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वर्षान्त विशेष - 2016 का फ़िल्म-संगीत (भाग-4)

वर्षान्त विशेष लघु श्रृंखला

2016 का फ़िल्म-संगीत  
भाग-4




रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! दोस्तों, देखते ही देखते हम वर्ष 2016 के अन्तिम महीने पर आ गए हैं। कौन कौन सी फ़िल्में बनीं इस साल? उन सभी फ़िल्मों का गीत-संगीत कैसा रहा? ज़िन्दगी की भाग-दौड़ में अगर आपने इस साल के गीतों को ठीक से सुन नहीं सके या उनके बारे में सोच-विचार करने का समय नहीं निकाल सके, तो कोई बात नहीं। हम इन दिनों हर शनिवार आपके लिए लेकर आ रहे हैं वर्ष 2016 में प्रदर्शित फ़िल्मों के गीत-संगीत का लेखा-जोखा। अब तक इस श्रृंखला में हमने वर्ष के प्रथमार्ध का सफ़र तय कर लिया है, और आज से हम इसके द्वितीयार्ध का सफ़र शुरु करेंगे। तो आइए आज इसकी चौथी कड़ी में चर्चा करें उन फ़िल्मों के गीतों की जो प्रदर्शित हुए जुलाई, अगस्त और सितंबर के महीनों में।



ले 1990 का दौर समाप्त हो चुका हो, पर इस दौर में भी कभी-कभार कुछ फ़िल्में ऐसी बन रही हैं
जिनके गीत-संगीत में 90 के दशक की छाप मिलती है। जुलाई के शुरुआती सप्ताह में ही दो ऐसी ही फ़िल्में आईं। पहली फ़िल्म थी ’शोरगुल’ जिसके संगीतकार हैं ललित पण्डित (जतिन-ललित वाले)। ज़ाहिर सी बात है गीतों में मेलडी तो होगी ही। इस ऐल्बम के गीतों में भी वही मिठास बरकरार है। अरिजीत सिंह का गाया "तेरे बिना" तो जैसे जतिन-ललित का ट्रेडमार्क लिए हुए है जिसे बार-बार सुनने में कोई हर्ज़ नहीं है। इस पहले पहले गीत को सुनते ही ऐसा लगा जैसे कोई ताज़ा हवा का झोंका आया हो, और वह भी उस समय जब बाकी सारे संगीतकार एक ही तरह का काम करते जा रहे हैं। "मस्त हवा" एक पार्टी नंबर है जो क्लब पब्लिक के लिए सटीक है। फ़िल्म की कहानी के बाहर इस गीत की कोई ख़ास भूमिका नहीं है। ऐल्बम के अन्य गीतों से बिल्कुल अलग इस गीत में रॉक शैली का प्रयोग हुआ है जिसकी तुलना फ़िल्म ’ब्लैक फ़्राइडे’ के "बन्दे" से की जा सकती है। 1 जुलाई को ही प्रदर्शित दूसरी फ़िल्म थी ’दिल तो दीवाना है’ जिसका संगीत भी हमें 90 के दशक में ले जाता है। इस बार संगीतकार हैं आनन्द राज आनन्द, जिन्होंने 90 के दशक में बहुत सी कामयाब म्युज़िकल फ़िल्में हमें दी हैं। फ़िल्म का शीर्षक गीत ज़ुबिन गर्ग की आवाज़ में है; भले ज़ुबिन की अदायगी अच्छी है पर गीत की धुन में नयापन कुछ नहीं है। इससे तो इसी मुखड़े का लता-रफ़ी वाला फ़िल्म ’इश्क़ पर ज़ोर नहीं’ का गीत कई गुणा बेहतर है। ऐल्बम का दूसरा गीत श्रेया घोषाल की आवाज़ में है "क्यों दिल की गलियों में", जो शायद इस ऐल्बम का सबसे अच्छा गीत है। श्रेया की मधुर आवाज़ के बीच रंग में भंग डालने के लिए उन ईलेक्ट्रॉनिक