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हम लाये हैं तूफानों के किश्ती निकाल के.....कवि प्रदीप का ये सन्देश जो आज भी मन से राष्ट्र प्रेम जगा जाता है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 527/2010/227 दो स्तों कल था १४ नवंबर, देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु का जन्मदिवस। नेहरु जी का बच्चों के प्रति अत्यधिक लगाव हुआ करता था। बच्चों के लिए उन्होंने बहुत सारा कार्य भी किया। इसी वजह से आज का यह दिन देश भर में 'बाल दिवस' के रूप में मनाया जाता है। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार। 'दिल की कलम से', इस शुंखला में आज हम लेकर आए हैं एक ऐसे कवि की बातें जो एक कवि होने साथ साथ एक उत्कृष्ट गीतकार और गायक भी थे, जिनकी लेखनी और गायकी में झलकता है उनका अपने देश के प्रति प्रेम और देशवासियों में जागरुक्ता लाने की शक्ति। जी हाँ, आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में ज़िक्र कवि प्रदीप का। कवि प्रदीप का जन्म १९१५ में मध्य प्रदेश के उज्जैन के बाधनगर में हुआ था। उनका पूरा नाम था रामचन्द्र नारायणजी द्विवेदी। उनकी शिक्षा अलाहाबाद में हुई और वहीं उन्होंने कविताएँ लिखनी शुरु की। गर्मियों की छुट्टियों मे वे मित्रों के घर जाया करते थे। ऐसी ही एक छुट्टी में वे बम्बई आये और उनकी मुलाक़ात हो गई बॊम्बे टॊकीज़ के हिमांशु राय से। उनकी लेखनी से प

लहरों पे लहर, उल्फत है जवाँ....हेमंत दा इस गीत में इतनी भारतीयता भरी है कि शायद ही कोई कह पाए ये गीत "इंस्पायर्ड" है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 441/2010/141 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक नई सप्ताह के साथ हम फिर एक बार हाज़िर हैं। दोस्तों, हमारे देश का संगीत विश्व का सब से पुराना व स्तरीय संगीत रहा है। प्राचीन काल से चली आ रही भारतीय शास्त्रीय संगीत पूर्णत: वैज्ञानिक भी है और यही कारण है कि आज पूरा विश्व हमारे इसी संगीत पर शोध कर रही है। जब फ़िल्म संगीत का जन्म हुआ, तब फ़िल्मी गीत इसी शास्त्रीय संगीत को आधार बनाकर तैयार किए जाने लगे। फिर सुगम संगीत का आगमन हुआ और फ़िल्मी गीतों में शास्त्रीय राग तो प्रयोग होते रहे लेकिन हल्के फुल्के अंदाज़ में। लोकप्रियता को देखते हुए मूल शास्त्रीय संगीत धीरे धीरे फ़िल्मी गीतों से ग़ायब होता चला गया। फिर पश्चिमी संगीत ने भी फ़िल्मी गीतों में अपनी जगह बना ली। इस तरह से कई परिवर्तनों से होते हुए फ़िल्म संगीत ने अपना लोकप्रिय पोशाक धारण किया। पश्चिमी असर की बात करें तो हमारे संगीतकारों ने ना केवल पश्चिमी साज़ों का इस्तेमाल किया, बल्कि समय समय पर विदेशी धुनों को भी अपने गीतों का आधार बनाया। ऐसे गीतों को हम सभ्य भाषा में 'इन्स्पायर्ड सॊंग्‍स' कहते हैं, जब कि

