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"बिन गुरु ज्ञान कहाँ से पाऊँ..." - शिक्षक दिवस के उपलक्ष्य पर बैजु बावरा और उनके गुरु स्वामी हरिदास का स्मरण


एक गीत सौ कहानियाँ - 65

 
शिक्षक दिवस पर गुरु का स्मरण

'मन तड़पत हरि दर्शन को आज...' 




रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। दोस्तों, हम रोज़ाना रेडियो पर, टीवी पर, कम्प्यूटर पर, और न जाने कहाँ-कहाँ, जाने कितने ही गीत सुनते हैं, और गुनगुनाते हैं। ये फ़िल्मी नग़में हमारे साथी हैं सुख-दुख के, त्योहारों के, शादी और अन्य अवसरों के, जो हमारे जीवन से कुछ ऐसे जुड़े हैं कि इनके बिना हमारी ज़िन्दगी बड़ी ही सूनी और बेरंग होती। पर ऐसे कितने गीत होंगे जिनके बनने की कहानियों से, उनसे जुड़े दिलचस्प क़िस्सों से आप अवगत होंगे? बहुत कम, है न? कुछ जाने-पहचाने, और कुछ कमसुने फ़िल्मी गीतों की रचना प्रक्रिया, उनसे जुड़ी दिलचस्प बातें, और कभी-कभी तो आश्चर्य में डाल देने वाले तथ्यों की जानकारियों को समेटता है 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' का यह स्तम्भ 'एक गीत सौ कहानियाँ'। इसकी 65-वीं कड़ी में आज जानिये फ़िल्म ’बैजु बावरा’ के सदाबहार भक्ति रचना "मन तड़पत हरि दर्शन को आज..." के बारे में जिसे मोहम्मद रफ़ी ने गाया था।

Rai Mohan as Swami Haridas
गुरु शिष्य की परम्परा सदियों से हमारे देश में चली आ रही है। गुरु द्रोण से लेकर आज के दौर में भी गुरु और शिष्य का रिश्ता बरकरार है। आज शिक्षक दिवस के उपलक्ष्य में ’एक गीत सौ कहानियाँ’ के माध्यम से याद करते हैं बैजु बावरा और उनके गुरु स्वामी हरिदास जी को। 1952 की फ़िल्म ’बैजु बावरा’ में एक दृश्य है जिसमें बैजु के गुरु हरिदास जी बीमार हैं और बिस्तर से उठ नहीं पा रहे। पर बैजु की आवाज़ में "मन तड़पत हरि दर्शन को आज" सुन कर वो इतने प्रभावित हो जाते हैं, उन पर इस भजन का ऐसा असर होता है कि वो अपने पाँव पर खड़े हो जाते हैं और चल कर अपने शिष्य को गले लगा लेते हैं। "बिन गुरु ज्ञान कहाँ से पाऊँ, दीजो दान हरि गुण गाऊँ, सब गुणी जन पे तुम्हरा राज, तड़पत हरि दर्शन को आज"। बैजु बावरा का जन्म गुजरात सलतनत के चम्पानेर में एक ग़रीब ब्राह्मण के घर हुआ था। उनका नाम बैजनाथ मिश्र था। पिता की मृत्यु के बाद उनकी माँ, जो एक कृष्ण भक्त थीं, बैजनाथ को साथ लेकर वृन्दावन चली गईं। वहीं पर बैजु की मुलाक़ात स्वामी हरिदास से हुई जिनके गुरुकुल में बैजु की शिक्षा-दीक्षा हुई। बैजु ने एक अनाथ बालक गोपाल को गोद लिया और उसे संगीत में पारंगत बनाया। समय के साथ-साथ बैजु और गोपाल की प्रसिद्धि बढ़ी और चन्देरी के राज दरबार में दोनों को गाने का अवसर मिला। गोपाल ने अपनी शिष्या प्रभा से विवाह कर एक पुत्री मीरा को जन्म दिया। एक दिन जब बैजु कहीं गए हुए थे, गोपाल अपनी पत्नी और पुत्री के साथ चन्देरी को हमेशा के लिए छोड़ कर कुछ कश्मीरी व्यवसायी लोगों के दिए लालच में पड़ कर कश्मीर चले गए। जब बैजु ने वापस आकर देखा कि उसका परिवार बिखर गया है, वह एक भिखारी बन गया और पागलों की तरह यहाँ-वहाँ भटकने लगा। और तभी उनके नाम के आगे "बावरा" लग गया। तानसेन, जो स्वामी हरिदास के ही शिष्य थे, उन्होंने अपने गुरु से बैजु के बारे में सुन रखा था। उनसे मिलने की चाह तानसेन के मन में जागी और उन्होंने अपने रीवा के संरक्षक राजा रामचन्द्र बघेला से एक संगीत प्रतियोगिता आयोजित करने का अनुरोध किया क्योंकि उन्हें यकीन था कि बैजु ज़रूर इसमें भाग लेने आएगा। बैजु आया और ऐसा राग मृगरंजिनि गाया कि हिरण सम्मोहित हो गए। राग मालकौंस गाकर बैजु बावरा ने एक पत्थर को भी पिघला दिया था। और फ़िल्म ’बैजु बावरा’ का प्रस्तुत भजन भी राग मालकौंस पर ही आधारित है। यह भजन फ़िल्मी भजनों में एक बहुत ऊँचा स्थान रखता है। फ़िल्म-संगीत में इतना दिव्य और अलौकिक काम बहुत कम देखने को मिलता है। और सबसे महत्वपूर्ण जो बात है इस भजन में वह यह कि इस शुद्ध हिन्दी/संस्कृत आधारित भजन के रचयिता तीन मुसलमान कलाकार हैं - शक़ील बदायूंनी, नौशाद अली और मोहम्मद रफ़ी। साम्प्रदायिक सदभाव का इससे बेहतर उदाहरण और कोई नहीं हो सकता! ’बैजु बावरा’ फ़िल्म में बैजु, तानसेन और स्वामी हरिदास की भूमिकाओं में थे क्रम से भारत भूषण, सुरेन्द्रनाथ और राय मोहन।

