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कारवाँ सिने-संगीत का : 1933 की दो उल्लेखनीय फिल्में

भारतीय सिनेमा के सौ साल – 42 कारवाँ सिने-संगीत का वाडिया मूवीटोन की फिल्म ‘लाल-ए-यमन’ और हिमांशु राय की ‘कर्म’ भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ द्वारा आयोजित विशेष अनुष्ठान- ‘कारवाँ सिने संगीत का’ में आप सभी सिनेमा-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत है। आज माह का चौथा गुरुवार है और इस दिन हम ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ स्तम्भ के अन्तर्गत ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के संचालक मण्डल के सदस्य सुजॉय चटर्जी की प्रकाशित पुस्तक ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ से किसी रोचक प्रसंग का उल्लेख करते हैं। आज के अंक में सुजॉय जी 1933 में ‘वाडिया मूवीटोन’ के गठन और इसी संस्था द्वारा निर्मित फिल्म ‘लाल-ए-यमन’ का ज़िक्र कर रहे हैं। इसके साथ ही देविका रानी और हिमांशु राय अभिनीत पहली ‘ऐंग्लो-इण्डियन’ को-प्रोडक्शन फ़िल्म ‘कर्म’ की चर्चा भी कर रहे हैं। 1933 की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि रही ‘वाडिया मूवीटोन’ का गठन। वाडिया भाइयों, जे. बी. एच. वाडिया और होमी वाडिया, ने इस कंपनी के ज़रिए स्टण्ट और ऐक्शन फ़िल्मों का दौर शुरु किया। दरअसल वाडिया भाइयों ने मूक फ़िल्मों के जौनर म

उडी हवा में जाती है गाती चिड़िया....देविका रानी के अभिनय और स्वर की कहानी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 613/2010/313 हिं दी फ़िल्मों के शुरुआती दौर में हमारी समाज व्यवस्था कुछ इस तरह की थी कि अच्छे घरों के महिलाओं का इस क्षेत्र में आना असम्भव वाली बात थी। इस पुरुष शासित समाज में औरतों पर लगाये जाने वाले प्रतिबंधों में यह भी एक शामिल था। बावजूद इसके कुछ सशक्त और साहसी महिलाओं ने इस परम्परा के ख़िलाफ़ जाते हुए फ़िल्म जगत में क़दम रखा, अपना करीयर संवारा, और दूसरी महिलाओं के लिए इस राह पर चलना आसान बनाया। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इन दिनों चल रही लघु शृंखला 'कोमल है कमज़ोर नहीं' की आज तीसरी कड़ी में बातें एक ऐसी अदाकारा व निर्मात्री की जिन्हें First Lady of the Indian Screen कहा जाता है। कर्नल चौधरी की बेटी और कविगुरु रबीन्द्रनाथ ठाकुर की पर-भाँजी (grand niece) देविका रानी को समर्पित है आज का यह अंक। ३० और ४० के दशकों में देविका रानी ने अपनी अदाकारी और फ़िल्म निर्माण से पूरे हिंदुस्तान के लोगों का दिल जीत लिया। उनका जन्म आंध्र प्रदेश के वाल्टियर में ३० मार्च १९०७ में हुआ था। १९२० के दशक में वो लंदन चली गयीं जहाँ उन्होंने रॊयल अकादमी ऒफ़ आर्ट्स ऐण्ड म्युज़िक

मैं बन की चिड़िया बन के.....ये गीत है उन दिनों का जब भारतीय रुपहले पर्दे पर प्रेम ने पहली करवट ली थी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 551/2010/251 न मस्कार दोस्तों! स्वागत है बहुत बहुत आप सभी का 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस सुरीली महफ़िल में। पिछली कड़ी के साथ ही पिछले बीस अंकों से चली आ रही लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' सम्पन्न हो गई, और आज से एक नई लघु शृंखला का आग़ाज़ हम कर रहे हैं। और यहाँ पर आपको इस बात की याद दिला दूँ कि यह साल २०१० की आख़िरी लघु शृंखला होगी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। जी हाँ, देखते ही देखते यह साल भी अब विदाई के मूड में आ गया है। तो कहिए साल के आख़िरी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' लघु शृंखला को कैसे यादगार बनाया जाए? क्योंकि साल के इन आख़िरी कुछ दिनों में हम सभी छुट्टी के मूड में होते हैं, हमारा मिज़ाज हल्का फुल्का होता है, मौसम भी बड़ा ख़ुशरंग होता है, इसलिए हमने सोचा कि इस लघु शृंखला को कुछ बेहद सुरीले प्यार भरे युगल गीतों से सजायी जाये। जब से फ़िल्म संगीत की शुरुआत हुई है, तभी से प्यार भरे युगल गीतों का भी रिवाज़ चला आ रहा है, और उस ज़माने से लेकर आज तक ये प्रेम गीत ना केवल फ़िल्मों की शान हैं, बल्कि फ़िल्म के बाहर भी सुनें तो एक अलग ही अनुभूति प्रदान