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फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी – २

   
स्वरगोष्ठी – ९१ में आज 
बेगम अख्तर की ९९वें जन्मदिवस पर स्वरांजलि

‘भर भर आईं मोरी अँखियाँ पिया बिन...’

रस, रंग और भाव की सतरंगी छटा बिखेरती ठुमरी पर केन्द्रित लघु श्रृंखला ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ के एक नए अंक में कृष्णमोहन मिश्र का अभिवादन स्वीकार कीजिए। ‘स्वरगोष्ठी’ पर जारी इस श्रृंखला के आज के अंक में हम ठुमरी और गजल की साम्राज्ञी बेगम अख्तर को उनके ९९वें जन्मदिन पर स्मरण कर रहे हैं। आज इस अवसर पर बेगम साहिबा की गायी ठुमरी और ग़ज़ल से हम उन्हें स्वरांजलि अर्पित करते हैं।



श्रृंगार और भक्ति रस से सराबोर ठुमरी और गजल शैली की अप्रतिम गायिका बेगम अख्तर का जन्म ७ अक्तूबर, १९१४ उत्तर प्रदेश के फ़ैज़ाबाद नामक एक छोटे से नगर (तत्कालीन अवध) में एक कट्टर मुस्लिम परिवार में हुआ था। परिवार में किसी भी सदस्य को न तो संगीत से अभिरुचि थी और न किसी को संगीत सीखना-सिखाना पसन्द था। परन्तु अख्तरी (बचपन में उन्हें इसी नाम से पुकारा जाता था) को तो मधुर कण्ठ और संगीत के प्रति अनुराग जन्मजात उपहार के रूप में प्राप्त था। एक बार सुविख्यात सरोदवादक उस्ताद सखावत हुसेन खाँ के कानों में अख्तरी के गुनगुनाने की आवाज़ पड़ी। उन्होने परिवार में ऐलान कर दिया कि आगे चल कर यह नन्ही बच्ची असाधारण गायिका बनेगी, और देश-विदेश में अपना व परिवार का नाम रोशन करेगी। उस्ताद ने अख्तरी के माता-पिता से संगीत की तालीम दिलाने का आग्रह किया। पहले तो परिवार का कोई भी सदस्य इसके लिए राजी नहीं हुआ किन्तु अख्तरी की माँ, जो स्वयं भी कुशल गायिका थीं, ने सबको समझा-बुझा कर अन्ततः मना लिया।

उस्ताद सखावत हुसेन ने अपने मित्र, पटियाला के प्रसिद्ध गायक उस्ताद अता मुहम्मद खाँ से अख्तरी को तालीम देने का आग्रह किया। वे मान गए और अख्तरी उस्ताद के पास भेज दी गईं। मात्र सात वर्ष की आयु में उन्हें उस्ताद के कठोर अनुशासन में रियाज़ करना पड़ा। तालीम के दिनों में ही उनका पहला रिकार्ड- ‘वह असीरे दम बला हूँ...’ बना और वे अख्तरी बाई फैजाबादी बन गईं। उस्ताद अता मुहम्मद खाँ के बाद उन्हें पटना के उस्ताद अहमद खाँ से रागों की विधिवत शिक्षा मिली। इसके अलावा बेगम अख्तर को उस्ताद अब्दुल वहीद खाँ और हारमोनियम वादन में सिद्ध उस्ताद गुलाम मुहम्मद खाँ का मार्गदर्शन भी प्राप्त हुआ। १९३४ में कलकत्ता (अब कोलकाता) के अल्फ्रेड थियेटर हॉल में बिहार के भूकम्प-पीड़ितों के सहायतार्थ एक संगीत समारोह का आयोजन किया गया था। इस समारोह में कई बड़े कलाकारों के बीच नवोदित अख्तरी बाई को पहली बार गाने का अवसर मिला। मंचीय कार्यक्रमों की भाषा में कहा जाए तो “अख्तरी बाई ने मंच लूट लिया”।

