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अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल.. अपने शोख कातिल से ग़ालिब की इस गुहार के क्या कहने!!

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७८ दे खते -देखते हम चचा ग़ालिब को समर्पित आठवीं कड़ी के दर पर आ चुके हैं। हमने पहली कड़ी में आपसे जो वादा किया था कि हम इस पूरी श्रृंखला में उन बातों का ज़िक्र नहीं करेंगे जो अमूमन हर किसी आलेख में दिख जाता है, जैसे कि ग़ालिब कहाँ के रहने वाले थे, उनका पालन-पोषण कैसे हुआ.. वगैरह-वगैरह.. तो हमें इस बात की खुशी है कि पिछली सात कड़ियों में हम उस वादे पर अडिग रहे। यकीन मानिए.. आज की कड़ी में भी आपको उन बातों का नामो-निशान नहीं मिलेगा। ऐसा कतई नहीं है कि हम ग़ालिब की जीवनी नहीं देना चाह्ते... जीवनी देने में हमें बेहद खुशी महसूस होगी, लेकिन आप सब जानते हैं कि हमारी महफ़िल का वसूल रहा है- महफ़िल में आए कद्रदानों को नई जानकारियों से मालामाल करना, ना कि उन बातों को दुहराना जो हर गली-नुक्कड़ पर लोगों की बातचीत का हिस्सा होती है। और यही वज़ह है कि हम ग़ालिब का "बायोडाटा" आपके सामने रखने से कतराते हैं। चलिए..बहुत हुआ "अपने मुँह मियाँ-मिट्ठु" बनना.. अब थोड़ी काम की बातें कर ली जाएँ!! तो आज की कड़ी में हम ग़ालिब पर निदा फ़ाज़ली साहब के मन्त्वय और ग़ालिब की हीं कित