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कहीं शेर-ओ-नग़मा बन के....तलत साहब की आवाज़ में एक दुर्लभ गैर फ़िल्मी गज़ल

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 360/2010/60 'द स महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़', तलत महमूद पर केन्द्रित इस ख़ास पेशकश की अंतिम कड़ी में आपका फिर एक बार हम स्वागत करते हैं। दोस्तों, किसी भी इंसान की जो जड़ें होती हैं, वो इतने मज़बूत होती हैं, कि ज़िंदगी में एक वक़्त ऐसा आता है जब वह अपने उसी जड़ों की तलाश करता है, उसी की तरफ़ फिर एक बार रुख़ करने की कोशिश करता है। तलत महमूद सहब के गायन की शुरुआत ग़ैर फ़िल्मी रचनाओं के साथ हुई थी जब उन्होने "सब दिन एक समान नहीं था" से अपना करीयर शुरु किया था। फिर उसके बाद कमल दासगुप्ता के संगीत में उनका पहला कामयाब ग़ैर फ़िल्मी गीत आया, "तसवीर तेरी दिल मेरा बहला ना सकेगी"। तलत साहब के अपने शब्दों में "१९४१ में मैंने अपना पहला गीत रिकार्ड करवाया था "तसवीर तेरी दिल मेरा..."। फ़य्याज़ हशमी ने इसे लिखा था और कमल दासगुप्ता की तर्ज़ थी। मैं अपनी तारीफ़ ख़ुद नहीं करना चाहता पर तसवीर पर इससे बेहतरीन गीत आज तक नहीं हुआ है। " तो हम बात करे थे अपने जड़ों की ओर वापस मुड़ने की। तो तलत साहब, जिन्होने ग़ैर फ़िल्मी गीत से अपने

यादों का सहारा न होता हम छोड के दुनिया चल देते....और चले ही तो गए तलत साहब

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 359/2010/59 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोताओं व पाठकों को हमारी तरफ़ से होली की हार्दिक शुभकामनाएँ। इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है तलत महमूद पर केन्द्रित शृंखला 'दस महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़'। जैसा कि हमने आप से पहली ही कहा था कि तलत महमूद की गाई ग़ज़लों की इस ख़ास शृंखला के दस में से नौ ग़ज़लें फ़िल्मों से चुनी हुई होगी और आख़िरी ग़ज़ल हम आपको ग़ैर फ़िल्मी सुनवाएँगे। तो आज बारी है आख़िरी फ़िल्मी ग़ज़ल की। ६० के दशक के आख़िर के सालों में फ़िल्म संगीत पर पाश्चात्य संगीत इस क़दर हावी हो गया कि गीतों से नाज़ुकी और मासूमियत कम होने लगी। ऐसे में वो कलाकार जो इस बदलाव के साथ अपने आप को बदल नहीं सके, वो धीरे धीरे फ़िल्मों से दूर होते चले गए। इनमें कई कलाकार अपनी स्वेच्छा से पीछे हो लिए तो बहुत सारे अपने आप को इस परिवर्तन में ढाल नहीं सके। तलत महमूद उन कलाकारों में से थे जो स्वेच्छा से ही इस जगत को त्याग दिया और ग़ैर फ़िल्म संगीत जगत में अपने आप को व्यस्त कर लिया। आज हमने एक ऐसी ग़ज़ल चुनी है जो बनी थी सन‍ १९६९ में। फ़िल्म 'पत्थ

