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"बजाओ रे बजाओ, इमानदारी से बजाओ, पचास हज़ार खर्च कर दिये..."

एक गीत सौ कहानियाँ - 27   ‘ जय जय शिवशंकर, काँटा लगे न कंकड़ ...’ 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! दोस्तों, हम रोज़ाना रेडियो पर, टीवी पर, कप्यूटर पर, और न जाने कहाँ-कहाँ, जाने कितने ही गीत सुनते हैं, और गुनगुनाते हैं। ये फ़िल्मी नग़में हमारे साथी हैं सुख-दुख के, त्योहारों के, शादी और अन्य अवसरों के, जो हमारी ज़िन्दगियों से कुछ ऐसे जुड़े हैं कि इनके बिना हमारी ज़िन्दगी बड़ी ही सूनी और बेरंग होती। पर ऐसे कितने गीत होंगे जिनके बनने की कहानियों से, उनसे जुड़ी दिलचस्प क़िस्सों से आप अवगत होंगे? बहुत कम, है न? कुछ जाने-पहचाने, और कुछ कमसुने फ़िल्मी गीतों की रचना प्रक्रिया, उनसे जुड़ी दिलचस्प बातें, और कभी-कभी तो आश्चर्य में डाल देने वाले तथ्यों की जानकारियों को समेटता है 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' का यह साप्ताहिक स्तंभ 'एक गीत सौ कहानियाँ'। इसकी 27-वीं कड़ी में आज हम आपके लिए लेकर आये हैं फ़िल्म 'आपकी कसम' के मशहूर गीत "जय जय शिवशंकर, काँटा लगे न कंकड़" से संबंधित कुछ दिलचस्प तथ्यों की जानकारियाँ

फिल्म 'सौ साल बाद' का रागमाला गीत

प्लेबैक इण्डिया ब्रोडकास्ट रागो के रंग, रागमाला गीत के संग – 6 राग भटियार, आभोगी, मेघ मल्हार और बसन्त बहार में पिरोया गया रागमाला गीत ‘एक ऋतु आए एक ऋतु जाए...’ फिल्म : सौ साल बाद (1966) गायक : लता मंगेशकर और मन्ना डे गीतकार : आनन्द बक्शी संगीतकार : लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल आलेख : कृष्णमोहन मिश्र स्वर एवं प्रस्तुति : संज्ञा टण्डन   आपको हमारी यह प्रस्तुति कैसी लगी? अपनी प्रतिक्रिया और सुझाव से हमें radioplaybackindia@live.com पर अवश्य अवगत कराएँ। 

"डफ़ली वाले डफ़ली बजा..." - शुरू-शुरू में नकार दिया गया यह गीत ही बना फ़िल्म का सफ़लतम गीत

कभी-कभी ऐसे गीत भी कमाल दिखा जाते हैं जिनसे निर्माण के समय किसी को कोई उम्मीद ही नहीं होती। शुरू-शुरू में नकार दिया गया गीत भी बन सकता है फ़िल्म का सर्वाधिक लोकप्रिय गीत। एक ऐसा ही गीत है फ़िल्म 'सरगम' का "डफ़ली वाले डफ़ली बजा"। यही है आज के 'एक गीत सौ कहानियाँ' के चर्चा का विषय। प्रस्तुत है इस शृंखला की १७-वीं कड़ी सुजॉय चटर्जी के साथ... एक गीत सौ कहानियाँ # 17 फ़िल्म इंडस्ट्री एक ऐसी जगह है जहाँ किसी फ़िल्म के प्रदर्शित होने तक कोई १००% भरोसे के साथ यह नहीं कह सकता कि फ़िल्म चलेगी या नहीं, यहाँ तक कि फ़िल्म के गीतों की सफ़लता का भी पूर्व-अंदाज़ा लगाना कई बार मुश्किल हो जाता है। बहुत कम बजट पर बनी फ़िल्म और उसके गीत भी कई बार बहुत लोकप्रिय हो जाते हैं और कभी बहुत बड़ी बजट की फ़िल्म और उसके गीत-संगीत को जनता नकार देती है। मेहनत और लगन के साथ-साथ क़िस्मत भी बहुत मायने रखती है फ़िल्म उद्योग में। संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के संगीत सफ़र का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था फ़िल्म 'सरगम' का संगीत। १९७९ में प्रदर्शित इस फ़िल्म का "ड

