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BAATON BAATON MEIN - 17: INTERVIEW OF LYRICIST SHAKEEL BADAYUNI'S SON JAVED BADAYUNI

बातों बातों में - 17

गीतकार शकील बदायूनी के पुत्र जावेद बदायूनी से बातचीत 


"मुझे फ़क़्र है मेरी शायरी मेरी ज़िन्दगी से जुदा नहीं "  




नमस्कार दोस्तो। हम रोज़ फ़िल्म के परदे पर नायक-नायिकाओं को देखते हैं, रेडियो-टेलीविज़न पर गीतकारों के लिखे गीत गायक-गायिकाओं की आवाज़ों में सुनते हैं, संगीतकारों की रचनाओं का आनन्द उठाते हैं। इनमें से कुछ कलाकारों के हम फ़ैन बन जाते हैं और मन में इच्छा जागृत होती है कि काश, इन चहेते कलाकारों को थोड़ा क़रीब से जान पाते, काश; इनके कलात्मक जीवन के बारे में कुछ जानकारी हो जाती, काश, इनके फ़िल्मी सफ़र की दास्ताँ के हम भी हमसफ़र हो जाते। ऐसी ही इच्छाओं को पूरा करने के लिए 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' ने फ़िल्मी कलाकारों से साक्षात्कार करने का बीड़ा उठाया है। । फ़िल्म जगत के अभिनेताओं, गीतकारों, संगीतकारों और गायकों के साक्षात्कारों पर आधारित यह श्रृंखला है 'बातों बातों में', जो प्रस्तुत होता है हर महीने के चौथे शनिवार को। आज मार्च 2016 का चौथा शनिवार है। आज इस स्तंभ में हम आपके लिए लेकर आए हैं फ़िल्म जगत के मशहूर गीतकार और अदबी शायर शकील बदायूनी के पुत्र जावेद बदायूनी से की गई बातचीत के सम्पादित अंश। जावेद साहब से यह बातचीत वर्ष 2011 में की गई थी। संयोग से उस दिन होली था। क्योंकि इस सप्ताह हम होली का त्योहार मना रहे हैं, इसलिए ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के ख़ज़ाने से हम इसे आपके लिए दुबारा चुन लाए हैं।

    


जावेद बदायूनी साहब, नमस्कार, और 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' परिवार की तरफ़ से आपको और आपके पूरे परिवार को होली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ!


शुक्रिया बहुत बहुत, और आपको भी होली की शुभकामनाएँ! मुझे याद करने के लिए आपका शुक्रिया!

आज का दिन बड़ा ही रंगीन है, और हमें बेहद ख़ुशी है कि आज के दिन आप हमारे पाठकों से रु-ब-रु हो रहे हैं। 

मुझे भी बेहद ख़ुशी है अपने वालिद के बारे में बताने का मौका पाकर।

जावेद साहब, इससे पहले कि मैं आप से शकील साहब के बारे में सवालात का सिलसिला शुरु करूँ,  मैं यह कहना चाहूँगा कि यह बड़ा ही संयोग की बात है कि हमारी और आपकी बातचीत होली के मौक़े पर हो रही है और शकील साहब ने होली पर एक नहीं दो नहीं बल्कि बहुत सारे गीत लिखे हैं।

जी हाँ,, आपने ठीक कहा, उन्होंने कई होली गीत फ़िल्मों के लिए लिखे हैं। ’मदर इण्डिया’ में शमशाद बेगम का गाया "होली आई रे कन्हाई, रंग छलके, सुना दे ज़रा बांसुरी", शायद यही उनका पहला मशहूर होली गीत था।

जी। और इसके बाद भी उन्होंने कई और गीत लिखे जिनकी चर्चा हम आगे करेंगे। फ़िल्हाल यह बताइए कि जब आप छोटे थे, तब पिता के रूप में शकील साहब का बरताव कैसा हुआ करता था? घर परिवार का माहौल कैसा था?