जब छाए कहीं सावन की घटा....याद आते हैं तलत साहब और भी ज्यादा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 357/2010/57 द र्द भरे गीतों के हमदर्द तलत महमूद की मख़मली आवाज़ और कोमल स्वभाव से यही निचोड़ निकलता है कि फूल से भी चोट खाने वाला नाज़ुक दिल था उनका। और वैसी ही उनके गीत जो आज भी हमें सुकून देते हैं, हमारे दर्द के हमदर्द बनते हैं। तलत साहब का रहन सहन, उनका स्वभाव, उनके गीतों की ही तरह संजीदा और उनके दिल वैसा ही नाज़ुक था, बिल्कुल उनके नग़मों की तरह; सॊफ़्ट स्पोकेन नेचर वाली तलत साहब के अमर, लाजवाब गीतों और ग़ज़लों को आज भी चाहते हैं लोग। और यही वजह है कि इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हमने आयोजित की है उनकी गाई हुई ग़ज़लों पर आधारित एक ख़ास शृंखला 'दस महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़'। आज हम जिस ग़ज़ल को सुनवाने जा रहे हैं वह है सन् १९६० की एक फ़िल्म का। दोस्तों, ५० का दशक तलत महमूद का दशक था। या युं कहिए कि ५० के दशक मे तलत साहब सब से ज़्यादा सक्रीय भी रहे और सब से ज़्यादा उनके कामयाब गानें इस दशक में बनें। ६० के दशक के आते आते फ़िल्म संगीत में जो बदलाव आ रहे थे, गीतों से और फ़िल्मों से मासूमियत जिस तरह से कम होती जा रही थी, ऐसे में तलत साहब का क

हर शाम शाम-ए-ग़म है, हर रात है अँधेरी...शेवन रिज़वी का दर्द और तलत का अंदाज़े बयां

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 356/2010/56 'द स महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़' की आज की कड़ी में फिर एक बार शायर शेवन रिज़्वी का क़लाम पेश-ए-ख़िदमत है। दोस्तों, तलत महमूद ने "शाम-ए-ग़म" पर बहुत सारे गीत गाए हैं। दो जो सब से ज़्यादा मशहूर हुए, वो हैं "शाम-ए-ग़म की क़सम आज ग़मगीं हैं हम, आ भी जा" और "फिर वही शाम, वही ग़म, वही तन्हाई है, दिल को समझाने तेरी याद चली आई है"। हमने इन दो गीतों का ज़िक्र यहाँ इसलिए किया क्योंकि आज जिस ग़ज़ल की बारी है इस महफ़िल में, वह भी 'शाम-ए-ग़म' से ही जुड़ा हुआ है। जैसा कि हमने बताया शेवन रिज़्वी की लिखी हुई ग़ज़ल, तलत साहब की आवाज़ और संगीत है हाफ़िज़ ख़ान का। जी हाँ, वही हाफ़िज़ ख़ान, जो ख़ान मस्ताना के नाम से गाने गाया करते थे, ठीक वैसे ही जैसे सी. रामचन्द्र चितलकर के नाम से। ख़ैर, यह ग़ज़ल है फ़िल्म 'मेरा सलाम' का, जो बनी थी सन् १९५७ में। इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे भारत भूषण और बीना राय। तलत साहब ने इस फ़िल्म में आज की इस ग़ज़ल के अलावा एक और मशहूर ग़ज़ल गाई थी "सलाम तुझको ऐ दुनिया अब आख़िरी है

तेरा ख़याल दिल को सताए तो क्या करें...तलत साहब को उनकी जयंती पर ढेरों सलाम

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 355/2010/55 आ ज २४ फ़रवरी है, फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध पार्श्व गायक तलत महमूद साहब का जनमदिवस। उन्ही को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की ख़ास पेशकर इन दिनों आप सुन रहे हैं 'दस महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़'। दोस्तों, इस शृंखला में हमने दस ऐसे लाजवाब ग़ज़लों को चुना है जिन्हे दस अलग अलग शायर-संगीतकार जोड़ियों ने रचे हैं। अब तक हमने साहिर - सचिन, मजरूह - जमाल सेन, नक्श ल्यायलपुरी - स्नेहल, और शेवन रिज़्वी - धनीराम/ख़य्याम की रचनाएँ सुनवाए हैं। आज एक और नायाब जोड़ी की ग़ज़ल पेश-ए-ख़िदमत है। यह जोड़ी है प्रेम धवन और पंडित गोबिन्दराम की। लेकिन आज की ग़ज़ल का ज़िक्र अभी थोड़ी देर में हम करेंगे, उससे पहले आपको हम बताना चाहेंगे कि किस तरह से तलत महमूद साहब ने अपना पहला फ़िल्मी गीत रिकार्ड करवाया था। तलत महमूद जब बम्बई में जमने लगे थे तब एक अफ़वाह फैल गई कि वो गाते वक़्त नर्वस हो जाते हैं। उनके गले की लरजिश को नर्वसनेस का नाम दिया गया। इससे उनके करीयर पर विपरीत असर हुआ। तब संगीतकार अनिल बिस्वास ने यह बताया कि उनके गले की यह कम्पन ही उनकी आवाज़ की खासियत है

