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चित्रकथा - 2: बिमल रॉय की मृत्यु की अजीबोग़रीब दास्तान

अंक - 2 बिमल रॉय की मृत्यु की अजीबोग़रीब दास्तान “अमृत कुंभ की खोज में...” 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। समूचे विश्व में मनोरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम सिनेमा रहा है और भारत कोई व्यतिक्रम नहीं है। बीसवीं सदी के चौथे दशक से सवाक् फ़िल्मों की जो परम्परा शुरु हुई थी, वह आज तक जारी है और इसकी लोकप्रियता निरन्तर बढ़ती ही चली जा रही है। और हमारे यहाँ सिनेमा के साथ-साथ सिने-संगीत भी ताल से ताल मिला कर फलती-फूलती चली आई है। सिनेमा और सिने-संगीत, दोनो ही आज हमारी ज़िन्दगी के अभिन्न अंग बन चुके हैं। हमारी दिलचस्पी का आलम ऐसा है कि हम केवल फ़िल्में देख कर या गाने सुनने तक ही अपने आप को सीमित नहीं रखते, बल्कि फ़िल्म संबंधित हर तरह की जानकारियाँ बटोरने का प्रयत्न करते रहते हैं। इसी दिशा में आपके हमसफ़र बन कर हम आते हैं हर शनिवार ’चित्रकथा’ लेकर। ’चित्रकथा’ एक ऐसा स्तंभ है जिसमें बातें होंगी चित्रपट की और चित्रपट-संगीत की। फ़िल्म और फ़िल्म-संगीत से जुड़े विषयों से सुसज्जित इस पाठ्य स्तंभ के दूसरे अंक में आपका हार्दिक

अब के बरस भेज भैया को बाबुल....एक अमर गीत एक अमर फिल्म से

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 178 श रद तैलंग जी के पसंद पर कल आप ने फ़िल्म 'विद्यापति' का गीत सुना था लता जी की आवाज़ में, आज सुनिए लता जी की बहन आशा जी की आवाज़ में फ़िल्म संगीत के सुनहरे युग का एक और सुनहरा नग़मा। ससुराल में ज़िंदगी बिता रही हर लड़की के दिल की आवाज़ है यह गीत "अब के बरस भेज भ‍इया को बाबुल सावन में लीजो बुलाए रे, लौटेंगी जब मेरे बचपन की सखियाँ, दीजो संदेसा भिजाए रे"। हमारे देश के कई हिस्सों में यह रिवाज है कि सावन के महीने में बहू अपने मायके जाती हैं, ख़ास कर शादी के बाद पहले सावन में। इसी परम्परा को इन ख़ूबसूरत शब्दों में ढाल कर गीतकार शैलेन्द्र ने इस गीत को फ़िल्म संगीत का एक अनमोल नगीना बना दिया है। इस गीत को सुनते हुए हर शादी-शुदा लड़की का दिल भर आता है, बाबुल की यादें, अपने बचपन की यादें एक बार फिर से तर-ओ-ताज़ा हो जाती हैं उनके मन में। देश की हर बहू अपना बचपन देख पाती हैं इस गीत में। फ़िल्म 'बंदिनी' का यह गीत फ़िल्माया गया था नूतन पर। 'बंदिनी' सन् १९६३ की एक नायिका प्रधान फ़िल्म थी जिसका निर्माण व निर्देशन किया था बिमल राय ने। जरासंध

छोटा सा घर होगा बादलों की छाँव में....सपनों को पंख देती किशोर कुमार की आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 163 प्रो फ़. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम ने कहा है कि "Dream is not something that we see in sleep; Dream is something that does not allow us to sleep"| इस एक लाइन में उन्होने कितनी बड़ी बात कही हैं। सच ही तो है, सपने तभी सच होते हैं जब उसको पूरा करने के लिए हम प्रयास भी करें। केवल स्वप्न देखने से ही वह पूरा नहीं हो जाता। ख़ैर, आप भी सोच रहे होंगे कि मैं किस बात को लेकर बैठ गया। दरअसल इन दिनों आप सुन रहे हैं किशोर कुमार के गीतों से सजी लघु शृंखला 'दस रूप ज़िंदगी के और एक आवाज़', जिसके तहत हम किशोर दा की आवाज़ के ज़रिये ज़िंदगी के दस अलग अलग पहलुओं पर रोशनी डाल रहे हैं, और आजका पहलू है 'सपना'। जी हाँ, वही सपना जो हर इंसान देखता है, कोई सोते हुए देखता है तो कोई जागते हुए। किसी को ज़िंदगी में बड़ा नाम कमाने का सपना होता है, तो किसी को अर्थ कमाने का। आप यूं भी कह सकते हैं कि यह दुनिया सपनों की ही दुनिया है। आज किशोर दा की आवाज़ के ज़रिये हम जो सपना देखने जा रहे हैं वह मेरे ख़याल से हर आम आदमी का सपना है। हर आदमी अपने परिवार को सुखी देखना चाहता