बीट्स की क्या ज़रूरत थी समझ नहीं आया। ज़ुबिन का गाया एक और गीत "धूप खिले जब तुम मुसकाओ" बोलों के लिहाज़ से एक ख़ूबसूरत नग़मा है जिसमें कोई ख़ास बात ना सही पर सुनने लायक ज़रूर है। एक लम्बे समय के बार ग़ज़ल सम्राट पंकज उधास की आवाज़ में "रात भर तन्हा रहा" सुनने का मज़ा ही कुछ और रहा। एक तरफ़ पंकज उधास की नर्मोनाज़ुक आवाज़ और दूसरी तरफ़ बाँसुरी की मधुर ताने, एक दिलकश कम्पोज़िशन कुल मिला कर। रिचा शर्मा ने पहले भी आनन्द राज आनन्द के लिए कई गीत गायी हैं, इस फ़िल्म में "मुझे इतना बोलना है" में उन्हें फिर से सुनना सुखद रहा लेकिन एक बार फिर ईलेक्ट्रॉनिक बीट्स ने मज़ा किरकिरा कर दिया। 6 जुलाई को इस साल की सबसे बड़ी फ़िल्मों में से एक - ’सुल्तान’ प्रदर्शित हुई। सलमान ख़ान की फ़िल्म हो और उसके गाने न चले ऐसा होना नामुमकिन है। ’सुल्तान’ के गाने भी ख़ूब चले। विशाल-शेखर का संगीत, इरशाद कामिल के गीत, जादू तो चलना ही था। ऐल्बम का आग़ाज़ होता है "बेबी को बेस पसन्द है" से। विशाल ददलानी, बाद्शाह, शालमली खोलगडे और इशिता के गाए इस गीत में ढोलक, भपंग, ड्रम, टर्णटेबल और तमाम परक्युशन का इस्तमाल किया गया है। इस गीत में कोई ख़ास बात ना होते हुए भी इतना बड़ा हिट हुआ, यही आश्चर्य की बात है। वैसे इससे पहले भी समलान की फ़िल्मों के गीत इसी तरह कैची लाइनों की वजह से हिट होते रहे हैं। ऐल्बम का सबसे अच्छा गीत रहा "जग घूमेया" जिसे राहत फ़तेह अली ख़ान ने गाया। इस गीत के साथ एक विवाद जुड़ा हुआ है। पहले यह गीत अरिजीत सिंह गाने वाले थे लेकिन सलमान के साथ किसी अनबन की वजह से अरिजीत को इस फ़िल्म से बाहर फेंक दिया गया। इस गीत का अन्य संस्करण नेहा भसीन ने गाया है जिसमें ऑरकेस्ट्रेशन को कम से कम रख कर केवल तुम्बी और मैन्डोलिन पर आधारित किया गया है। अच्छा प्रयोग! फिर आते हैं मिका "440 volt" लेकर, जिसकी तरफ़ आपका ध्यान ना भी जाए तो भी कोई बात नहीं। ’सुल्तान’ के शीर्षक गीत में श्रेष्ठ पंक्ति आती है "ख़ून में तेरी मिट्टी, मिट्टी में तेरा ख़ून, उपर अल्लाह नीचे धरती बीच में तेरा जुनून"। सुखविन्दर सिंह और शदब फ़रिदी की आवाज़ें, कुछ तेज़ बेस के रीदम, कुछ कोमल सुर। नूरन बहनों और ददलानी का गाया "टुक टुक" और मोहित चौहान और हर्शदीप कौर का गाया "सच्ची मुच्ची" अत्यधिक ऑरकेस्ट्रेशन की वजह से बरबाद हुए हैं। पापोन का गाया "बुल्लेया" गीत को विशाल-शेखर के कमज़ोरतम रचनाओं में से एक माना जा सकता है।

अध्ययन सुमन की फ़िल्म ’इश्क़ क्लिक’ में सतीश त्रिपाटःई, अजय और मनीषा उपाध्याय "कुहु