गर तेरी नवाज़िश हो जाए...अंदाज़े मुहब्बत और आवाजे तलत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 354/2010/54 'द स महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़' शृंखला की यह है चौथी कड़ी। १९५४ में तलत महमूद के अभिनय व गायन से सजी दो फ़िल्में आईं थी - 'डाक बाबू' और 'वारिस'। इनके अलावा बहुत सारी फ़िल्मों में इस साल उनकी आवाज़ छाई रही जैसे कि 'मिर्ज़ा ग़ालिब', 'टैक्सी ड्राइवर', 'अंगारे', 'सुबह का तारा', 'कवि', 'मीनार', 'सुहागन', 'औरत तेरी यही कहानी', और 'गुल बहार'। आज की कड़ी के लिए हमने चुना है फ़िल्म 'गुल बहार' की एक ग़ज़ल "गर तेरी नवाज़िश हो जाए"। संगीतकार हैं धनीराम और ख़य्याम। इस फ़िल्म में तीन गीतकारों ने गीत लिखे हैं - असद भोपाली, जाँ निसार अख़्तर और शेवन रिज़्वी। प्रस्तुत ग़ज़ल के शायर हैं शेवन रिज़्वी। नानुभाई वकील निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे शक़ीला, हेमन्त और कुलदीप कौर। दोस्तों, जमाल सेन और स्नेहल भाटकर की तरह धनीराम भी एक बेहद कमचर्चित संगीतकार रहे। यहाँ तक कि उन्हे बी और सी-ग्रेड की फ़िल्में भी बहुत ज़्यादा नहीं मिली। फिर भी जितना भी का

आंसू तो नहीं है आँखों में....तलत के स्वरों में एक और ग़मज़दा नगमा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 352/2010/52 आ 'दस महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़'। तलत महमूद साहब के गाए १० बेमिसाल ग़ज़लों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस ख़ास पेशकश की दूसरी महफ़िल में आप सभी का स्वागत है। इससे पहले कि आज की ग़ज़ल का ज़िक्र करें, आइए आज तलत महमूद साहब के शुरुआती दिनों का हाल ज़रा आपको बताया जाए। २४ फ़रवरी १९२४ को लखनऊ में मंज़ूर महमूद के घर जन्मे तलत कुंदन लाल सहगल के ज़बरदस्त फ़ैन बने। बदक़िस्मती से उनके घर में संगीत का कोई वातावरण नहीं था, बल्कि उनके पिताजी तो संगीत के पूरी तरह से ख़िलाफ़ थे। उनकी मौसी के अनुरोध पर तलत के पिता ने उन्हे लखनऊ के मॊरिस कॊलेज से एक छोटा सा म्युज़िक का कोर्स करने की अनुमती दे दी। वहीं पर तलत महमूद ने ग़ज़लें गानी शुरु की। १६ वर्ष की आयु में तलत ऑल इंडिया रेडियो के लखनऊ केन्द्र में ग़ालिब, दाग़ और जिगर की ग़ज़लें गाया करते थे। एच. एम. वी ने उनकी आवाज़ सुनी और सन् १९४१ में उनका पहला ग्रामोफ़ोन रिकार्ड जारी किया। उसमे एक गीत था "सब दिन एक समान नहीं था, बन जाउँगा क्या से क्या मैं, इसका तो कुछ ध्यान नहीं था"। दोस्तों, इ