वतन पे जो फ़िदा होगा....जब आनंद बख्शी की कलम ने स्वर दिए मंगल पाण्डेय की कुर्बानी को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 727/2011/167 ‘ओ ल्ड इज गोल्ड’ पर जारी श्रृंखला ‘वतन के तराने’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ। दोस्तों, इस श्रृंखला में देशभक्ति से परिपूर्ण गीतों के माध्यम से हम अपने उन पूर्वजों का स्मरण कर रहे हैं, जिनके त्याग और बलिदान के कारण आज हम उन्मुक्त हवा में साँस ले रहे हैं। आज के अंक में हम 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के नायक और प्रथम बलिदानी मंगल पाण्डेय के अदम्य साहस और आत्मबलिदान की चर्चा करेंगे, साथ ही गीतकार आनन्द बक्शी का इन्हीं भावों से ओतप्रोत एक प्रेरक गीत भी सुनवाएँगे। कानपुर के बिठूर में निर्वासित जीवन बिता रहे पेशवा बाजीराव द्वितीय का निधन 14जनवरी, 1851 को हो गया था। उनके दत्तक पुत्र नाना साहब को पेशवा का पद प्राप्त हुआ। अंग्रेजों ने नाना साहब को पेशवा बाजीराव का वारिस तो मान लिया था, किन्तुपेंशन देना स्वीकार नहीं किया। तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति के जानकार नाना साहब अन्दर ही अन्दर अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति की योजना बनाने लगे। तीर्थयात्रा के बहाने उन्होने स्थान-स्थान पर अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति के लिए लोगों को

कभी रात दिन हम दूर थे.....प्यार बदल देता है जीने के मायने और बदल देता है दूरियों को "मिलन" में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 714/2011/154 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! सजीव सारथी की लिखी कविताओं की किताब ' एक पल की उम्र लेकर ' से चुनी हुई १० कविताओं पर आधारित शृंखला की आज चौथी कड़ी में हमनें जिस कविता को चुना है, उसका शीर्षक है ' मिलन '। हम मिलते रहे रोज़ मिलते रहे तुमने अपने चेहरे के दाग पर्दों में छुपा रखे थे मैंने भी सब ज़ख्म अपने बड़ी सफ़ाई से ढाँप रखे थे मगर हम मिलते रहे - रोज़ नए चेहरे लेकर रोज़ नए जिस्म लेकर आज, तुम्हारे चेहरे पर पर्दा नहीं आज, हम और तुम हैं, जैसे दो अजनबी दरअसल हम मिले ही नहीं थे अब तक देखा ही नहीं था कभी एक-दूसरे का सच आज मगर कितना सुन्दर है - मिलन आज, जब मैंने चूम लिए हैं तुम्हारे चेहरे के दाग और तुमने भी तो रख दी है मेरे ज़ख्मों पर - अपने होठों की मरहम। मिलन की परिभाषा कई तरह की हो सकती है। कभी कभी हज़ारों मील दूर रहकर भी दो दिल आपस में ऐसे जुड़े होते हैं कि शारीरिक दूरी उनके लिए कोई मायने नहीं रखती। और कभी कभी ऐसा भी होता है कि वर्षों तक साथ रहते हुए भी दो शख्स एक दूजे के लिए अजनबी ही रह जाते हैं। और कभी कभी मिलन की आस लिए द

एक हसीना थी, एक दीवाना था....एक कहानी नुमा गीत जिसमें फिल्म की पूरी तस्वीर छुपी है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 678/2011/118 'ए क था गुल और एक थी बुलबुल' शृंखला में कल आपने १९७९ की फ़िल्म 'मिस्टर नटवरलाल' का गीत सुना था। जैसा कि हमने कल बताया था कि आनन्द बक्शी साहब के लिखे दो गीत आपको सुनवायेंगे, तो आज की कड़ी में सुनिये उनका लिखा एक और ज़बरदस्त कहानीनुमा गीत। यह केवल कहानीनुमा गीत ही नहीं, बल्कि उसकी फ़िल्म का सार भी है। पुनर्जनम की कहानी पर बनने वाली फ़िल्मों में एक महत्वपूर्ण नाम है 'कर्ज़' (१९८०)। राज किरण और सिमी गरेवाल प्रेम-विवाह कर लेते हैं। राज को भनक तक नहीं पड़ी कि सिमी ने दरअसल उसके बेहिसाब जायदाद को पाने के लिये उससे शादी की है। और फिर एक दिन धोखे से सिमी राज को गाड़ी से कुचल कर पहाड़ से फेंक देती है। राज किरण की मौत हो जाती है और सिमी अपने स्वर्गवासी पति के एस्टेट की मालकिन बन जाती है। लेकिन कहानी अभी ख़त्म नहीं हुई। प्रकृति भी क्या क्या खेल रचती है! राज दोबारा जनम लेता है ॠषी कपूर के रूप में, और जवानी की दहलीज़ तक आते आते उसे अपने पिछले जनम की याद आ जाती है और किस तरह से वो सिमी से बदला लेता है अपने इस जनम की प्रेमिका टिना मुनीम के