सावन में बरखा सताए....लीजिए एक शिकायत भी सुनिए मेघों की रिमझिम से

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 434/2010/134 'रि मझिम के तराने' शृंखला की चौथी कड़ी में आज प्रस्तुत है एक ऐसा गीत जिसमें है जुदाई का रंग। एक तरफ़ अपने प्रेमिका से दूरी खटक रही है, और दूसरी तरफ़ सावन की झड़ियाँ मन में आग लगा रही है, मिलन की प्यास को और भी ज़्यादा बढ़ा रही है। इस भाव पर तो बहुत सारे गानें समय समय पर बने हैं, लेकिन आज हमने जिस गीत को चुना है वह बड़ा ही सुरीला है, उत्कृष्ट है संगीत के लिहाज़ से भी, बोलों के लिहाज़ से भी, और गायकी के लिहाज़ से भी। यह है हेमन्त कुमार का गाया और स्वरबद्ध किया, तथा गीतकार गुलज़ार का लिखा हुआ फ़िल्म 'बीवी और मकान' का गीत "सावन में बरखा सताए, पल पल छिन छिन बरसे, तेरे लिए मन तरसे"। मैं यकीन के साथ तो नहीं कह सकता लेकिन मैंने कही पढ़ा है कि इस गीत को फ़िल्म में शामिल नहीं किया गया है। अगर यह सच है तो बड़े ही अफ़सोस की बात है कि इतना सुंदर गीत फ़िल्माया नहीं गया। ख़ैर, 'बीवी और मकान' १९६६ की फ़िल्म थी जिसका निर्देशन किया था ऋषी दा, यानी कि ऋषीकेश मुखर्जी ने, तथा फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे बिस्वजीत और कल्पना। फ़िल्म तो असफल

जितने अच्छे गायक थे, उतने ही बढ़िया संगीतकार भी थे हेमंत दा

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ४० युं तो शक़ील बदायूनी ने ज़्यादातर संगीतकार नौशाद साहब के लिए ही गीत लिखे, लेकिन दूसरे संगीतकारों के लिए लिखे उनके गानें भी उतने ही मक़बूल हुए थे। उन संगीतकारों में से कुछ नाम शक़ील साहब ने ख़ुद बताए थे अमीन सायानी के एक पुराने इंटरव्यू में जो रिकार्ड हुआ था १९६९ में, जब अमीन भाई ने उनसे पूछा था कि उनकी ज़बरदस्त कामयाबी का सब से ख़ास, सब से अहम राज़ क्या है। शक़ील साहब का जवाब था - "सन् '४६ का गीतकार होकर आज सन् '६९ में भी वही दर्जा हासिल किए हुए हूँ, इसका राज़ इसके सिवा कुछ नहीं अमीन साहब कि मैने हमेशा क्वांटिटी के मुक़ाबले क्वालिटी पर ज़्यादा ध्यान दिया। हालाँकि इस बात से मुझे कुछ माली क़ुरबानियाँ भी करनी पड़ी, मगर मेरा ज़मीर मुतमैन है कि मैने फ़िल्म इंडस्ट्री की ज़्यादा से ज़्यादा ख़िदमत की है, और मुझे फ़क्र है मैने बड़े बड़े पुराने संगीतकारों यानी कि खेमचंद प्रकाश, श्यामसुंदर, ग़ुलाम मोहम्मद, ख़ुर्शीद अनवर, सी. रामचन्द्र, सज्जाद, और नौशाद से लेकर रवि, हेमंत कुमार, कल्याणजी, एस. डी. बर्मन, सोनिक ओमी तक के साथ काम किया।" दोस्तों, आइए सुन