भरम तेरी वफाओं का मिटा देते तो क्या होता...तलत की आवाज़ पर साहिर के बोल

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 351/2010/51 आ ज है २० फ़रवरी। याद है ना आपको पिछले साल आज ही के दिन से शुरु हुई थी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की यह शृंखला। आज से इस शृंखला का दूसरा साल शुरु हो रहा है। आपको याद है इस शॄंखला की पहली कड़ी में कौन सा गीत बजा था? चलिए हम ही याद दिलाए देते हैं। वह पहला पहला गीत था फ़िल्म 'नीला आकाश' का, "आपको प्यार छुपाने की बुरी आदत है"। ख़ैर, उसके बाद तो एक के बाद एक कुल ३५० गीत इस शृंखला में बज चुके हैं, और इन सभी कड़ियों में हमने जितना हो सका है संबम्धित जानकारियाँ भी देते आए हैं। आज से हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के अंतर्गत एक नया स्तंभ जोड़ रहे हैं और यह स्तंभ है 'क्या आप जानते हैं?' मुख्य आलेख, ऒडियो, और पहेली प्रतियोगिता के साथ साथ अब आप इस स्तंभ का भी आनंद ले पाएँगे जिसके तहत हम आपको रोज़ फ़िल्म संगीत से जुड़ी एक अनोखे तथ्य से रु-ब-रु करवाएँगे। ये तो थीं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के स्वरूप से संबम्धित बातें, आइए अब आज का अंक शुरु किया जाए। दोस्तों, २४ फ़रवरी को मख़मली आवाज़ के जादूगर तलत महमूद साहब का जन्मतिथि है। अत: आज से लेकर १ मा

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (२३)

मखमली आवाज़ के जादूगर तलत महमूद साहब को संगीत प्रेमी अक्सर याद करते है उनकी दर्द भरी गज़लों के लिए. उनके गाये युगल गीत उतने याद नहीं आते है. अगर बात मेरी पसंदीदा गायिका गीता दत्त जी की हो तो उनके हलके-फुल्के गीत पसंद करने वालों की संख्या अधिक है. थोड़े संगीत प्रेमी उनके गाये भजन तथा दर्द भरे गीत भी पसंद करते है. गीताजी के गाये युगल गीतों की बात हो तो, मुहम्मद रफ़ी साहब के साथ उनके गाये हुए सुप्रसिद्ध गीत ही ज्यादा जेहन में आते है. सत्तर और अस्सी के दशक के आम संगीत प्रेमी को तो शायद यह पता भी नहीं था, कि तलत महमूद साहब और गीता दत्त जी ने मिलकर एक से एक खूबसूरत और सुरीले गीत एक साथ गाये है. सन १९८४ के करीब एक नौजवान एच एम् वी (हिज़ मास्टर्स वोईस ) कंपनी में नियुक्त किया गया. यह नौजवान शुरू में तो शास्त्रीय संगीत के विभाग में काम करता था, मगर उसे पुराने हिंदी फ़िल्मी गीतों में काफी दिलचस्पी थी. गायिका गीता दत्त जी की आवाज़ का यह नौजवान भक्त था. उसीके भागीरथ प्रयत्नोके के बाद एक एल पी (लॉन्ग प्लेयिंग) रिकार्ड प्रसिद्द हुआ "दुएट्स टू रेमेम्बर" (यादगार युगल गीत) : तलत महमूद - गीता