जावेद बदायूनी
एक पिता के रूप में उनका व्यवहार दोस्ताना हुआ करता था, और सिर्फ़ मेरे साथ ही नहीं, अपने सभी बच्चों को बहुत प्यार करते थे और सब से हँस खेल कर बातें करते थे। यानी कि घर का माहौल बड़ा ही ख़ुशनुमा हुआ करता था। कई परिवारों में ऐसा देखा गया है कि पिता बहुत सख़्त होते हैं जिस वजह से बच्चे उनके साथ घुलमिल नहीं सकते, एक दूरी बनी रहती है हमेशा। पर हमारे साथ ऐसा बिलकुल नहीं हुआ। बहुत ही शानदार यादें हैं मेरे मन में अपने वालिद के।

क्या उस समय घर पर शायरों का आना जाना लगा रहता था?

जी हाँ जी हाँ, शकील साहब के दोस्त लोगों का आना जाना लगा ही रहता था जिनमें बहुत से शायर भी होते थे। घर पर ही शेर-ओ-शायरी की बैठकें हुआ करती थीं। एक अदबी माहौल होता था घर पर। 

शकील साहब ने अपने एक पुराने इंटरव्यु में ऐसा कहा था कि उनके करीयर को चार पड़ावों में विभाजित किया जा सकता है। पहले भाग में 1916 से 1936 का समय जब वे बदायूँ में रहा करते थे। फिर 1936 से 1942 का समय अलीगढ़ का; 1942 से 1946 का दिल्ली का उनका समय, और 1946 के बाद बम्बई का सफ़र। हमें उनकी फ़िल्मी करीयर, यानी कि बम्बई के जीवन के बारे में तो फिर भी पता है, क्या आप पहले तीन के बारे में कुछ बता सकते हैं?

शकील साहब का जन्म बदायूँ में हुआ, उनके वालिद का नाम था मोहम्मद जमाल अहमद सोख़ता क़ादरी। वो चाहते थे कि उनके बेटे का करीअर बहुत अच्छा हो। इसलिए उन्होंने घर पर ही अरबी, उर्दू, फ़ारसी और हिन्दी के ट्युशन का इन्तज़ाम कर दिया।

इसका मतलब कि जैसे ज़्यादातर शायरों को यह परम्परा विरासत में मिली होती है, शकील साहब के साथ ऐसा नहीं हुआ?

बिलकुल नहीं हुआ!

फिर शेर-ओ-शायरी क चसका उन्हें कैसे लगा?


उनके एक दूर के रिश्तेदार हुआ करते थे जिनका नाम था ज़िया-उल-क़ादरी बदायूनी। वो एक मज़हबी शायर थे। तो उनकी शायरी से शकील साहब काफ़ी प्रभावित हुए। और साथ ही बदायूँ का समकालीन माहौल कुछ ऐसा था कि इस तरफ़ उनका रुझान हुआ। और वो शेर-ओ-शायरी की तरफ़ मुड़ गए।

सार्वजनिक रूप से शकील साहब ने शेर-ओ-शायरी और मुशायरों में हिस्सा लेना कब से शुरु किया?

1936 में जब उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया, तब से वो इन्टर-कॉलेज, इन्टर-यूनिवर्सिटी मुशायरों में हिस्सा लेते थे और अक्सर जीत भी जाते। यह सिलसिला उस ज़माने से शुरु हुआ। तब उनकी उम्र कोई 20 साल की होगी। उनका काफ़ी नाम हो गया था उस समय से ही। 

आपने बताया कि बदायूं में उनके दूर के रिश्तेदार से प्रभावित होकर उनके अन्दर शायरी के अन्कुर फूटे। क्या किसी और से भी उन्होंने कोई तालीम ली?

अलीगढ़ के दिनों में उन्होंने उर्दू में पारदर्शी बनने के लिए हकीम अब्दुल वहीद ’अश्क़’ बिजनोरी से ट्युशन लेने लगे। बस यहीं तक, बाक़ी सब उनके अन्दर ही था।

पढ़ाई पूरी होने के बाद क्या वो दिल्ली आ गए थे?