हरियाला सावन ढोल बजाता आया....मानसून की आहट पर कान धरे है ये मधुर समूहगान

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 91 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के लिए आज हम एक बड़ा ही अनोखा समूहगान लेकर आये हैं। सन् १९५३ में बिमल राय की एक मशहूर फ़िल्म आयी थी 'दो बीघा ज़मीन'। बिमल राय ने अपना कैरियर कलकत्ते के 'न्यू थियटर्स' में शुरु किया था और उसके बाद मुंबई आकर 'बौम्बे टाकीज़' से जुड़ गये जहाँ पर उन्होने कुछ फ़िल्में निर्देशित की जैसे कि १९५२ में बनी फ़िल्म 'माँ'। उस वक़्त 'बौम्बे टाकीज़' बंद होने के कगार पर थी। इसलिए बिमलदा ने अपनी 'प्रोडक्शन' कंपनी की स्थापना की और अपने कलकत्ते के तीन दोस्त, सलिल चौधरी, नवेन्दु घोष और असित सेन के साथ मिलकर सलिल चौधरी की बंगला उपन्यास 'रिक्शावाला' को आधार बनाकर 'दो बीघा ज़मीन' बनाने की ठानी। सलिलदा की बेटी अंतरा चौधरी ने एक बार बताया था इस फ़िल्म के बारे में, सुनिए उन्ही के शब्दों में - " १९५२ में ऋत्विक घटक बिमलदा को 'रिक्शावाला' दिखाने ले गये। बिमलदा इस फ़िल्म से इतने प्रभावित हुए कि उन्होने मेरे पिताजी को अपनी कंपनी के साथ जुड़ने का न्योता दे बैठे, और इस तरह से बुनियाद पड़ी

जब से मिली तोसे अखियाँ जियरा डोले रे...हो डोले...हो डोले...हो डोले...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 13 दो स्तों नमस्कार! 'ओल्ड इस गोल्ड' के एक और कडी के साथ हम हाज़िर हैं. आशा है आप हर रोज़ 'ओल्ड इस गोल्ड' को सुन रहे होंगे और हर रोज़ पूछी गयी पहेली को बूझने का भी प्रयास करते होंगे. हमारा आप से यह अनुरोध है कि अगर आपके जेहन में ऐसा कोई ख़ास गीत है जिसे आप ने बहुत दिनों से नहीं सुना और इस शृंखला के अंतर्गत सुनना चाहते हैं तो हमें ज़रूर लिखिएगा. अगर गीत हमारे पास उपलब्ध होगा तो हम उसे ज़रूर शामिल करेंगे. और आइए अब आते हैं हमारे आज के गीत पर. आज का गीत हमने चुना है 1955 में बनी फिल्म "अमानत" से. यह फिल्म बिमल रॉय प्रोडएक्शन के 'बॅनर' तले बनाई गयी थी. इससे पहले बिमल रॉय "दो बीघा ज़मीन" और "नौकरी" जैसे फिल्मों का निर्माण कर चुके थे. "अमानत" फिल्म का निर्देशन किया अरविंद सेन ने, और इसके मुख्य कलाकार थे भारत भूषण और चाँद उस्मानी. दो बीघा ज़मीन और नौकरी की तरह अमानत में भी सलिल चौधुरी का संगीत था. बिमल-दा और सलिल-दा गहरे दोस्त थे और इन दोनो ने कई फिल्मों में साथ साथ काम किया. गीतकार शैलेंद्रा भी इनके काफ़