बहाए चाँद ने आँसू ज़माना चांदनी समझा...हेमंत दा का गाया एक बेमिसाल गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 293 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है पराग सांकला जी के चुने हुए गीतों को सुनवाने का सिलसिला। गीता दत्त और राजकुमारी के बाद आज जिस गायक की एकल आवाज़ इस महफ़िल में गूँज रही है, उस आवाज़ को हम सब जानते हैं हेमंत कुमर के नाम से। हेमंत दा की एकल आवाज़ में इस महफ़िल में आप ने कई गानें सुनें हैं जैसे कि कोहरा, बीस साल बाद, सोलवाँ साल, काबुलीवाला, हरीशचन्द्र, अंजाम, और जाल फ़िल्मों के गानें। आज पराग जी ने हेमंत दा की आवाज़ में जिस गीत को चुना है, वह है १९५५ की फ़िल्म 'लगन' का - "बहाए चाँद ने आँसू ज़माना चांदनी समझा, किसी की दिल से हूक उठी तो कोई रागिनी समझा"। इस गीत के बोल जितने सुंदर है, जिसका श्रेय जाता है गीतकार राजेन्द्र कृष्ण को, उतना ही सुंदर है इसकी धुन। हेमन्त दा ही इस फ़िल्म के संगीतकार भी हैं। हेमन्त कुमार और राजेन्द्र कृष्ण ने एक साथ बहुत सारी फ़िल्मों में काम किया है और हर बार इन दोनों के संगम से उत्पन्न हुए हैं बेमिसाल नग़में। आज का प्रस्तुत गीत भी उन्ही में से एक है। चाँद और चांदनी पर असंख्य गीत और कविताएँ लिखी जा चुकी हैं और आज भी ल

फिर वही शाम वही गम वही तन्हाई है...तलत की आवाज़ में डूबते शाम को तन्हा दिल से उठती टीस

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 253 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं पहेली प्रतियोगिता के तीसरे विजेयता पूर्वी जी के अनुरोध पर एक के बाद एक कुल पाँच गानें। आज है उनके चुने हुए तीसरे गीत की बारी। कल का गीत था ख़ुशरंग, आज उसके ठीक विपरित, यानी कि एक ग़मज़दा नग़मा। है तो ग़मज़दा लेकिन उतना ही मक़बूल और मशहूर जितना कि कोई भी दूसरा ख़ुशनुमा हिट गीत। आज हम सुनने जा रहे हैं तलत महमूद की मख़मली आवाज़ में फ़िल्म 'जहाँ आरा' का गीत "फिर वही शाम वही ग़म वही तन्हाई है, दिल को समझाने तेरी याद चली आई है"। तलत साहब के गाए सब से ज़्यादा हिट गीतों की फ़ेहरिस्त में शुमार होता है इस गीत का। राजेन्द्र कृष्ण के असरदार बोल और मदन मोहन का अमर संगीत। यह अफ़सोस की ही बात है दोस्तों कि मदन मोहन के संगीत वाली फ़िल्में बॉक्स ऒफ़िस पर ज़्यादा कामयाब नहीं हुआ करती थी। लेकिन उन फ़िल्मों का संगीत कुछ ऐसा रूहानी होता था कि ये फ़िल्में केवल अपने गीत संगीत की वजह से ही लोगों के दिलों में हमेशा के लिए बस जाती थी। 'जहाँ आरा' भी एक ऐसी ही फ़िल्म थी। मैने यह कहीं पढ़ा है, पता नहीं सच है

जाएँ तो जाएँ कहाँ....तलत की आवाज़ में उठे दर्द के साथी बने साहिर और बर्मन दा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 245 १९५४ की फ़िल्म 'आर पार' की कहानी टैक्सी ड्राइवर कालू (देव आनंद) की थी। फ़िल्म में दो नायिकाएँ हैं, जिनमें से एक के पिता अंडरवर्ल्ड से जुड़ा हुआ है और वो चाहता है कि कालू भी उसके साथ मिल जाए ताकि वो जल्दी अमीर बन जाए। कालू भी ख़ुद अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता है, लेकिन सही रास्तों पर चलकर या ग़लत राह पकड़कर? यही थी 'आर पार' की मूल कहनी। गुरु दत्त साहब ने अपनी प्रतिभा से इस साधारण कहानी को एक असाधारण फ़िल्म में परिवर्तित कर चारों ओर धूम मचा दी। और इसी कामयाबी से प्रेरित होकर आनंद भाइयों ने इसी साल १९५४ में अपने 'नवकेतन' के बैनर तले इसी भाव को आगे बढ़ाते हुए एक और फ़िल्म के निर्माण का निश्चय किया। और इस बार फ़िल्म का शीर्षक भी रखा गया 'टैक्सी ड्राइवर'। चेतन आनंद ने फ़िल्म का निर्देशन किया, विजय आनंद ने कहानी लिखी, और देव साहब नज़र आए टैक्सी ड्राइवर मंगल के किरदार में। नायिका बनीं कल्पना कार्तिक। गीतकार साहिर लुधियानवी और संगीतकार सचिन देव बर्मन की जोड़ी ने एक बार फिर से अपना जादू दिखाया और इस फ़िल्म के लिए बने कुछ यादगार सदाबह