फिल्म 'जलसाघर' का एक दृश्य 
बेगम अख्तर यद्यपि खयाल गायकी में अत्यन्त कुशल थीं किन्तु उन्हें ठुमरी और गज़ल गायन में सर्वाधिक ख्याति मिली। स्पष्ट उच्चारण और भावपूर्ण गायकी के कारण उन्हे चौथे और पाँचवें दशक की फिल्मों में भी अवसर मिला। उन्होने ईस्टर्न इण्डिया कम्पनी की फिल्मों- एक दिन का बादशाह, नल-दमयंती, नसीब का चक्कर आदि फिल्मों में काम किया। १९४० में बनी महबूब प्रोडक्शन की फिल्म ‘रोटी’ में उनके गाये गीतों ने तो पूरे देश में धूम मचाई थी। विश्वविख्यात फ़िल्मकार सत्यजीत रे ने १९५९ में भारतीय संगीत की उन्नीसवीं शताब्दी में दशा-दिशा पर फिल्म ‘जलसाघर’ का निर्माण किया था। इस फिल्म में गायन, वादन और नर्तन के तत्कालीन उत्कृष्ट कलाकारों को प्रत्यक्ष रूप में प्रस्तुत किया गया था। फिल्म में बिस्मिल्लाह खाँ (शहनाई), उस्ताद वहीद खाँ (सुरबहार), रोशन कुमारी (कथक), उस्ताद सलामत अली खाँ (खयाल गायन) के साथ बेगम अख्तर ने गायिका दुर्गा बाई की भूमिका मे राग पीलू में निबद्ध विरह-वेदना को उकेरती ठुमरी- ‘भर भर आईं मोरी अँखियाँ पिया बिन...’ का गायन प्रस्तुत किया था। आगे बढ़ाने से पहले लीजिए, आप भी यह ठुमरी सुनिए-

पीलू ठुमरी : ‘भर भर आईं मोरी अँखियाँ पिया बिन...’ : बेगम अख्तर



विदुषी बेगम अख्तर का उदय जिस काल में हुआ था, भारतीय संगीत का पुनर्जागरण काल था। ब्रिटिश शासनकाल में भारतीय संगीत जिस प्रकार उपेक्षित हुआ था, उससे जनजीवन से संगीत की दूरी बढ़ गई थी। ऐसी स्थिति में १८७८ में जन्में पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर और १८९६ में जन्में पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे ने अपने अनथक प्रयत्नों से पूरी शुचिता के साथ संगीत को न केवल पुनर्प्रतिष्ठित किया बल्कि जन-जन के लिए संगीत-शिक्षा सुलभ कराया। इस दोनों संगीत-ऋषियों के प्रयत्नों के परिणाम बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दशकों में परिलक्षित होने लगे थे। बेगम अख्तर इसी पुनर्जागरण काल की देन थीं। उनकी गायकी में शुचिता थी और श्रोताओं के हृदय को छूने की क्षमता भी थी। अब हम आपके लिए बेगम अख्तर के स्वर में एक होरी ठुमरी प्रस्तुत करते हैं। सुविख्यात गायक पण्डित जसराज ने बेगम साहिबा और उनकी गायकी पर एक सार्थक टिप्पणी की थी, जिसे ठुमरी से पूर्व आप भी सुनेंगे।