आज मुझे कुछ कहना है...जब साहिर की अधूरी चाहत को स्वर दिए सुधा मल्होत्रा और किशोर कुमार ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 402/2010/102 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर कल से हमने शुरु की है आप ही के पसंदीदा गीतों पर आधारित लघु शृंखला 'पसंद अपनी अपनी'। आज इसकी दूसरी कड़ी में प्रस्तुत है रश्मि प्रभा जी के पसंद का एक गीत। इससे पहले कि हम रश्मि जी के पसंद के गाने का ज़िक्र करें, हम यह बताना चाहेंगे कि ये वही रश्मि जी हैं जो एक जानी मानी लेखिका हैं, और प्रकाशन की बात करें तो "कादम्बिनी" , "वांग्मय", "अर्गला", "गर्भनाल" के साथ साथ कई महत्त्वपूर्ण अखबारों में उनकी रचनायें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित हुई है जिसमें अभी हाल ही में हिंद युग्म से प्रकाशित "शब्दों का रिश्ता" भी शामिल है. जिन्हे मालूम नहीं उनके लिए हम यह बता दें कि रश्मि जी कवि पन्त की मानस पुत्री श्रीमती सरस्वती प्रसाद की बेटी हैं और इनका नामकरण स्वर्गीय सुमित्रा नंदन पन्त जी ने ही किया था। रश्मि जी आवाज़ से भी सक्रिय रूप से जुड़ी हुईं हैं और कविताओं के अलावा 'आवाज़' के 'गुनगुनाते लम्हे' सीरीज़ में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। तो रश्

आ दो दो पंख लगा के पंछी बनेंगे...आईये लौट चलें बचपन में इस गीत के साथ

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 396/2010/96 पा र्श्वगायिकाओं के गाए युगल गीतों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला 'सखी सहेली' की आज की कड़ी में हमने जिन दो आवाज़ों को चुना है, वो दोनों आवाज़ें ही हिंदी फ़िल्म संगीत के लिए थोड़े से हट के हैं। इनमें से एक आवाज़ है गायिका आरती मुखर्जी की, जो बंगला संगीत में तो बहुत ही मशहूर रही हैं, लेकिन हिंदी फ़िल्मों में बहुत ज़्यादा सुनाई नहीं दीं हैं। और दूसरी आवाज़ है गायिका हेमलता की, जिन्होने वैसे तो हिंदी फ़िल्मों के लिए बहुत सारे गीत गाईं हैं, लेकिन ज़्यादातर गीत संगीतकार रवीन्द्र जैन के लिए थे, और उनमें से ज़्यादातर फ़िल्में कम बजट की होने की वजह से उन्हे वो प्रसिद्धी नहीं मिली जिनकी वो सही मायने में हक़दार थीं। ख़ैर, आज हम इन दोनों गायिकाओं के गाए जिस गीत को सुनवाने के लिए लाए हैं, वह गीत इन दोनों के करीयर के शुरूआती दिनों के थे। यह फ़िल्म थी १९६९ की फ़िल्म 'राहगीर', जिसका निर्माण गीतांजली चित्रदीप ने किया था। बिस्वजीत और संध्या अभिनीत इस फ़िल्म में हेमन्त कुमार का संगीत था और गीत लिखे गुलज़ार साहब ने। इसमें आरती मुखर

दे दी हमें आजादी बिना खडग बिना ढाल.....साबरमती के संत को याद कर रहा है आज आवाज़ परिवार

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 330/2010/30 आ ज है ३० जनवरी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का बलिदान दिवस। बापु के इस स्मृति दिवस को पूरा देश 'शहीद दिवस' के रूप में पालित करता है। बापु के साथ साथ देश के उन सभी वीर सपूतों को श्रद्धांजली अर्पित करने और सेल्युट करने का यह दिन है जिन्होने इस देश की ख़ातिर अपने प्राण न्योछावर कर दिए हैं। 'आवाज़' और 'हिंद युग्म' परिवार की ओर से, और हम अपनी ओर से इस देश पर मर मिटने वाले हर वीर सपूत को सलाम करते हैं, उनके सामने अपना सर झुका कर उन्हे सलामी देते हैं। आइए आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में सुनें कवि प्रदीप का लिखा हुआ वह गीत जो बापु पर लिखे गए तमाम गीतों में लोगों के दिलों में बहुत ही लोकप्रिय स्थान रखता है। आशा भोसले और साथियो की आवाज़ों में फ़िल्म 'जागृति' का यह गीत है "दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती की संत तूने कर दिया कमाल, रघुपति राघव राजा राम"। 'जागृति' १९५४ की फ़िल्म थी 'फ़िल्मिस्तान' के बैनर तले बनी हुई। यह एक देशभक्ति मूलक फ़िल्म थी जिसकी कहानी एक अध्यापक और उनके छात्रों के मधुर