बोले" एक पेप्पी नंबर है पर लोक-धुन और पारम्परिक वाद्यों के प्रयोग से इसमें एक अलग ही निखार आया है। गीत के बोल भी स्तरीय हैं। अंकित तिवारी के गाये "माना तुझी का ख़ुदा" में उनकी यथारीति ऊँचे सुर में गाने की प्रवृत्ति है। फ़िल्म में इस गीत के तीन संस्करण हैं। नकश अज़ीज़ और रिचा नारायण के गाए संस्करण में धीमा रॉक फ़ील है जिसमे आजकल के फ़िल्मी गीतों में पाए जाने वाली रॉक शैली की आँच है। तीसरे संस्करण में अंकित तिवारी ने रिचा के साथ आवाज़ मिलाई है, यह संस्करण धीमे लय पर है और अन्य दो से बेहतर सुनाई देता है। अमानत अली ख़ान की आवाज़ में "का देखूँ" भारतीय शास्त्रीय संगीत आधारित है, लेकिन कम्पोज़िशन में फ़्युज़न है। भारतीय ध्वनियों को सिम्फ़नी जैसे इन्टरल्युड्स में ढाला गया है। इस गीत के भी दो और संस्करण है - एक में अविनाश और अनामिका सिंह हैं तो दूसरा अजय जैसवाल की आवाज़ में है। "अभी अजनबी" गीत के भी दो संस्करण हैं - माधुरी पाण्डेय और समीरा कोपिकर ने अच्छा काम किया है। समीरा का संस्करण धीमा है और उनकी हस्की आवाज़ मूड के मुताबिक है। कुल मिला कर ’इश्क़ क्लिक’ का संगीत एकाधिक बार सुनने लायक है। इसके बाद अगली फ़िल्म की तरफ़ बढ़ते हैं। जिस फ़िल्म में जॉन एब्रहम और वरुण धवन जैसे दो हंक हों, वह एक यथार्थ मसाला फ़िल्म बन कर रहता है। ’डिशूम’ का ऐल्बम भी मसालेदार है। प्रीतम का दिल को छू लेने वाला संगीत इस फ़िल्म के गीतों में भी सर चढ़ कर बोलता है। पहला ट्रैक है "तो डिशूम" जिसे शाहिद माल्या ने गाया है, साथ में रैपिंग की है रफ़्तार ने। गीत का आकर्षण गीत के बोल हैं। और दोनों गायकों ने अपनी अपनी ऊर्जा से गीत में जान डाली है। बेस और पंजाबी तड़का का सही संतुलन इस गीत की ख़ासियत है। जोनिता गांधी की आवाज़ में "सौ तरह के" में प्रीतम फिर उसी "अफ़ग़ान जलेबी" वाले मोड में चले जाते हैं पर इस गीत के अरबी बोलों से एक अलग फ़्लेवर उत्पन्न हुआ है। फ़िल्म का लोकप्रिय गीत "जानेमन आह" एक ऐवरेज गीत है पर जनता को अपनी ओर आकर्षित करने में सक्षम है। नकश अज़ीज़, अमन त्रिखा और अन्तरा मित्रा ने अच्छा निभाया है, पर गीत के बोल आपत्तिजनक ज़रूर हैं। बहुत दिनों बाद अभिजीत सावन्त को प्रीतम ने अपने गीत में प्रयोग कर सबको चकित किया है। गीत है "इश्क़ा"। इस गीत के लिए पूरा क्रेडिट प्रीतम को ही जाता है, अभिजीत कोई कमाल नहीं दिखा सके। ’देसी बॉयज़’ के मिका और शेफ़ाली के गाए हिट गीत "सुबह होने ना दे" का रीमिक्स वर्ज़न इस ऐल्बम में डाला गया है। कुल मिला कर इस फ़िल्म का गीत-संगीत फ़िल्म के लिहाज़ से पैसा-वसूल है। अगली फ़िल्म है ’दि लीजेन्ड ऑफ़ माइककेल मिश्रा’। इसके ऐल्बम में कुछ अच्छे तो कुच भुला देने लायक गाने हैं। ऐल्बम की एक अच्छी शुरुआत होती है कनिका कपूर के गाए "लव लेटर" से। वही "बेबी डॉल" वाली टीम, यानी कि कनिका और मीत ब्रदर्स। हालाँकि इसमें "बेबी डॉल" जैसे उम्र नहीं मिलेगी, पर फ़िल्हाल एक अच्छा