मेरे पास आओ मेरे दोस्तों एक किस्सा सुनो....लीजिए एक बार फिर बच्चे बनकर आनंद लें इस कहानी का

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 677/2011/117 क हानीनुमा फ़िल्मी गीतों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की आज की कड़ी में हम जिस गीतकार की रचना सुनवाने जा रहे हैं, उन्हीं के लिखे हुए गीत के मुखड़े को इस शृंखला का नाम दिया गया है। जी हाँ, "एक था गुल और एक थी बुलबुल" के लेखक आनन्द बक्शी, जिन्होंने इस गीत के अलावा भी कई कहानीनुमा गीत लिखे हैं। इनमें से दो गीत तो इस क़दर मशहूर हुए हैं कि उन्हें अगर इस शृंखला में शामिल न करें तो मज़ा ही नहीं आयेगा। तो चलिये आज और कल की कड़ियों में बक्शी साहब के लिखे दो हिट गीतों का आनन्द लें। अब तक इस शृंखला में आपनें जितने भी गीत सुनें, वो ज़्यादातर राजा-रानी की कहानियों पर आधारित थे। लेकिन आज का जो हमारा गीत है, उसमें क़िस्सा है एक शेर का। बच्चों को शेर से बड़ा डर लगता है, और जहाँ डर होता है, वहीं दिलचस्पी भी ज़्यादा होती है। इसलिये शेर और जंगल की कहानियाँ बच्चों को बहुत पसंद आते हैं। अभी हाल ही में बक्शी साहब के बेटे राकेश जी से हमारी मुलाक़ात में उन्होंने बताया था कि बक्शी साहब हर रोज़ एक नई कहानी, एक नई किताब पढ़ते थे, और गीत लेखन क

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 43 - बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनंद बक्शी

नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। दोस्तों, पिछले तीन हफ़्तों से इसमें हम आप तक पहुँचा रहे हैं फ़िल्म जगत के सफलतम गीतकारों में से एक, आनन्द बक्शी साहब के सुपुत्र राकेश बक्शी से की हुई बातचीत पर आधारित लघु शृंखला 'बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनन्द बक्शी'। इस शृंखला की पिछली तीन कड़ियाँ आप नीचे लिंक्स पर क्लिक करके पड्ज़ सकते हैं। भाग-१ भाग-२ भाग-३ आइए आज प्रस्तुत है इस ख़ास बातचीत की चौथी व अंतिम कड़ी। सुजॉय - नमस्कार राकेश जी, और फिर एक बार स्वागत है 'हिंद-युग्म' के 'आवाज़' मंच पर। राकेश जी - नमस्कार! सुजॉय - पिछले सप्ताह हमारी बातचीत आकर रुकी थी बक्शी साहब के गाये गीत पर, "बाग़ों में बहार आई"। बात यहीं से आगे बढ़ाते हैं, क्या कहना चाहेंगे बक्शी साहब के गायन प्रतिभा के बारे में? राकेश जी - बक्शी जी को गायन से प्यार था और अपने आर्मी और नेवी के दिनों में अपने साथियों को गाने सुना कर उनका मनोरंजन करते थे। और आर्मी में रहते हुए ही उनके साथियों नें उनको गायन के लिये प्रोत्साहित किया। उन साथियों नें

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 42 - बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनंद बक्शी

अब तक आपने पढ़ा भाग १ भाग २ नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। दोस्तों, शनिवार की इस ख़ास प्रस्तुति को पिछले दो हफ़्तों से हम ख़ास बना रहे हैं फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध गीतकार आनंद बक्शी के बेटे राकेश बक्शी के साथ बातचीत कर। पिछली दो कड़ियों में आपनें जाना कि किस तरह का माहौल हुआ करता था बक्शी साहब के घर का, कैसी शिक्षा/अनुशासन उन्होंने अपने बच्चों को दी, उनकी जीवन-संगिनी नें किस तरह का साथ निभाया, और भी कई दिल को छू लेने वाली बातें। आइए बातचीत के उसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हैं। प्रस्तुत है शृंखला 'बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनंद बक्शी' की तीसरी कड़ी। सुजॉय - राकेश जी, नमस्कार! मैं, हिंद-युग्म की तरफ़ से आपका फिर एक बार स्वागत करता हूँ। राकेश जी - नमस्कार! सुजॉय - राकेश जी, आज सबसे पहले तो मैं आपको यह बता दूँ कि यह जो हमारी और आपकी बातचीत चल रही है, यह हमारे पाठकों को बहुत पसंद आ रही है। और यही नहीं, इसकी इंटरव्यु की चर्चा मीडिया तक पहुँच चुकी है। पिछले सोमवार को 'हिंदुस्तान' अखबार में इसके कुछ अंश प्रकाशित हुए थे। यह हमार