1940 में उनका निकाह मेरी वालिदा से हुआ, मेरी वालिदा का नाम है सलमा। मेरी वालिदा उनके दूर के रिश्तेदारों में थीं और बचपन से वो मेरे वालिद साहब को जानती भी थीं। लेकिन उनके परिवार में परदा का रिवाज़ था जिस वजह से दोनों कभी पास नहीं आ सके थे उन दिनों। और ना ही कभी मेरे वालिद ने उसे देखा था। तो निकाह हो गया, और बी.ए. की डिग्री लेकर वो दिल्ली चले गए बतौर सपलाई अफ़सर। साथ ही ख़ाली समय में शौक़िया तौर पर मुशायरों में भाग लेना नहीं भूलते। उनका नाम चारों तरफ़ फ़ैलने लगा था। अलीगढ़, बदायूँ से निकल कर दिल्ली में भी उनका नाम हो गया और धीरे-धीरे पूरे हिन्दुस्तान में उनकी चर्चा होने लगी।

वाह! बहुत ख़ूब!

ये वो दिन थे जब शायर अक्सर समाज के दलित और शोषित वर्गों के लिए लिखा करते थे, उनके उत्थान के लिए, समाज की भलाई के लिए। पर शकील साहब की शायरी का रंग बिलकुल अलग था। उनकी शायरी में रोमान्स था जो दिल के बहुत क़रीब था। उनकी शायरी में नयापन था जो लोगों को पसन्द आया। वो अक्सर कहते थे मैंने सुना है "मैं शकील दिल का हूँ तरजुमाँ, कह मोहब्बतों का हूँ राज़दाँ, मुझे फ़क़्र है मेरी शायरी मेरी ज़िन्दगी से जुदा नहीं"।

वाह! क्या बात है! अच्छा ये सब बातें दिल्ली की हैं। दिल्ली से बम्बई तक का फ़सला कैसे और कब मिटा?


शकील साहब लता जी से क्या कह रहे हैं भला?
शकील साहब 1944 में बम्बई शिफ़्ट हो गए थे। वो फ़िल्मों में गाने लिखना चाहते थे। शुरुआत मुशायरों से ही की। वहाँ भी वो मुशायरों की जान बन बैठे बहुत जल्दी ही। ऐसे ही किसी एक मुशायरे में नौशाद साहब और ए. आर. कारदार साहब भी गये हुए थे और इन्होंने शकील साहब को नज़्म पढ़ते हुए वहाँ सुना। उन पर शकील साहब की शायरी का बहुत असर हुआ। उन्हें लगा कि शकील साहब एक सफल फ़िल्मी गीतकार बन सकते हैं। तो कारदार साहब और नौशाद साहब उनसे मिले और नौशाद साहब ने उनसे पूछा कि क्या आप अपने शायराना अंदाज़ का बयाँ एक लाइन में कर सकते हैं? इस सवाल पर शकील साहब का जवाब था "हम दर्द का अफ़साना दुनिया को सुना देंगे, हर दिल में मोहब्बत की एक आग लगा देंगे"।

वाह!

बस फिर क्या था, नौशाद साहब ने फ़ौरन कारदार साहब से कह कर उन्हें 1947 की फ़िल्म ’दर्द’ में गाने लिखने के लिए साइन करवा लिया। और इसी शेर को इस फ़िल्म का टाइटल सॉंग् भी बनाया गया, "हम दर्द का अफ़साना दुनिया को सुना देंगे"। इस फ़िल्म के गाने मशहूर हो गए, ख़ास कर उमा देवी का गाया "अफ़साना लिख रही हूँ दिल-ए-बेक़रार का"। ऐसा बहुत कम होता है कि किसी गीतकार को अपनी पहली ही फ़िल्म में इतनी बड़ी कामयाबी मिले। पर शकील साहब ने ’दर्द’ से ही कामयाबी का जो झंडा लहराना शुरु किया, वो आख़िर तक कायम रहा।

इसमें कोई शक़ नहीं! जावेद साहब, क्या शकील साहब कभी आप भाई बहनों को भी प्रोत्साहित किया करते थे लिखने के लिए?