नृत्य गीत कहा जा सकता है। कार्तिक धिमा का गाया "इश्क़ दी गाड़ी" एक कर्णप्रिय रोमान्टिक गीत है जिसके नर्मोनाज़ुक बोल दिल को छू जाते हैं। सकीना ख़ान की आवाज़ में "फिर तू" को अच्छा गाया गया है पर कम्पोज़िशन में दम नहीं है। "निखट्टू" के दो संस्करण हैं, एक तरफ़ सोम रिग्स अपनी मज़ेदार आवाज़ से ऊँचाए पर चढ़ाता है, तो दूसरी तरफ़ मीत ब्रदर्स के अपने फ़ंकी बीट्स हैं। यह गीत आपको कुछ हद तक सुभाष कपूर के "माता का ईमेल" की याद दिला जएगा। "फ़िल्म शुरु हुई है" में भी वही स्टाइल है, पर इस ऐल्बम में शामिल होने लायक नहीं। ॠषी-सिद्धार्थ ने ऐवरेज काम किया है पर ऐसा कुछ भी नहीं जो इस गीत को डूबने से बचा सके।

12 अगस्त को प्रदर्शित हुई ॠतिक रोशन अभिनीत महत्वाकांक्षी फ़िल्म ’मोहेन्जोदारो’। ए. आर.
रहमान और आशुतोष गोवारिकर इससे पहले ’लगान’, ’स्वदेस’ और ’जोधा अकबर’ जैसी कामयाब फ़िल्में दे चुके हैं, इसके इस फ़िल्म से लोगों की उम्मीदें बहुत बढ़ गई थीं। जावेद अख़्तर बतौर गीतकार इस फ़िल्म में भी शामिल थे। साधारणत: जब एक पीरियड फ़िल्म बनाई जाती है, तब उस समयकाल के संगीत और ध्वनियों को ध्यान में रखते हुए गीतों को तैयार किया जाता है। पर मोहेन्जोदारो के बारे में इतनी कम जानकारी है कि इस कहानी पर बनी फ़िल्म के गीतों को न्याय दिला पाना आसान काम नहीं। रहमान और जावेद साहब के पास उस ज़माने के बोली का कोई ऑडियो प्रमाण तो था नहीं, इसलिए बोल हिन्दी में ही लिखे गए हैं और बीच बीच में आदिवासी किस्म के बोल डाले गए हैं जिससे ज़्यादा मदद नहीं मिल सकी। ऐल्बम की शुरुआत होती है अरिजीत सिंह, ए. आर. रहमान, बेला शिंडे और साना मोइदुत्ती की आवाज़ों में "मोहेन्जो मोहेन्जो" गीत से। इस गीत में कोरस का काम सराहनीय रहा और ऑरकेस्ट्रेशन भी लाजवाब है, बिल्कुल वैसा जैसे कि किसी कालजयी प्रेम गाथा की शुरुआत हो रही हो! हर बार की तरह इस बार भी अपना छाप छोड़ जाते हैं। आदिवासी ध्वनियाँ हमें कुछ हद तक अफ़्रीका और मिशर की याद दिलाती हैं। दूसरा गीत है "सिंधु माँ" जिसे ए. आर. रहमान और साना मोइदुत्ती ने गाया है, जो सिंधु नदी की शान में लिखा गया है। इस गीत में लम्बा प्रील्युड संगीत रखा गया है। वैसे इसका एक अन्य संस्करण "तू है" ज़्यादा आकर्षणीय है जिसमें रहमान और साना की ही आवाज़ें हैं। लेकिन इन दोनों से बेहतर है इन्स्ट्रुमेन्टल वर्ज़न "The Shimmer of Sindhu" जिसे केबा जेरेमिया ने गीटार पर और करीम कमलाकर ने बाँसुरी पर बजाया है। एक अनोखा और दिलकश प्रयोग! शाश्वत सिंह और शाशा तिरुपति की आवाज़ों में "सरसरिया" में फिर से उन आदिवासी ध्वनियों और बोलों का सहारा लिया गया है, पर शाशा की आवाज़ की रेंज का हमें पता चलता है। इस गीत का एक इन्स्ट्रुमेन्टल वर्ज़न भी है जिसे तापस रॉय ने मैन्डोलीन पर और पी.