वो शाम कुछ अजीब थी...जब किशोर दा की संजीदा आवाज़ में हेमंत दा के सुर थे

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 323/2010/23 आ ज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस कड़ी की शुरुआत में हम श्रद्धांजली अर्पित करते हैं इस देश के अन्यतम वीरों में से एक, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को, जिनकी आज जयंती है। उन पर कई फ़िल्में बनीं हैं, आज इस वक़्त मुझे ऐसी ही किसी फ़िल्म के जिस गीत की याद आ रही है वह है "झंकारो झंकारो झननन झंकारो, झंकारो अग्निवीणा, आज़ाद होके बंधुओं जीयो, ये जीना कोई जीना, ये जीना क्या जीना"। आइए अब आगे बढ़ते हैं और इंदु जी के पसंद का तीसरा गीत सुनते हैं ख़ामोशी से। मेरा मतलब है फ़िल्म 'ख़ामोशी' से। वैसे दोस्तों, यह गीत इतना भावुक और नायाब है कि इसे बिल्कुल ख़ामोश होकर ही सुनें तो बेहतर है। "वो शाम कुछ अजीब थी, ये शाम भी अजीब है, वो कल भी पास पास थी, वो आज भी करीब है"। गुलज़ार साहब के बेहद बेहद बेहद असरदार बोल, हेमन्त कुमार का दिल को छू लेनेवाला संगीत, और उस पर किशोर कुमार की गम्भीर गायकी, कुल मिलाकर एक ऐसा गीत बना है कि दशकों बाद भी आज जब भी कभी इस गीत को सुनते हैं तो हर बार यह दिल को उतना ही छू जाता है जितना कि उस दौर के लोगों का छूता होगा। आख़ि

मुझको तुम जो मिले ये जहान मिल गया...जिस अभिनेत्री को मिली गीता की सुरीली आवाज़, वो यही गाती नज़र आई

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 279 'गी तांजली' की नौवी कड़ी में आज गीता दत्त की आवाज़ सजने वाली है माला सिंहा पर। दोस्तों, हमने इस महफ़िल में माला सिंहा पर फ़िल्माए कई गीत सुनवा चुके हैं लेकिन कभी भी हमने उनकी चर्चा नहीं की। तो आज हो जाए? माला सिंहा का जन्म एक नेपाली इसाई परिवार में हुआ था। उनका नाम रखा गया आल्डा। लेकिन स्कूल में उनके सहपाठी उन्हे डाल्डा कहकर छेड़ने की वजह से उन्होने अपना नाम बदल कर माला रख लिया। कलकत्ते में कुछ बंगला फ़िल्मों में अभिनय करने के बाद माला सिंहा को किसी बंगला फ़िल्म की शूटिंग् के लिए बम्बई जाना पड़ा। वहाँ उनकी मुलाक़ात हुई थी गीता दत्त से। गीता दत्त को माला सिंहा बहुत पसंद आई और उन्होने उनकी किदार शर्मा से मुलाक़ात करवा दी। और शर्मा जी ने ही माला सिंहा को बतौर नायिका अपनी फ़िल्म 'रंगीन रातें' में कास्ट कर दी। लेकिन माला की पहली हिंदी फ़िल्म थी 'बादशाह' जिसमें उनके नायक थे प्रदीप कुमार। उसके बाद आई पौराणिक धार्मिक फ़िल्म 'एकादशी'। दोनों ही फ़िल्में फ़्लॊप रही और उसके बाद किशोर साहू की फ़िल्म 'हैमलेट' ने माला को दिलाई ख्यात

नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए.....आज भी बच्चे इस गीत को सुन मुस्कुरा देते हैं

