Skip to main content

Posts

Showing posts with the label begum abida parveen

साहिब मेरा एक है.. अपने गुरू, अपने साई, अपने साहिब को याद कर रही है कबीर, आबिदा परवीन और गुलज़ार की तिकड़ी

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #११२ न शे इकहरे ही अच्छे होते हैं। सब कहते हैं दोहरे नशे अच्छे नहीं। एक नशे पर दूसरा नशा न चढाओ, पर क्या है कि एक कबीर उस पर आबिदा परवीन। सुर सरूर हो जाते हैं और सरूर देह की मिट्टी पार करके रूह मे समा जाता है। सोइ मेरा एक तो, और न दूजा कोये । जो साहिब दूजा कहे, दूजा कुल का होये ॥ कबीर तो दो कहने पे नाराज़ हो गये, वो दूजा कुल का होये ! गुलज़ार साहब के लिए यह नशा दोहरा होगा, लेकिन हम जानते हैं कि यह नशा उससे भी बढकर है, यह तिहरा से किसी भी मायने में कम नहीं। आबिदा कबीर को गा रही हैं तो उनकी आवाज़ के सहारे कबीर की जीती-जागती मूरत हमारे सामने उभर आती है, इस कमाल के लिए आबिदा की जितनी तारीफ़ की जाए कम है। लेकिन आबिदा गाना शुरू करें उससे पहले सबा के झोंके की तरह गुलज़ार की महकती आवाज़ माहौल को ताज़ातरीन कर जाती है, इधर-उधर की सारी बातें फौरन हीं उड़न-छू हो जाती है और सुनने वाला कान को आले से उतारकर दिल के कागज़ पर पिन कर लेता है और सुनता रहता है दिल से.. फिर किसे खबर कि वह कहाँ है, फिर किसे परवाह कि जग कहाँ है! ऐसा नशा है इस तिकड़ी में कि रूह पूरी की पूरी डूब जाए, मदमाती रहे औ

दिल मगर कम किसी से मिलता है... बड़े हीं पेंचो-खम हैं इश्क़ की राहो में, यही बता रहे हैं जिगर आबिदा

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८८ "को "कोई अच्छा इनसान ही अच्छा शायर हो सकता है।" ’जिगर’ मुरादाबादी का यह कथन किसी दूसरे शायर पर लागू हो या न हो, स्वयं उन पर बिलकुल ठीक बैठता है। यों ऊपरी नज़र डालने पर इस कथन में मतभेद की गुंजाइश कम ही नज़र आती है लेकिन इसको क्या किया जाए कि स्वयं ‘जिगर’ के बारे में कुछ समालोचकों का मत यह है कि जब वह अच्छे इनसान नहीं थे, तब बहुत अच्छे शायर थे। ’जिगर’ के बारे में खुद कुछ कहूँ (इंसान खुद कुछ कहने की हालत में तभी आता है, जब उसने उस शख्सियत पर गहरा शोध कर लिया हो और मैं यह मानता हूँ कि मैने जिगर साहब की बस कुछ गज़लें पढी हैं, उनपर आधारित अली सरदार ज़ाफ़री का "कहकशां" देखा है और उनके बारे में कुछ बड़े लेखकों के आलेख पढे हैं.... इससे ज्यादा कुछ नहीं किया...... इसलिए मुझे नहीं लगता कि मैं इस काबिल हूँ कि अपनी लेखनी से दो शब्द या दो बोल निकाल सकूँ) इससे बेहतर मैंने यही समझा कि हर बार की तरह "प्रकाश पंडित" जी की पुस्तक का सहारा लिया जाए। तो अभी ऊपर मैंने ’जिगर’ की जो हल्की-सी झांकी दिखाई, वो "प्रकाश पंडित" जी की मेहरबानी से हीं संभ

वाह-वाह रम्ज़ सजन दी होर..... महफ़िल-ए-अथाह और "बाबा बुल्ले शाह"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #२३ ए क शख्स जिसे उसकी लीक से हटकर धारणाओं और भावनाओं के कारण गैर-इस्लामिक करार दिया गया और जिसे कज़ा के बाद भी अपने समुदाय का कब्रिस्तान नसीब न हुआ,क्योंकि आसपास के मुल्लाओं को उसकी बातों में "काफ़िर" होने की बू आती थी, नियति का यह खेल देखिए कि आज उसे पूरी दुनिया में इबादत के शिखर पर स्थान दिया जाता है और उसके दर्शन और लेखन की तुलना "रूमि" और "शम्स-ए-तबरिज़" से की जाती है। जन्म से मुसलमान होने के बावजूद उसकी प्रसिद्धि सारे धर्मों में एक-सी है, दरवेश और बुद्धिजीवी उसे "दोनों दुनिया का शेख","खुदा का बंदा" कहकर संबोधित करते हैं और न सिर्फ़ पंजाब बल्कि पूरे मुल्क या कहिए पूरी दुनिया में "पराभौतिक/रहस्यवादी" कविता का जानकार उससे अच्छा नहीं मिलता। उसे "सूफी-साहित्य का शिखर-पुरूष" कहने वाले भी कम नहीं है। "क़सुर" में उसके कब्र के पास की ज़मीन आज भी इंसानियत का दम भरती है और आज भी उस जगह पर बड़े-छोटे का भेदभाव नहीं होता, वहाँ जो भी जाता है कुछ न कुछ हासिल करके हीं आता है। उसका जन्म कब हुआ, इसकी सही