एम.के. नवीन कुमार ने बाँसुरी पर बजाया है। कमाल की जुगलबन्दी है इसमें और कोई संशय नहीं कि गीत से ज़्यादा असरदार यह संस्करण बन पड़ा है। रहमान ने अर्जुन चण्डी और उनके वोकल ग्रूप का इस्तमाल मूलत: इन्स्ट्रुमेन्टल "Whispers of the mind" और "Whispers of the heart" में किया है। श्लोकों और आदिवासी बोलों वाला कोरस, झिंगुरों की आवाज़ें, बहते पानी की कल कल, सब कुछ बेहद मनोरम बन पड़ा है। कुल मिला कर रहमान ने अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश की है इस ऐल्बम में स्थान-काल-पात्र के हिसाब से संगीत देने की।

12 अगस्त के ही दिन एक और फ़िल्म प्रदर्शित हुई थी ’रुस्तोम’। फ़िल्म की कहानी के हिसाब से
इस फ़िल्म के गीत-संगीत से ज़्यादा उम्मीदें लगाना मुश्किल था, पर संगीतकारों ने ऐसा काम कर दिखाया कि यह ऐल्बम ऐवरेज से कहीं उपर जा पहुँचा। "तेरे संग यारा" एक चार्टबस्टर सिद्ध हुआ। हालाँकि संगीतकार अर्को को अक्सर सेफ़-गेम खेलने वाला खिलाड़ी समझा जाता रहा है, पर यह गीत वाक़ई एक नगीना है। मनोज मुन्तशिर के रोमान्टिक बोल और आतिफ़ असलम की आवाज़ गीत में जान डाल दी है। आतिफ़ की कशिश भरी आवाज़ ने इस गीत को ऐल्बम का श्रेष्ठ गीत बना दिया है। इस गीत का एक अन्य संस्करण भी है अर्को की आवाज़ में पर इसमें वह बात नहीं बन पायी है जो बात आतिफ़ की आवाज़ से बनी थी। राघव सचर की आवाज़ फ़िल्म के शीर्षक गीत को कुछ गहराई तो ज़रूर प्रदान करती है। इस गीत के चार अलग-अलग संस्करण हैं पर हर संस्करण को अलग मूड दिया गया है फ़िल्म की कहानी के अनुसार। सुकृति कक्कर और जसराज जोशी अपना अपना संस्करण बख़ूबी निभाते हैं, पर इन्स्ट्रुमेन्टल वर्ज़न ही सबसे बेहतरीन बन पड़ा है जो सबसे ज़्यादा दिल को छूता है। अंकित तिवारी का गाया "ते है" में कोई ख़ास बात ऐसी नज़र नहीं आती और इस गीत के बार में कुछ लिखते नहीं बन रहा। जीत गांगुली द्वारा स्वरबद्ध "देखा हज़ारों दफ़ा" अच्छी रचना है जिसमें पुराने ज़माने का आकर्षण भी है और जिसे सुन कर आजे के ज़माने के श्रोता भी अपने आप को जोड़ पायेंगे। अरिजीत सिंह और पलक मुछाल ने इस गीत में यह सिद्ध किया है कि इस दौर के वो ही अग्रणी गायक-गायिका हैं। इस गीत में जीत गांगुली ने अपना ही स्तर इतना बढ़ा लिया है कि उनकी अगली रचना "ढल जाऊँ मैं" ज़्यादा सुख कर नहीं बना। जुबिन नौटियाल और आकांक्षा शर्मा ने अच्छा काम किया, पर गीत ऐवरेज ही बना है। अंकित फिर आते हैं "जब तुम होते हो" लेकर जिसमें श्रेया घोषाल की आवाज़ गीत को ऊँचाई प्रदान करती है। अंकित और श्रेया का कॉम्बिनेशन काम कर गया है। कुल मिलाकर ’रुस्तोम’ का गीत-संगीत एक सुखद अनुभव है जिसे लूप में डाल कर बार बार सुना जा सकता है। ’है अपना