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 261 "घ र से मस्जिद है बहुत दूर चलो युं कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए"। दोस्तों, किसी ने ठीक ही कहा है कि रोते हुए किसी बच्चे को हँसाने में और ख़ुदा की इबादत में कोई फ़र्क नहीं है। बच्चे इतने निष्पाप और मासूम होते हैं कि भगवान स्वयम् ही उनमें निवास करते हैं। बच्चों की इसी मासूमियत और भोलेपन में वह जादू होता है जो कठोर से कठोर इंसान का भी दिल पिघला दे। और यह कहते भी हैं कि वह व्यक्ति किसी का ख़ून भी कर सकता है जिसे बच्चे पसंद नहीं। तो दोस्तों, आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर अगले १० दिनों तक आप सुनेंगे बच्चों की इन्ही मासूमीयत और नटखट शरारतों में लिपटे हुए १० सदाबहार गीत जिन्हे बाल कलाकारों पर फ़िल्माए गए हैं और हमारे लिए जितना संभव हो सका है हमने ऐसे गानें चुनने की कोशिश की है जिन्हे बाल गायक गायिकाओं ने ही गाए हैं, चाहे मुख्य रूप से हों या फिर कोरस में। तो दोस्तों, अब अगले १० दिनों के लिए आप भी हमारे संग बच्चे बन जाइए और खो जाइए अपने बचपन की उस सजीली, रंग बिरंगी, सपनों भरी दुनिया में। आपकी ख़िदमत में ये है लघु शृंखला 'बचपन के दिन भुल

ये रात ये चांदनी फिर कहाँ, सुन जा दिल की दास्ताँ....पुरअसर आवाज़ संगीत और शब्दों का शानदार संगम

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 247 सा हिर लुधियानवी और सचिन देव बर्मन को एक साथ समर्पित शृंखला 'जिन पर नाज़ है हिंद को' में आप सभी का एक बार फिर से हार्दिक स्वागत है। लता, गीता, तलत, किशोर और मन्ना दा के बाद आज जिस गायक की आवाज़ साहिर साहब के बोलों पर और दादा बर्मन की धुनों पर हवाओं में गूँजेंगी, उस गायक का नाम है हेमन्त कुमार। जब भी साहिर और सचिन दा की एक साथ बात चलती है, यकायक 'नवकेतन' बैनर की याद भी आ ही जाती है। और क्यों ना आए, इसी बैनर के तले ही तो इस गीतकार - संगीतकार जोड़ी ने ५० के दशक के शुरुआती सालों में एक से एक बेहतरीन नग़में हमें दिए थे। सचिन दा ने नवकेतन बैनर की पहली फ़िल्म 'अफ़सर' में संगीत दिया था १९५० में। उसके बाद १९५१ में आई सुपरहिट फ़िल्म 'बाज़ी', जिसका एक गीत आप सुन चुके हैं। १९५२ में नवकेतन ने बनाई 'आंधियाँ', लेकिन इसके संगीत के लिए चुना गया था उस्ताद अली अक़बर ख़ान साहब को। देव आनंद और कल्पना कार्तिक अभिनीत यह फ़िल्म नहीं चली, लेकिन हेमन्त दा का गाया "दिल है किसी दीवाने का" गीत मशहूर हुआ था। १९५२ में भले ही बर्मन दादा ने