जी हाँ, वो प्रोत्साहित भी करते थे और जब हम कुछ लिख कर उन्हें दिखाते तो वो ग़लतियों को सुधार भी दिया करते थे। 

शकील बदायूनी और नौशाद अली, जैसे एक ही सिक्के के दो पहलू। ये दोनों एक दूसरे के बहुत अच्छे दोस्त भी थे। क्या शकील साहब आप सब को नौशाद साहब और उस दोस्ती के बारे में बताया करते थे? या फिर इन दोनों से जुड़ी कोई यादगार घटना या वाक्या?


शकील साहब और नौशाद साहब वीयर ग्रेटेस्ट फ़्रेण्ड्स! यह हक़ीक़त है कि शकील साहब नौशाद साहब के साथ अपने परिवार से भी ज़्यादा वक़्त बिताया करते थे। दोनों की आपस की ट्युनिंग् ग़ज़ब की थी और यह ट्युनिंग् इनके गीतों से साफ़ छलकती है। शकील साहब के गुज़र जाने के बाद भी नौशाद साहब हमारे घर आते रहते थे और हमारा हौसला अफ़ज़ाई करते थे। यहाँ तक कि नौशाद साहब हमें बताते थे कि ग़ज़ल और नज़्म किस तरह से पढ़ी जाती है और मैं जो कुछ भी लिखता था, वो उन्हें सुधार भी दिया करते थे। नौशाद साहब जितने बड़े संगीतकार थे, उतनी ही अच्छी शेर-ओ-शायरी भी किया करते थे। अगर वो गीतकार भी होते तो भी उतने ही मशहूर होते इसमें कोई शक़ नहीं।

सही है! यानी कि शकील साहब एक पिता के रूप में जिस तरह से आपको गाइड करते थे, उनके जाने के बाद वही किरदार नौशाद साहब ने निभाया और आपको पिता समान स्नेह दिया।

बिलकुल ठीक, इसमें कोई शक़ नहीं!

शकील-नौशाद जोड़ी का कौन सा गीत आपको सबसे ज़्यादा पसन्द है?

इस जोड़ी का हर गीत अपने आप में एक मील का पत्थर है। किस किस गीत की बात करूँ? 'दुलारी’ (1949), ’दीदार’ (1951), 'बैजु बावरा’ (1952), 'शबाब’ (1954), 'मदर इण्डिया’ (1957), ’मुग़ल-ए-आज़म’ (1960), ’शबाब’ (1954), ’गंगा जमुना’ (1961), ’मेरे महबूब’ (1963), ये सारी फ़िल्मों के गानें बहुत हिट हुए थे, मुझे भी पसन्द है।

जावेद साहब, बचपन की कई यादें ऐसी होती हैं जो हमारे मन-मस्तिष्क में अमिट छाप छोड़ जाती हैं। शकील साहब से जुड़ी आप के मन में भी कई स्मृतियाँ होंगी। उन स्मृतियों में से कुछ आप हमारे साथ बाँटना चाहेंगे?

शकील साहब के साथ हम सब रेकॊर्डिंग् पर जाया करते थे और कभी कभी तो वो हमें शूटिंग् पर भी ले जाते थे। फ़िल्म 'राम और श्याम' के लिए वो हमें मद्रास ले गये थे। 'दो बदन', 'नूरजहाँ' और कुछ और फ़िल्मों की शूटिंग् पर सब गये थे। वो सब यादें अब भी हमारे मन में ताज़े हैं जो बहुत याद आते हैं। 

आपने शकील-नौशाद की जोड़ी के कुछ फ़िल्मों के नाम गिनाये जिनके गीत आपको पसन्द है। शकील साहब ने अन्य संगीतकारों के लिए भी गीत लिखे हैं जैसे कि रवि, हेमन्त कुमार प्रमुख। इन संगीतकारों के लिए शकील साहब के लिखे कौन कौन से गीत आपको व्यक्तिगत तौर पे सब से ज़्यादा पसंद हैं?

