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‘कारवाँ सिने संगीत का’

भारतीय सिनेमा के सौ साल – 45 कारवाँ सिने-संगीत का फिल्मों में पार्श्वगायन की शुरुआत : ‘मैं ख़ुश होना चाहूँ, हो न सकूँ...’   भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ द्वारा आयोजित विशेष अनुष्ठान- ‘कारवाँ सिने संगीत का’ में आप सभी सिनेमा-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत है। आज माह का दूसरा गुरुवार है और इस दिन हम ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ स्तम्भ के अन्तर्गत ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के संचालक मण्डल के सदस्य सुजॉय चटर्जी की प्रकाशित पुस्तक ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ से किसी रोचक प्रसंग का उल्लेख करते हैं। आज के अंक में सुजॉय जी 1935 की फिल्मों में संगीत की स्थिति पर चर्चा आरम्भ कर रहे हैं।  के. सी. डे 1935 वर्ष को हिंदी सिने-संगीत के इतिहास का एक स्मरणीय वर्ष माना जाएगा। संगीतकार रायचंद बोराल ने, अपने सहायक और संगीतकार पंकज मल्लिक के साथ मिलकर ‘न्यू थिएटर्स’ में प्लेबैक पद्धति, अर्थात पार्श्वगायन की शुरुआत की। पर्दे के बाहर रेकॉर्ड कर बाद में पर्दे पर फ़िल्माया गया पहला गीत था फ़िल्म ‘धूप छाँव’ का, और वह गीत था के. सी. डे का गाया “तेरी ग

समाज-सुधार का दायित्व निभाती दो फिल्में

भारतीय सिनेमा के सौ साल – 44 कारवाँ सिने-संगीत का 1934 की दो फिल्में : ‘चण्डीदास’ और ‘अमृत मन्थन’ भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ द्वारा आयोजित विशेष अनुष्ठान- ‘कारवाँ सिने संगीत का’ में आप सभी सिनेमा-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत है। आज माह का दूसरा गुरुवार है और इस दिन हम ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ स्तम्भ के अन्तर्गत ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के संचालक मण्डल के सदस्य सुजॉय चटर्जी की प्रकाशित पुस्तक ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ से किसी रोचक प्रसंग का उल्लेख करते हैं। आज के अंक में सुजॉय जी 1934 में ‘न्यू थिएटर्स’ की फिल्म ‘चण्डीदास’ और ‘प्रभात’ द्वारा निर्मित फिल्म ‘अमृत मन्थन’ का ज़िक्र कर रहे हैं। इन फिल्मों ने समाज में व्याप्त रूढ़ियों के विरुद्ध जनमानस को प्रेरित करने में अग्रणी भूमिका का निर्वहन किया था।  सहगल 1934 की सबसे चर्चित फ़िल्म थी ‘न्यू थिएटर्स’ की ‘चण्डीदास’। उमा शशि के साथ सहगल की जोड़ी बनी और इस फ़िल्म ने चारों तरफ़ कामयाबी के परचम लहरा दिए। भले ही सहगल के पहले के गीत भी काफ़ी लोकप्रिय हुए थे, पर सही मायने में सहगल

कारवाँ सिने-संगीत का : 1933 की दो उल्लेखनीय फिल्में

भारतीय सिनेमा के सौ साल – 42 कारवाँ सिने-संगीत का वाडिया मूवीटोन की फिल्म ‘लाल-ए-यमन’ और हिमांशु राय की ‘कर्म’ भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ द्वारा आयोजित विशेष अनुष्ठान- ‘कारवाँ सिने संगीत का’ में आप सभी सिनेमा-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत है। आज माह का चौथा गुरुवार है और इस दिन हम ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ स्तम्भ के अन्तर्गत ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के संचालक मण्डल के सदस्य सुजॉय चटर्जी की प्रकाशित पुस्तक ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ से किसी रोचक प्रसंग का उल्लेख करते हैं। आज के अंक में सुजॉय जी 1933 में ‘वाडिया मूवीटोन’ के गठन और इसी संस्था द्वारा निर्मित फिल्म ‘लाल-ए-यमन’ का ज़िक्र कर रहे हैं। इसके साथ ही देविका रानी और हिमांशु राय अभिनीत पहली ‘ऐंग्लो-इण्डियन’ को-प्रोडक्शन फ़िल्म ‘कर्म’ की चर्चा भी कर रहे हैं। 1933 की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि रही ‘वाडिया मूवीटोन’ का गठन। वाडिया भाइयों, जे. बी. एच. वाडिया और होमी वाडिया, ने इस कंपनी के ज़रिए स्टण्ट और ऐक्शन फ़िल्मों का दौर शुरु किया। दरअसल वाडिया भाइयों ने मूक फ़िल्मों के जौनर म

कृष्णचन्द्र डे और कुन्दनलाल सहगल की गायकी

भारतीय सिनेमा के सौ साल – 41 कारवाँ सिने-संगीत का   न्यू थिएटर्स की पूरन भगत और यहूदी की लड़की भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ द्वारा आयोजित विशेष अनुष्ठान- ‘कारवाँ सिने संगीत का’ में आप सभी सिनेमा-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत है। आज माह का दूसरा गुरुवार है और इस दिन हम ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ स्तम्भ के अन्तर्गत ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के संचालक मण्डल के सदस्य सुजॉय चटर्जी की प्रकाशित पुस्तक ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ से किसी रोचक प्रसंग का उल्लेख करते हैं। आज के अंक में सुजॉय जी न्यू थिएटर्स द्वारा १९३३ में निर्मित दो फिल्मों- पूरन भगत और यहूदी की लड़की के गीतों की चर्चा कर रहे हैं।  क लकत्ते की न्यू थिएटर्स ने १९३३ में तीन महत्वपूर्ण फ़िल्में बनाई – ‘पूरन भगत’, ‘राजरानी मीरा’, और ‘यहूदी की लड़की’। बोराल और सहगल की जोड़ी ने पुन: अपना जादू जगाया ‘पूरन भगत’ में। राग बिहाग और यमन-कल्याण पर आधारित “राधे रानी दे डारो ना” हो या “दिन नीके बीते जाते हैं सुमिरन कर पिया राम नाम”, फ़िल्म के सभी गीत, जो मूलत: भक्ति रस पर आधारित थे, लोकप्रिय