अंधे जहाँ के अंधे रास्ते, जाए तो जाए कहाँ... शैलेन्द्र ने पेश किया अर्थपूर्ण काव्यात्मक अभिव्यक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 234 क ल शंकर साहब के जन्मदिवस के अवसर पर हमने सुना था फ़िल्म 'असली नक़ली' का युगल गीत । शंकर जयकिशन और देव आनंद के कॊम्बिनेशन का वह एक सदाबहार गीत रहा है। आइए आज भी शंकर जयकिशन और देव आनंद का ही एक और गीत सुनें। कल हमने आपको यह भी बताया था कि शुरु शुरु में जब शंकर जयकिशन देव साहब के लिए गानें बना रहे थे तो पार्श्वगायन के लिए तलत महमूद और हेमन्त कुमार की आवाज़ें ले रहे थे, बाद में रफ़ी साहब बने देव आनंद की आवाज़। तो आज ऐसी एक फ़िल्म जिसमें देव साहब का प्लेबैक किया था तलत साहब और हेमन्त दा ने। यह फ़िल्म है 'पतिता'। इस फ़िल्म में कम से कम तीन एकल गीत हैं तलत महमूद की आवाज़ में और शैलेन्द्र के लिखे हुए जिन्हे बेहद शोहरत हासिल हुई, और एक युगल गीत लता जी और हेमन्त दा का गाया हुआ और हसरत जयपुरी का लिखा हुआ ऐसा था जिसका शुमार आज इस जोड़ी के सदाबहार युगल गीतों में होता है। याद है ना वह युगल गीत "याद किया दिल ने कहाँ हो तुम, झूमती बहार है कहाँ हो तुम"! लेकिन आज हम सुनेंगे तलत महमूद का गाया और शैलेन्द्र का लिखा "अंधे जहाँ के अंधे रास्ते जाऊँ

मिलते ही ऑंखें दिल हुआ दीवाना किसी का....एक बेहतरीन दोगाना शमशाद और तलत की आवाजों में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 207 आ प सभी को हमारी तरफ़ से नवरात्री के आरंभ की हार्दिक शुभकामनाएँ। यह त्योहार आप सभी के जीवन में ख़ुशियाँ ले कर आए, घर घर ख़ुशहाली हो, सभी सुख शांती से रहें यही हम माँ दुर्गा से प्रार्थना करते हैं। कल की तरह 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आज भी एक युगल गीत की बारी। आज हम ज़रा पीछे की तरफ़ चलते हैं। साल १९५०। इस साल नौशाद और शक़ील बदायूनी ने जिन दो प्रमुख फ़िल्मों में साथ साथ काम किया था उनके नाम हैं 'दास्तान' और 'बाबुल'। दोनों ही फ़िल्में सुपरहिट रहीं। 'दास्तान' में राज कपूर और सुरय्या थे तो 'बाबुल' में दिलीप कुमार, नरगिस और मुनव्वर सुल्ताना। 'दास्तान' ए. आर. कारदार की फ़िल्म थी। निर्देशक एस. यु. सनी, जो १९४७ में कारदार साहब की फ़िल्म 'नाटक' का निर्देशन किया था, उन्होने अपनी निजी कंपनी खोली सनी आर्ट प्रोडक्शन्स के नाम से और इस बैनर के तले उन्होने अपनी पहली फ़िल्म बनाई १९५० में, 'बाबुल'। इसका निर्देशन उन्होने ख़ुद ही किया। नौशाद साहब को वो 'नाटक' और 'मेला' जैसी फ़िल्मों के दिनों से ही अच्छी