उनके लिखे सभी गीत अपने आप में मास्टरपीस हैं, चाहे किसी भी संगीतकार के लिये लिखे गये हों। यह बताना नामुमकिन है कि कौन सा गीत सर्वोत्तम है। मैं कुछ फ़िल्मों के नाम ज़रूर ले सकता हूँ, जैसे कि ’दो बदन’ और 'चौधवीं का चांद' रवि साहब के साथ, 'साहब बीवी और ग़ुलाम' हेमन्त कुमार साहब के साथ।

जावेद साहब, आज होली है और जैसा कि मैंने शुरु में ही कहा था कि शकील साहब ने बहुत सारे फ़िल्मी होली गीत लिखे हैं, एक गीत का उल्लेख हमने किया, बाक़ी गीतों के बारे में बताइए?

’मुग़ल-ए-आज़म’ में एक गीत था, हालाँकि यह होली गीत तो नहीं, बल्कि जन्माष्टमी के सिचुएशन का गीत था फ़िल्म में, "मोहे पनघट पे नन्दलाल छेड़ गयो रे"। फ़िल्म ’कोहिनूर’ में "तन रंग लो जी आज मन रंग लो"। यह नौशाद सहब के साथ था। फिर रवि साहब के साथ फ़िल्म ’फूल और पत्थर’ में "लायी है हज़ारों रंग होली, कोई तन के लिये, कोई मन के लिये"।

जी हाँ, ’कोहिनूर’ और ’फूल और पत्थर’ के इन दोनो गीतों में ही "तन" और "मन" शब्दों का शकील साहब ने इस्तमाल किया अलग अलग तरीक़ों से, बहुत ही सुन्दर और रंगीन। जावेद साहब, अब हम बात करना चाहेंगे शकील साहब को मिले हुए पुरस्कारों के बारे में?


पुरस्कारों की क्या बात करूँ, उन्हें लगातार तीन साल तक फ़िल्मफ़ेअर अवार्ड मिला था।

क्या बात है! इनके बारे में बताएँगे विस्तार से?

1961 में ’चौधवीं का चाँद’ फ़िल्म के टाइटल गीत के लिए, 1962 में फ़िल्म ’घराना’ के "हुस्नवाले तेरा जवाब नहीं" के लिए, और 1963 में ’बीस साल बाद’ के "कहीं दीप जले कहीं दिल" गीत के लिए।

मतलब दो बार रवि साहब और एक बार हेमन्त दा के गीत के लिए। नौशाद साहब के किसी गीत में उन्हें यह पुरस्कार नहीं मिला, यह आश्चर्य की बात है।

भारत सरकार ने उन्हें ’गीतकार-ए-आज़म’ की उपाधि से सम्मानित किया था। 3 मई 2013 को उनकी तस्वीर के साथ एक डाक टिकट India Post ने जारी किया है।

वाह! बहुत ख़ूब! जावेद साहब, नौशाद साहब के साथ शकील साहब के दोस्ती की बात हमने की, और कौन कौन से उनके दोस्त थे फ़िल्म इन्डस्ट्री से?

शकील साहब को बैडमिन्टन खेलने का बहुत शौक़ था। पिक्निक और शिकार करना, पतंग उड़ाना उन्हें बहुत भाता था। और इन सब कामों में उनके साथी हुआ करते थे मोहम्मद रफ़ी साहब, जॉनी वाकर साहब और नौशाद साहब तो थे ही। इनके अलावा दिलीप कुमार साहब, वजाहत मिर्ज़ा साहब, ख़ुमार बाराबंकवी साहब और आज़म बजतपुरी साहब उनके करीबी लोग हुआ करते थे फ़िल्म इन्डस्ट्री से।

