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भोजपुरी के शेक्सपीयर पद्मश्री भिखारी ठाकुर

स्वरगोष्ठी - ७० में आज एक लोक-कलाकार, जो आजन्म रूढ़ियों के विरुद्ध संघर्षरत रहा लोक-कलाकारों का सही-सही मूल्यांकन प्रायः हम उनके जीवनकाल में नहीं कर पाते। भोजपुरी के कवि, गायक, संगीतकार, नाटककार, अभिनेता, निर्देशक और नर्तक भिखारी ठाकुर भी एक ऐसे व्यक्तित्व थे, जिनके कार्यों का वास्तविक मूल्यांकन उनके जाने के बाद ही हुआ। उन्होने लोक-कला-विधाओं का उपयोग, तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरीतियों के विरुद्ध किया। शा स्त्रीय, उपशास्त्रीय और लोक-संगीत पर केन्द्रित अपने साप्ताहिक स्तम्भ 'स्वरगोष्ठी' के एक नये अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। मित्रों आज लोक-कला की बारी है और आज के अंक में हम आपसे भोजपुरी साहित्य और कला-क्षेत्र के एक बहुआयामी व्यक्तित्व- भिखारी ठाकुर और उनके कृतित्व पर चर्चा करेंगे। १८ दिसम्बर, १८८७ को बिहार के सारण जिला-स्थित कुतुबपुर दियारा ग्राम में एक नाई परिवार में इस महाविभूति का जन्म हुआ था। भिखारी ठाकुर का जन्म एक ऐसे भारतीय परिवेश में हुआ था, जब भारतीय मान्यताएँ ब्रिटिश सत्ता के आतंक के कारण पतनोन्मुख

एक आम आदमी जिसने भोजपुरी को बना दिया खास...

भिखारी ठाकुर की जयंती पर हमारी संगीतमयी प्रस्तुति भिखारी ठाकुर एक आम आदमी के सतह से शिखर तक की बेजोड़ मिसाल हैं भिखारी ठाकुर... बहुत कम लोग होते हैं जो जीते-जी विभूति बन जाते हैं... दरअसल, इस भिखारी ठाकुर की जीवन-यात्रा भिखारी से ठाकुर होने की यात्रा ही है...फर्क सिर्फ यह है कि लीजेंड बनने की यह यात्रा भिखारी ने किसी रुपहले पर्दे पर नहीं असल ज़िंदगी में जिया. भोजपुरी के नाम पर सस्ता मनोरंजन परोसने की परंपरा भी उतनी ही पुरानी है, जितना भोजपुरी का इतिहास....18 दिसंबर 1887 को छपरा के कुतुबपुर दियारा गांव में एक निम्नवर्गीय नाई परिवार में जन्म लेने वाले भिखारी ठाकुर ने विमुख होती भोजपुरी संस्कृति को नया जीवन दिया.....उन्होंने भोजपुरी संस्कृति को सामीजिक सरोकारों के साथ ऐसा पिरोया कि अभिव्यक्ति की एक धारा भिखारी शैली जानी जाने लगी...आज भी सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार का सशक्त मंच बन कर जहाँ-तहाँ भिखारी ठाकुर के नाटकों की गूंज सुनाई पड़ ही जाती है.... value="transparent"> भिखारी ठाकुर के स्वर में उन्हीं की कविता 'डगरिया जोहता ना" . यह काव्यपाठ 'बिदेसिया' फिल्म