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मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता.. चलिए याद करें हम ग़म-ए-रोज़गार से खस्ताहाल चचा ग़ालिब को

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७१ हो गा कोई ऐसा भी कि ग़ालिब को न जाने शायर तो वो अच्छा है प' बदनाम बहुत है। इस शेर को पढने के बाद आप समझ हीं गए होंगे कि आज की महफ़िल किसकी शान में सजी है। आज से बस दो दिन पहले यानि कि १५ फरवरी को इस महान शायर की मौत की १४१वीं बरसी थी। संयोग देखिए कि उससे महज़ दो दिन पहले यानि कि १३ फरवरी को इस शायर के सच्चे और एकमात्र उत्तराधिकारी फैज़ अहमद फ़ैज़ की भी बरसी थी.. फ़र्क बस इतना था कि फ़ैज़ ने १३ फ़रवरी को जन्म लिया था तो १५ फ़रवरी को ग़ालिब ने अपनी अंतिम साँसें ली थीं। आज हमारे बीच फ़ैज़ भी नहीं हैं। इसलिए हम आज अपनी महफ़िल की ओर से इन दोनों महान शायरों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। आपने शायद यह गौर किया हो कि हमारी महफ़िल में आज से पहले फ़ैज़ की चार गज़लें/नज़्में शामिल हो चुकी हैं, लेकिन हमने आज तक ग़ालिब की एक भी गज़ल महफ़िल में पेश नहीं की है। अब यह तो हो हीं नहीं सकता कि कोई महफ़िल सजे, सजती रहे और सजते-सजते सत्तर रातें गुजर जाएँ लेकिन उस महफ़िल में उस शायर का नाम न लिया जाए जिसके बिना महफ़िल क्या, शायरी की छोटी-सी गुफ़्तगू भी अधूरी है। और फिर अगर ऐसा हमारी