ओ बेकरार दिल हो चुका है मुझको आंसुओं से प्यार....लता का गाया एक बेमिसाल गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 239 क ल हमने बात की थी हेमन्त कुमार के निजी बैनर 'गीतांजली पिक्चर्स' के तले बनी फ़िल्म 'ख़ामोशी' की। हेमन्त दा के इस बैनर तले बनी फ़िल्मों और उनके मीठे संगीत का ही शायद यह असर है कि एक गीत से दिल ही नहीं भरता इसलिए आज हम एक बार फिर सुनने जा रहे हैं उनके इसी बैनर तले निर्मित फ़िल्म 'कोहरा' से एक और गीत, इससे पहले इस फ़िल्म का हेमन्त दा का ही गाया " ये नयन डरे डरे " आप इस महफ़िल में सुन चुके हैं। आज इस फ़िल्म से सुनिए लता मंगेशकर की आवाज़ में "ओ बेक़रार दिल हो चुका है मुझको आँसुओं से प्यार"। 'बीस साल बाद' और 'कोहरा' हेमन्त दा के इस बैनर की दो उल्लेखनीय सस्पेन्स फ़िल्में रहीं। आइए आज 'कोहरा' की कहानी आपको बताई जाए। अपने पिता के मौत के बाद राजेश्वरी अनाथ हो जाती है, और बोझ बन जाती है एक विधवा पर जो माँ है एक ऐसे बेटे रमेश की जिसकी मानसिक हालत ठीक नहीं। उस औरत का यह मानना है कि अगर राजेश्वरी रमेश से शादी कर ले तो वो ठीक हो जाएगा। लेकिन राजेश्वरी को कतई मंज़ूर नहीं कि वो उस पागल से शादी करे, इसलिए वो

दोस्त कहाँ कोई तुमसा...."सिस्टर्स" की सेवाओं को समर्पित एक अनूठा नगमा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 238 हे मन्त कुमार के निजी बैनर 'गीतांजली पिक्चर्स' के बारे में हम आपको पहले ही बता चुके हैं जब हमने आपको फ़िल्म ' बीस साल बाद ' और ' कोहरा ' के दो गीत सुनवाए थे। इसी बैनर के तले उन्होने १९६९ में फ़िल्म बनाई 'ख़ामोशी'। यह फ़िल्म हिंदी सिनेमा का एक बड़ा ही ख़ूबसूरत और उल्लेखनीय अध्याय माना जाता है। आशुतोष मुखर्जी की कहानी पर बनी इस फ़िल्म का निर्देशन किया था असित सेन ने, संवाद और गीत लिखे गुलज़ार ने, संगीत था हेमन्त कुमार का और फ़िल्म के मुख्य चरित्रों में थे राजेश खन्ना व वहीदा रहमान। फ़िल्म जितनी सार्थक थी, उतने ही लोकप्रिय हुए इसके गानें। चाहे वह लता जी का गाया "हमने देखी है इन आँखों की महकती ख़ुशबू" हो या किशोर दा का गाया "वह शाम कुछ अजीब थी", या फिर हेमन्त दा का ही गाया "तुम पुकार लो, तुम्हारा इंतज़ार है"। इन तीन हिट गीतों के अलावा दो और गीत थे इस फ़िल्म में, एक आरती मुखर्जी का गाया हुआ और दूसरा मन्ना डे साहब का गाया हुआ, जो फ़िल्माया गया था कॊमेडियन देवेन वर्मा पर, जिन्होने फ़िल्म में एक मरीज़ की

दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी है....राग केदार पर आधारित था ये भजन

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 229 भा रतीय शास्त्रीय संगीत इतना पौराणिक है कि इसके विकास के साथ साथ कई देवी देवताओं के नाम भी इसके साथ जुड़ते चले गए हैं। शिवरंजनी और शंकरा की तरह राग केदार भी भगवान शिव को समर्पित है। जी हाँ, आज हम इसी राग केदार की बात करेंगे। केदार एक महत्वपूर्ण राग है। भारतीय शास्त्रीय संगीत की रागदारी में जितने भी मौलिक स्तंभ हैं, राग केदार के अलावा शायद ही कोई राग होगा जिसमें ये सारी मौलिकताएँ समा सके। राग केदार की खासियत है कि यह हर तरह के जौनर में आसानी से घुलमिल जाता है जैसे कि ध्रुपद, धमार, ख़याल, ठुमरी वगेरह। पारंपरिक तौर पर राग केदार के प्रकार हैं शुद्ध केदार, मलुहा केदार और जलधर केदार। इनके अलावा केदार के कई वेरियशन्स् हैं जैसे कि बसंती केदार, केदार बहार, दीपक केदार, तिलक केदार, श्याम केदार, आनंदी केदार, आदम्बरी केदार, और नट केदार। केदार राग केवल उत्तर भारत तक ही सीमीत नहीं रहा, बल्कि इसका प्रसार दक्षिण में भी हुआ, कर्नाटक शैली में यह जाना गया हमीर कल्याणी के नाम से। फ़िल्म संगीत में इस राग का प्रयोग बहुत सारे संगीतकारों ने किया है। १९७१ की फ़िल्म 'गुड्डी'