तू जिन्दा है तो जिंदगी की जीत में यकीन कर

अमर गीतकार और कवि शैलेन्द्र की ४२वीं पुण्यतिथि पर विशेष "अपने बारे में लिखना कोई सरल काम नही होता. किंतु कोई आदमी फंस जाए तो ! तो लिखना आवश्यक हो जाता है. मैं भी लिखने बैठा हूँ. बाहर बूंदा-बांदी हो रही है. मौसम बड़ा सुहाना है. कभी कभी तेज़ हवा के झोंखों से परदे फड़फड़ा उठते हैं. जैसे उड़ान भरने की कोशिश कर रहें हो ! मेरी कल्पना में अतीत के धुंधले चित्र स्पष्ट होने लगते हैं. पुरानी स्मृतियाँ उममें ऐसा रंग, जो तन मन मिट जाने पर भी ना मिटे...." (कवि और गीतकार शैलेन्द्र की आत्मकथा से) और आज से ४२ साले पहले, स्मृतियों के आकाश में विचरता वो जन साधारण के मन की बात कहने वाला कवि शरीर रूपी पिंजरा छोड़ हमेशा के लिए कहीं विलुप्त हो गया पर दे गया कुछ ऐसे गीत जो सदियों-सदियों गुनगुनाये जायेंगें, कुछ ऐसे नग्में जो हर आमो-ख़ास के दिल के जज़्बात को जुबाँ देते रहेंगे बरसों बरस. वो जिसने लिखा "दुनिया न भाये मुझे अब तो बुला ले" (बसंत बहार), उसी ने लिखा "पहले मुर्गी हुई कि अंडा" (करोड़पति), वो जिसने लिखा "डस गया पापी बिछुआ" उसी ने लिखा "क्या से क्या हो गया बेवफा

सलिल दा के बहाने येसुदास की बात

बीते १९ तारीख को हम सब के प्रिय सलिल दा की ८६ वीं जयंती थी, लगभग १३ साल पहले वो हम सब को छोड़ कर चले गए थे, पर देखा जाए इन्ही १३ सालों में सलिल दा की लोकप्रियता में जबरदस्त इजाफा हुआ है, आज की पीढी को भी उनका संगीत समकालीन लगता है, यही सलिल दा की सबसे बड़ी खासियत है. उनका संगीत कभी बूढा ही नही हुआ. सलिल दा एक कामियाब संगीतकार होने के साथ साथ एक कवि और एक नाटककार भी थे और १९४० में उन्होंने इप्टा से ख़ुद को जोड़ा था. उनके कवि ह्रदय ने सुकांता भट्टाचार्य की कविताओं को स्वरबद्ध किया जिसे हेमंत कुमार ने अपनी आवाज़ से सजाया. लगभग ७५ हिन्दी फिल्मों और २६ मलयालम फिल्मों के अलावा उन्होंने बांग्ला, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, गुजरती, मराठी, असामी और ओडिया फिल्मों में अच्छा खासा काम किया. सलिल दा की पिता डाक्टर ज्ञानेंद्र चौधरी एक डॉक्टर होने के साथ साथ संगीत के बहुत बड़े रसिया भी थे. अपने पिता के वेस्टर्न क्लासिकल संगीत के संकलन को सुन सुन कर सलिल बड़े हुए. असाम के चाय के बागानों में गूंजते लोक गीतों और और बांग्ला संगीत का भी उन पर बहुत प्रभाव रहा. वो ख़ुद भी गाते थे और बांसुरी भी खूब बजा लेते थे. अपने पि

मोरा गोरा अंग लेई ले....- गुलज़ार, एक परिचय

गुलज़ार बस एक कवि हैं और कुछ नही, एक हरफनमौला कवि, जो फिल्में भी लिखता है, निर्देशन भी करता है, और गीत भी रचता है, मगर वो जो भी करता है सब कुछ एक कविता सा एहसास देता है. फ़िल्म इंडस्ट्री में केवल कुछ ही ऐसे फनकार हैं, जिनकी हर अभिव्यक्ति संवेदनाओं को इतनी गहराई से छूने की कुव्वत रखती है, और गुलज़ार उन चुनिन्दा नामों में से एक हैं, जो इंडस्ट्री की गलाकाट प्रतियोगी वातावरण में भी अपना क्लास, अपना स्तर कभी गिरने नही देते. गुलज़ार का जन्म १९३६ में, एक छोटे से शहर दीना (जो अब पाकिस्तान में है) में हुआ, शायरी, साहित्य और कविता से जुडाव बचपन से ही जुड़ गया था, संगीत में भी गहरी रूचि थी, पंडित रवि शंकर और अली अकबर खान जैसे उस्तादों को सुनने का मौका वो कभी नही छोड़ते थे. ( चित्र में हैं सम्पूरण सिंह यानी आज के गुलज़ार ) गुलज़ार और उनके परिवार ने भी भारत -पाकिस्तान बँटवारे का दर्द बहुत करीब से महसूस किया, जो बाद में उनकी कविताओं में बहुत शिद्दत के साथ उभर कर आया. एक तरफ़ जहाँ उनका परिवार अमृतसर (पंजाब , भारत) आकर बस गया, वहीँ गुलज़ार साब चले आए मुंबई, अपने सपनों के साथ. वोर्ली के एक गेरेज में, ब