दिल तो आवारा’, नहीं नहीं, मैं हेमन्त कुमार के गाए गीत की बात नहीं कर रहा। दरसल इस शीर्षक से एक फ़िल्म बनी है इस साल, और शीर्षक के अनुरूप सुमधुर गीत-संगीत भी शामिल है इसमें। संगीतकार अजय सिंह, सुभाष प्रधान और परवेज़ क़ादिर ने उत्तम काम किया है। पापोन और नेहा राजपाल का गाया "छू लिया" एक लव-डुएट है जिसका संगीत-संयोजन भी कमाल का है। पापोन की आवाज़ को इस गीत में चुनना अकलमन्दी का काम सिद्ध हुआ जिन्होंने इस गीत में गहराई ला दी है। "मेहेरम मेरे" भी एक सादा रोमान्टिक नंबर है। एक हल्का सा सूफ़ी फ़्लेवर ज़रूर है, पर ख़ास बात है मोहित चौहान की दिलकश गायकी। गीटार और तबले का सही संतुलन इस गीत में सुनाई देता है। फ़िल्म का शीर्षक गीत निखिल डी’सूज़ा की आवाज़ में है जिसे हम थम्ब्स-अप दे सकते हैं। "तेरे इश्क़ ने नचाया" एक कमज़ोर गीत है; बुल्ले शाह की कविता को क्लब सॉंग में परिनीत करने में संगीतकार मुंह के बल गिरे हैं। अजय की ही आवाज़ में "भूल सारी बात" एक दर्द भरा गीत है; भले उनकी आवाज़ में बहुत अच्छी क्वालिटी नहीं है, पर इस गीत को उन्होंने चार चाँद लगाये ज़रूर हैं। और अन्तिम गीत है रमण महादेवन की आवाज़ में "दिल के राही" जो दिल को बिल्कुल नहीं छू पाते। 

सितंबर के महीने में यूं तो बहुत सी फ़िल्में रिलीज़ हुईं जैसे कि ’अकीरा’, ’ये तो टू मच हो गया’,
’फ़्रेकी अली’, ’एक कहानी जुली की’, ’वाह ताज’, ’एम. एस. धोनी’ वगेरह, पर जिन दो फ़िल्मों के संगीत ने हमारा ध्यान आकर्षित किया, वो दो फ़िल्में हैं ’बार बार देखो’ और ’राज़ रीबूट’। ’बार बार देखो’ की अगर बात करें तो जब करण जोहर, फ़रहान अख़्तर और रितेश सिधवानी जैसे नाम जुड़े हों तो सिद्धार्थ मल्होत्रा - कटरीना कैफ़ अभिनीत इस फ़िल्म के गीत-संगीत से उम्मीदें लगाई जा सकती है। इन निर्माताओं के पहली की फ़िल्मों में जहाँ एक ही संगीतकार पूरा ऐल्बम तैयार करते थे, इस फ़िल्म के लिए कई संगीतकारों और गीतकारों को लिया गया है। जसलीन रॉयल को, जिन्हें फ़िल्म जगत में फ़िल्म ’ख़ूबसूरत’ के "प्रीत" गीत से प्रसिद्धी मिली थी, एक बार फिर माइक के पीछे जाकर एक शानदार गीत "खो गए हम कहाँ" गाने का अवसर मिला। हालाँकि ऐल्बम के पहले गीत के रूप में इस तरह के सिचुएशनल ट्रैक का होना आश्चर्यजनक है, पर इससे किसी को परेशानी नहीं होगी क्योंकि गीत बेहद कर्णप्रिय बन पड़ा है। जसलीन ने ख़ुद इसे कम्पोज़ भी किया है, प्रतीक कुहड़ ने इस गीत को लिखा है तथा जसलीन के साथ अपनी आवाज़ भी मिलाई है। अर्थात् गीतकार प्रतीक कुहड़, संगीतकार जसलीन रॉयल, और आवाज़ प्रतीक और जसलीन की। है ना मज़ेदार बात! संगीतकार अमाल मलिक और गीतकार कुमार साथ में लेकर आए हैं "सौ आसमाँ" जिसमें नीति मोहन की आवाज़ है। यह एक ख़ुशनुमा गीत है