Vijay Bhatt
’बैजु बावरा’ विजय भट्ट और शंकर भट्ट के ’प्रकाश पिक्चर्स’ की फ़िल्म थी। नौशाद को उनका पहला बड़ा ब्रेक इसी बैनर ने दिया था साल 1940 में। उन दिनों डी. एन. मधोक फ़िल्म ’माला’ की कहानी और संवाद लिख रहे थे, और उन्होंने ही यह सुझाव दिया कि इस फ़िल्म के संगीत के लिए एक युवा संगीतकार की आवश्यक्ता है। भट्ट भाइयों ने नौशाद की पहली फ़िल्म ’प्रेम नगर’ की कुछ धुनों को सुन रखा था। मधोक के कहने पर नौशाद को 250 रुपये महीने पर रख लिया गया। विविध भारती के ’उजाले उनकी यादों के’ शृंखला में ’नौशाद-नामा’ शीर्षक से प्रस्तुत कार्यक्रम में नौशाद साहब ने ’बैजु बावरा’ के निर्माण से जुड़ी बहुत सी बातें बताई थी, उसी बातचीत से सम्पादित अंश प्रस्तुत है। "विजय भट्ट और शंकर भट्ट भाई थे, बहुत पढ़े-लिखे थे। ’स्टेशन मास्टर’ के बाद मैं ’कारदार प्रोडक्श्न्स’ में आ गया। एक दिन दोनो भाई मेरे पास आकर कहने लगे कि ’प्रकाश पिक्चर्स’ कंपनी को बन्द करने की नौबत आ गई है। मैंने पूछा कि क्या मैं कोई मदद कर सकता हूँ? वो बोले कि आप आइए, दिलीप कुमार और नरगिस को ले आइए, ताकि ’प्रकाश पिक्चर्स’ का कर्ज़ अदा हो जाए। मैंने उनसे हर सम्भव मदद करने का वादा किया और पूछा कि क्या उनके पास कोई कहानी है? फिर अगले छह महीने तक हमने ’बैजु बावरा’ की कहानी पर काम किया। पैसे और पेमेण्ट की कोई बात नहीं हुई, हम बस कहानी को डेवेलप करते चले गए। फिर मैंने एक सुझाव दिया विजु भाई को कि चैरेक्टर चलता है ऐक्टर नहीं चलता। विजु भाई ने पूछा कि क्या मतलब है इसका? मैंने समझाया कि अगर आप दिलीप कुमार या राज कपूर को बैजु बावरा के रोल के लिए लेंगे तो दर्शक उसे दिलीप कुमार या राज कपूर के रूप में ही पहचानेगी, कोई नहीं कहेगा कि बैजु आया है। ऐसे लड़के को लीजिए जो बैजु लगे और ऐसी किसी लड़की को लीजिए जो गौरी लगे।"