हम शकील साहब के लिखे गीतों को हर रोज़ ही सुनते हैं रेडियो पर, लेकिन उनके लिखे ग़ैर-फ़िल्मी नज़्मों और ग़ज़लों को कम ही सुना जाता है। इसलिए मैं आप से उनकी लिखी अदबी शायरी और प्रकाशनों के बारे में जानना चाहूँगा।


मैं आपको बताऊँ कि भले ही वो फ़िल्मी गीतकार के रूप में ज़्यादा जाने जाते हैं, लेकिन हक़ीक़त में पहले वो एक लिटररी फ़िगर थे और बाद में फ़िल्मी गीतकार। फ़िल्मों में गीत लेखन वो अपने परिवार को चलाने के लिये किया करते थे। जहाँ तक ग़ैर फ़िल्मी रचनाओं का सवाल है, उन्होंने ग़ैर फ़िल्मी ग़ज़लों के पाँच दीवान लिखे हैं, जिनका अब 'कुल्यात-ए-शकील' के नाम से संकलन प्रकाशित हुआ है। उन्होंने अपने जीवन काल में 500 से ज़्यादा ग़ज़लें और नज़्में लिखे होंगे जिन्हें आज भारत, पाक़िस्तान और दुनिया भर के देशों के गायक गाते हैं।

आपने आंकड़ा बताया तो मुझे याद आया कि हमने आप से शकील साहब के लिखे फ़िल्मी गीतों की संख्या नहीं पूछी। कोई अंदाज़ा आपको कि शकील साहब ने कुल कितने फ़िल्मी गीत लिखे होंगे?

उन्होंने 108 फ़िल्मों में लगभग 800 गीत लिखे हैं, और इनमें 5 फ़िल्में अनरिलीज़्ड भी हैं।

बहुत ही कम उम्र में शकील साहब चले गए। क्या कारण था उनकी इस असामयिक मृत्यु का?

उन्हें डाइबेटिस तो थी ही, उन्हें टी.बी भी हो गया। पंचगनी के एक सैनिटोरियम में उनका इलाज चल रहा था। 1968-69 में वो बम्बई से पंचगनी के चक्कर लगाया करते थे। नौशाद साहब आते थे मिलने। केवल 53 साल की उम्र में उनका इन्तकाल हो गया। दिन था 20 अप्रैल 1970।

हमने सुना है कि आर्थिक स्थिति परिवार की उस समय ठीक नहीं थी। और नौशाद साहब ने निर्माताओं से कह कर शकील साहब को तीन फ़िल्मों के लिए साइन करवाया था। इस घटना के बारे में बतायेंगे?


जावेद बदायूनी
नौशाद साहब को जैसे ही इस बात का पता चला कि शकील साहब बीमार हैं और उनके पास इलाज के लिए पैसे नहीं है, उन्हें बहुत ज़्यादा तकलीफ़ हुई, दुख हुआ। नौशाद साहब को पता था कि शकील साहब इतने ख़ुद्दार इंसान हैं कि किसी से पैसे वो नहीं लेंगे, यहाँ तक कि नौशाद से भी नहीं। इसलिए नौशाद साहब ने एक दूसरा रास्ता इख़्तियार किया। वो पहुँच गये कुछ फ़िल्म निर्माताओं के पास और शकील साहब की हालत का ब्योरा देते हुए उनके लिए हासिल कर लाए तीन फ़िल्मों में गीत लिखने का कॉनट्रैक्ट। यही नहीं, उस समय शकील किसी फ़िल्म के लिए जितने रकम लिया करते थे, उससे दस गुणा ज़्यादे रकम पर नौशाद ने उन फ़िल्म निर्माताओं को राज़ी करवाया। उसके बाद नौशाद ख़ुद जा पहुँचे पंचगनी जहाँ इनका इलाज चल रहा था। जैसे ही उन्होंने उन तीन फ़िल्मों में गाने लिखने और पेमेण्ट की रकम के बारे में बताया तो शकील सहब समझ गये कि उन पर अहसान किया जा रहा है। और उन्होंने नौशाद साहब से वो फ़िल्में वापस कर आने को कहा। पर नौशाद साहब ने भी अब ज़िद पकड़ ली और शकील साहब को गाने लिखने पर मजबूर किया। ये तीन फ़िल्में थीं 'राम और श्याम', 'आदमी', और 'संघर्ष'। फ़िल्म 'राम और श्याम' का गीत "आज की रात मेरे दिल की सलामी ले ले" उन्होंने पंचगनी के अस्पताल के बेड पर बैठे-बैठे लिखा था। अपनी दिन-ब-दिन ढलती जा रही ज़िन्दगी को देख कर उन्हें शायद यह अहसास हो चला था कि अब वो ज़्यादा दिन ज़िन्दा नहीं रहेंगे, कि उनका अन्तिम समय अब आ चला है, शायद इसीलिए उन्होंने इस गीत में लिखा कि "कल तेरी बज़्म से दीवाना चला जायेगा, शम्मा रह जायेगी परवाना चला जायेगा, आज की रात मेरे दिल की सलामी ले ले"। नौशाद साहब अपने जीवन के अन्त तक जब भी इस गीत को सुनते थे, उनकी आँखों में आँसू आ जाते थे शकील साहब को याद करके।