जिसे सुन कर फ़रहान अख़्तर की अनुभूति होती है। कारण साफ़ है कि यह एक शंकर-अहसान-लॉय शैली का कम्पोज़िशन है। नीति मोहन के साथ अमाल के भाई अरमान मलिक अपनी आवाज़ मिलाते हैं। कुल मिला कर अच्छा गीत। ऐल्बम का तीसरा गीत है "दरिया" जिसे अर्को ने लिखा, स्वरबद्ध किया और ख़ुद गाया भी है। सूफ़ियाना शैली का यह गीत दो प्रेमियों के मिलन की आस को दर्शाता है। यह गीत अर्को के अन्य गीतों से बिल्कुल अलग है। अगला गीत है पंजाबी लोक शैली में रचा "नचदे ने सारे"। जसलीन रॉयल द्वारा स्वरबद्ध इस गीत को गाया है जसलीन, हर्शदीप कौर और सिद्धार्थ महादेवन ने और इसमें पंजाबी, हिन्दी और अंग्रेज़ी के बोल हैं, गीतकार आदित्य शर्मा। गीत की शैली कई हद तक फ़िल्म ’दिल धड़कने दो’ के "गल्लाँ गूड़ियाँ" जैसी है। पिछले साल कम्पोज़र-सिंगर बिलाल सईद फ़िल्म ’इश्क़ेदारियाँ’ में "मोहब्बत ये" जैसे आकर्षणीय गीत लेकर आए थे जिसकी तरफ़ किसी ने ध्यान नहीं दिया। ’बार बार देखो’ में वो लेकर आते हैं "तेरी ख़ैर मंगदी"। इसे उन्होंने कुमार के साथ मिल कर लिखा भी है। हालाँकि गीत पूर्णत: पंजाबी में है, पर मेलडी इतनी कमाल की है कि आप इसमें बहते चले जाते हैं और इसमें कोई शक़ नहीं कि यह ऐल्बम का श्रेष्ठ गीत कहलाने के लायक है। ऐल्बम का अन्तिम गीत है "काला चश्मा"। मूलत: प्रेम हरदीप द्वारा कम्पोज़ किया हुआ और बाद में बादशाह द्वारा रीक्रीएट किया हुआ यह गीत अमर अरशी और नेहा कक्कड़ की आवाज़ों में एक कैची ट्रैक है। अमरीक सिंह और कुमार के लिखे इस गीत में कुछ तो बात है जो अपनी ओर आकर्षित करती है। एक चार्टबस्टर सिद्ध होने वाला गीत। कुल मिला कर ’बार बार देखो’ की शुरुआत धीमी और चुपचाप होती है और धीरे धीरे ऐल्बम खुलता जाता है। एक एक करके जब गीत आने लगते हैं तो जैसे दिल ख़ुश, और ज़्यादा ख़ुश होता चला जाता है। और अब आज की अन्तिम फ़िल्म ’राज़ रीबूट’ के गीतों की बातें। संगीतकार जीत गांगुली ने अकेले इस फ़िल्म में संगीत दिया है। उनकी शैली का "लो मान लिया" एक धीमा रोमान्टिक गीत है जिसमें एक बार फिर अरिजीत सिंह की आवाज़ है। कौसर मुनीर के लिखे इस गीत में कम से कम साज़ों का प्रयोग किया गया है ताकि अरिजीत की आवाज़ की कशिश और उभरकर सामने आए। पर अरिजीत सिंह के एक के बाद एक गीत आने की वजह से यह गीत एक दोहराव की तरह सुनाई पड़ता है। इस तरह के गीत उनकी आवाज़ में कई बार हम सुन चुके हैं। "राज़ आँखें तेरी" भी अरिजीत की आवाज़ में एक और स्लो ट्रैक है और यह गीत जीत गांगुली के ’हमारी अधुरी कहानी’ के गीतों से मेल खाता है कुछ हद तक। इस गीत में एक सूदिंग् क्वालिटी है जिसे स्लो रोमान्टिक गीत पसन्द करने वालों को बेहद पसन्द आएगा। "ओ मेरी जान" ऐल्बम का एकमात्र गीत है जिसे जीत ने नहीं बल्कि संगीत और सिद्धार्थ हल्दीपुर भाइयों ने कम्पोज़ किया है। बहुत दिनों बाद के.