Naushad, Rafi & Shaqeel
नौशाद साहब ने आगे बताया कि मीना कुमारी के वालिद अली बक्श अपनी बेटियों के साथ दादर में रहते थे नौशाद के घर के आसपास ही। उन दिनों मीना वाडिया की एक जादू-टोने की पिक्चर में काम कर रही थी। मैंने अली बक्श से कहा कि मीना को मेरे साथ प्रकाश पिक्चर्स भेज दे ताकि उसे अच्छी फ़िल्म में काम करने का मौका मिल सके। और आख़िरकार भारत भूषण और मीना कुमारी बैजु और गौरी के रोल के लिए सीलेक्ट किए गए। वो अपना काम करते थे और मैं अपना। गाना रेकॉर्ड करके साउन्डट्रैक भेज देते थे पिक्चराइज़ करने के लिए। इस तरह से ’बैजु बावरा’ बनी। जब शंकर भाई ने यह सुना कि फ़िल्म के गीतों में शास्त्रीय संगीत और रागों का भरमार है तो उन्हें इस बात से थोड़ा ऐतराज़ हुआ। उन्होंने कहा कि लोगों के सर में दर्द हो जाएगा और वो भाग जाएँगे थिएटरों से। पर मैं अपने बात पे कायम था। मुझे पब्लिक का टेस्ट बदलना था। पब्लिक को क्यों हमेशा वही चीज़ें दी जाए जो उन्हें हर वक़्त पसन्द आते हैं? हमने पब्लिक को उन्हीं की संस्कृति के संगीत से रु-ब-रु करवाया, और हम कामयाब भी हुए। विजय भट्ट को इस फ़िल्म के लिए काफ़ी तारीफ़ें मिली और मुझे भी अपने हिस्से का इनाम मिला। फ़िल्म की सिल्वर जुबिली हुई, पर आज तक मेरा इस फ़िल्म के लिए कोई ऐग्रीमेण्ट नहीं बना। मुझे अब तक याद है वह जुमला जो विजय भट्ट ने मुझसे कहा था कि प्रकाश में ताला लगाना है। मैंने उनसे कहा था कि अगर वो मुझे इस फ़िल्म के लिए पैसे नहीं भी देगा तो भी मुझे कोई ऐतराज़ नहीं है।" और अब आप यही गीत सुनिए - 

'मन तड़पत हरिदर्शन को आज...' : फिल्म - बैजू बावरा : मुहम्मद रफी : नौशाद : शकील बदायूनी 




अब आप भी 'एक गीत सौ कहानियाँ' स्तंभ के वाहक बन सकते हैं। अगर आपके पास भी किसी गीत से जुड़ी दिलचस्प बातें हैं, उनके बनने की कहानियाँ उपलब्ध हैं, तो आप हमें भेज सकते हैं। यह ज़रूरी नहीं कि आप आलेख के रूप में ही भेजें, आप जिस रूप में चाहे उस रूप में जानकारी हम तक पहुँचा सकते हैं। हम उसे आलेख के रूप में आप ही के नाम के साथ इसी स्तम्भ में प्रकाशित करेंगे। आप हमें ईमेल भेजें soojoi_india@yahoo.co.in के पते पर। 


खोज, आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग: कृष्णमोहन मिश्र 




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