूद हम इस गज़ल को टालने की सोच रहे थे क्योंकि इक़बाल बानो और

तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे..... पेश है ऐसी हीं एक महफ़िल

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१८ मु मकिन है कि मेरी इस बात पर कईयों की भौंहें तन जाएँ, कई सारे लोग मुझे देशभक्ति का सबक सिखाने को आतुर हो जाएँ तो कई सारे लोग इस पंक्ति से आगे हीं न पढें, लेकिन आज मैं जो कुछ कहने जा रहा हूँ, वह कई दिनों से मेरे सीने में दबा था और मुझे लगा कि आज का दिन हीं सबसे सटीक दिन है जिस दिन इस बात की चर्चा की जा सकती है। चूँकि हम सब संगीत के पुजारी हैं, संगीत के भक्त हैं और संगीत के देवी-देवताओं की खोज में रहा करते हैं,इसलिए जिस ओर भी हमें सुर और ताल की भनक लगती है, उसी ओर रूख कर लेते हैं। इसी संगीत की आराधना के लिए हमने महफ़िल-ए-गज़ल के इस अंक को भी सजाया है। अब इसे संयोग कहिए या फिर ऊपर वाले की कोई जानी-पहचानी साजिश कि आज की गज़ल से जो दो फ़नकार जुड़े हुए हैं,उनका हमारे मुल्क और हमारे पड़ोसी मुल्क से बड़ा हीं गहरा नाता है। और यही कारण है कि मैं कुछ लीक से हटकर कहने पर आमादा हुआ जा रहा हूँ। जब भी मैं गुलाम अली, मेहदी हसन जैसे फ़नकारों को सुनता हूँ या फिर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़,अहमद फ़राज़ जैसे शायरों को पढता हूँ तो मेरे दिल से यह आह उठती है कि काश हिन्दुस्तान का बँटवारा न हुआ होता,