के की आवाज़ सुन कर दिल भर गया। गीत तेज़ रफ़्तार में है और तरह तरह के म्युज़िकल अरेन्जमेण्ट्स से गीत को नयापन मिला है। अरिजीत की आवाज़ में अगला गीत है "याद है ना" जो एक टूटे हुए दिल वाले की ज़ुबान बन सकती है। इस गीत का अन्य संस्करण जुबिन नौटियाल की आवाज़ में है। यह गीत एक टिपिकल इमरान हाशमी नंबर है जिसे लम्बे समय तक याद रखा जा सकता है। ऐल्बम का आख़िरी गीत है "हम में तुम में जो था" जिसे पलक मुछाल और पापोन ने गाया है। गीत की शुरुआत "राज़ आंखें तेरी" की धुन से होती है जिसे चायलिन्स पर बजाया जाता है। धुन वही है पर बोल अलग हैं। पापोन की आवाज़ पार्श्व में बज रहे वायलिन्स के साथ ग़ज़ब की लगती है। निस्सन्देह ऐल्बम का श्रेष्ठ गीत है यह।

तो दोस्तों, यह था 2016 के जुलाई, अगस्त और सितंबर के महीनों में प्रदर्शित होने वाली प्रमुख फ़िल्मों के गीत-संगीत का लेखा-जोखा। आगामी शनिवार को हम इस लघु श्रुंखला की पाँचवीं और अन्तिम कड़ी में चर्चा करेंगे अक्टुबर, नवंबर और दिसंबर में प्रदर्शित होने वाले फ़िल्मों के गीतों की। तब तक के लिए अपने इस दोस्त सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिये, नमस्कार!



खोज, आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी  

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स्वरगोष्ठी – 214 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 1 : कल्याण थाट राग यमन की बन्दिश- ‘ऐसो सुघर सुघरवा बालम...’  ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर आज से आरम्भ एक नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ के प्रथम अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज से हम एक नई लघु श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं। भारतीय संगीत के अन्तर्गत आने वाले रागों का वर्गीकरण करने के लिए मेल अथवा थाट व्यवस्था है। भारतीय संगीत में 7 शुद्ध, 4 कोमल और 1 तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग होता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 स्वरों में से कम से कम 5 स्वरों का होना आवश्यक है। संगीत में थाट रागों के वर्गीकरण की पद्धति है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार 7 मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते हैं। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल प्रचलित हैं, जबकि उत्तर भारतीय संगीत पद्धति में 10 थाट का प्रयोग किया जाता है। इसका प्रचलन पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे जी ने प्रारम्भ किया

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की