बहुत ही मार्मिक! क्या ये तीन फ़िल्में शकील साहब की अन्तिम तीन फ़िल्में थीं?

आख़िरी फ़िल्म शायद ’प्यार का रिश्ता’ थी जिसे वो शंकर-जयकिशन के लिए लिख रहे थे। इस फ़िल्म के कुल पाँच गीतों में से तीन गीत इन्होंने लिखे, फिर इनका इन्तकाल हो गया और बाक़ी के बचे दो गीत इन्दीवर साहब से लिखवाये गए। यह फ़िल्म 1973 में रिलीज़ हुई थी।

शकील साहब के जाने के बाद आपके परिवार की आर्थिक स्तिथि बिगड़ गई होगी। कैसे सम्भला फिर सब?

उनके दोस्त अहमद ज़कारिया और रंगूनवाला जी, इन्होंने मिल कर एक ट्रस्ट बनाई ’याद-ए-शकील’ के नाम से। और इस ट्रस्ट ने हमें उस बुरे वक़्त में सहारा दिया।

जावेद साहब, आप भी अपने पैरों पर खड़े हुए, यह बताइए कि आप किस क्षेत्र में कार्यरत है?

मैं पिछले 32 सालों से SOTC Tour Operators के साथ था, और अब HDFC Standard Life में हूँ, मुंबई में स्थित हूँ। 

और अब एक आख़िरी सवाल आपसे, शकील साहब ने जो मशाल जलाई है, क्या उस मशाल को आप या आपके परिवार का कोई और सदस्य, रिश्तेदार उसे आगे बढ़ाने में इच्छुक हैं?

मेरी बड़ी बहन रज़ीज़ शकील को शकील साहब के गुण मिले हैं और वो बहुत ख़ूबसूरत शायरी लिखती हैं।

बहुत बहुत शुक्रिया जावेद साहब। होली के इस रंगीन पर्व को आप ने शकील साहब की यादों से और भी रंगीन किया, भविष्य में हम आप से शकील साहब की शख़्सियत के कुछ और अनछुये पहलुयों पर चर्चा करना चाहेंगे। आपको एक बार फिर से होली की हार्दिक शुभकामना देते हुए अब विदा लेते हैं, नमस्कार!

बहुत बहुत शुक्रिया आपका!



आपको हमारी यह प्रस्तुति कैसी लगी, हमे अवश्य बताइएगा। आप अपने सुझाव और फरमाइशें ई-मेल आईडी soojoi_india@yahoo.co.in पर भेज सकते है। अगले माह के चौथे शनिवार को हम एक ऐसे ही चर्चित अथवा भूले-विसरे फिल्म कलाकार के साक्षात्कार के साथ उपस्थित होंगे। अब हमें आज्ञा दीजिए। 



प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी 





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