छुपालो यूं दिल में प्यार मेरे कि जैसे मंदिर में लौ दिए की...हर सुर पवित्र हर शब्द पाक

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 222 रा ग यमन एक ऐसा राग है जिसकी उंगली थाम हर संगीत विद्यार्थी शास्त्रीय संगीत सीखने के मैदान में उतरता है। इसके पीछे भी कारण है। राग यमन के असंख्य रूप हैं, कई नज़रिए हैं। यमन के मूल रूप को आधार बना कर बहुत से राग रागिनियाँ बनाई जा सकती है। यह राग मौका देती है संगीतज्ञों को नए नए प्रयोग करने के लिए, संगीत के नए नए आविष्कार करने के लिए। आज भी शास्त्रीय संगीत के गुरु अपने छात्रों को सब से पहले राग यमन पर दक्षता हासिल करने की सलाह दिया करते हैं क्योंकि एक बार यमन सिद्धहस्थ हो जाए तो बाक़ी के राग बड़ी आसानी से रप्त हो जाएँगे। वो कहते हैं ना कि "एक साधे सब साधे", बस वही बात है, एक बार यमन को मुट्ठी में कर लिया तो आप इस सुर संसार पर राज कर सकते हैं। जैसा कि अभी हमने आपको बताया कि राग यमन के बहुत सारे रूप हैं, तो उनमें एक महत्वपूर्ण है राग यमन कल्याण। आज 'दस राग दस रंग' में इसी राग की बारी। इस राग पर फ़िल्मों में असंख्य गीत बने हैं, जिनमें से एक बेहद सुरीला और उत्कृष्ट गीत हम चुन कर लाए हैं। यह गीत फ़िल्म 'ममता' का है, जिसे रोशन के संगीत में

चंदनिया नदिया बीच नहाए, वो शीतल जल में आग लगाए...लोक रंग में रंग ये गीत कलमबद्ध किया राजेंद्र कृष्ण ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 208 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल को आज हम रंग रहे हैं लोक संगीत के रंग से। यह एक ऐसा गीत है जिसे शायद बहुत दिनों से आप ने नहीं सुना होगा, और आप में से बहुत लोग इसे भूल भी गए होंगे। लेकिन कहीं न कहीं हमारी दिल की वादियों में ये भूले बिसरे गानें गूंजते ही रहते हैं और कभी कभार झट से ज़हन में आ जाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे इस गीत की याद हमें आज अचानक आयी है। दोस्तों, हेमन्त कुमार की एकल आवाज़ में फ़िल्म 'अंजान' का यह गीत है "चंदनिया नदिया बीच नहाए, वो शीतल जल में आग लगाए, के चंदा देख देख मुस्काए, हो रामा हो"। दोस्तों, यह फ़िल्म १९५६ में आयी थी। इससे पहले कि हम इस फ़िल्म की और बातें करें, मुझे थोड़ा सा संशय है इस 'अंजान' शीर्षक पर बनी फ़िल्मों को लेकर। इस गीत के बारे में खोज बीन करते हुए मुझे एक और फ़िल्म 'अंजान' का पता चला जो उपलब्ध जानकारी के अनुसार १९५२ में प्रदर्शित हुई थी 'सनराइज़ पिक्चर्स' के बैनर तले, जिसके मुख्य कलाकार थे प्रेमनाथ और वैजयनंतीमाला, संगीतकार थे मदन मोहन तथा गीतकार थे क़मर जलालाबादी। अब संशय की बात