होरी ठुमरी : ‘कैसी ये धूम मचाई...’ : बेगम अख्तर



बेगम अख्तर ने अपने जीवन में ठुमरी, दादरा और गज़ल गायकी को ही अपना लक्ष्य बनाया। खयाल गायकी में भी वे दक्ष थीं, किन्तु उनका रुझान उप-शास्त्रीय गायकी की ओर ही केन्द्रित रहा। उनकी गायकी में अनावश्यक अलंकरण नहीं होता था। उनके सुर सच्चे होते थे। बड़ी सहजता और सरलता से रचना के भावों को श्रोताओं तक सम्प्रेषित कर देती थीं। अब हम आपके लिए बेगम साहिबा की गज़ल गायकी का एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। एक कार्यक्रम में सुप्रसिद्ध शायर कैफी आज़मी और बेगम अख्तर की अनूठी जुगलबन्दी हुई। पहले कैफी आज़मी ने अपनी एक गज़ल पढ़ी। बाद में बेगम साहिबा ने उसी गज़ल का सस्वर गायन प्रस्तुत किया था। शायर और गायिका अर्थात शब्द और स्वर की एक ही मंच पर हुई इस अनूठी जुगलबन्दी का आप आनंद लीजिए और हमें आज के इस अंक को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए। ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से विदुषी बेगम अख्तर की स्मृतियों को सादर नमन अर्पित है।

गजल : ‘सुना करो मेरे जाँ इनसे उनसे अफसाने...’ : बेगम अख्तर



आज की पहेली

‘स्वरगोष्ठी’ पर जारी संगीत-पहेली का आज से आरम्भ हो रहा है पाँचवाँ और अन्तिम सेगमेंट। आप जानते ही हैं कि ५१वें अंक से हमने संगीत पहेली को दस-दस अंकों की श्रृंखलाओं (सेगमेंट) में बाँटा था। पाँचवें सेगमेंट अर्थात १००वें अंक तक सर्वाधिक सेगमेंट के पहले तीन विजेताओ का हम चयन करेंगे और उन्हें पुरस्कृत करेंगे। अगले अंक में चौथे सेगमेंट के विजेताओं के नाम की घोषणा भी की जाएगी।

‘स्वरगोष्ठी’ की आज की संगीत-पहेली में हम आपको कण्ठ-संगीत प्रस्तुति का एक अंश सुनवा कर आपसे तीन प्रश्न पूछेंगे। १००वें अंक तक सर्वाधिक अंक अर्जित करने वाले प्रतिभागी श्रृंखला के विजेता होंगे।


१ - संगीत के इस अंश को सुन कर पहचानिए कि यह रचना किस राग में निबद्ध है?

२ - यह किस भारतीय गायक की आवाज़ है?

३ – यही पारम्परिक दादरा सातवें दशक के आरम्भ में बनी एक फिल्म में भी शामिल किया गया था। क्या आप उस फिल्मी गीत के पार्श्वगायक का नाम बता सकते है?

आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com पर ही शनिवार मध्यरात्रि तक भेजें। comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के ९३वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।

पिछली पहेली के विजेता

‘स्वरगोष्ठी’ के ८९वें अंक में हमने आपको सुप्रसिद्ध गायक उस्ताद अब्दुल करीम खाँ की आवाज़ में एक प्राचीन ठुमरी का अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग झिंझोटी दूसरे का सही उत्तर है- ठुमरी शैली। इस बार की पहेली में नियमित उत्तरदाताओं ने भाग नहीं लिया और जिन्होने भाग लिया, उनमें से किसी का उत्तर सही नहीं था।

झरोखा अगले अंक का


मित्रों, ‘स्वरगोष्ठी’ के आगामी अंक में हम आपसे हम एक बेहद लोकप्रिय दादरा पर चर्चा करेंगे। आपके सम्मुख हम इस दादरा का उपशास्त्रीय और फिल्मी, दोनों रूप प्रस्तुत करेंगे। आपकी स्मृतियों में यदि किसी मूर्धन्य कलासाधक की ऐसी कोई पारम्परिक रचना हो जिसे किसी भारतीय फिल्म में भी शामिल किया गया हो तो हमें अवश्य लिखें। आपके सुझाव और सहयोग से इस स्तम्भ को अधिक सुरुचिपूर्ण रूप दे सकते हैं। अगले रविवार को प्रातः ९-३० पर आयोजित अपनी इस गोष्ठी में आप अवश्य पधारिए। हमें आपकी प्रतीक्षा रहेगी।


कृष्णमोहन मिश्र

 
'मैंने देखी पहली फिल्म' : आपके लिए एक रोचक प्रतियोगिता
दोस्तों, भारतीय सिनेमा अपने उदगम के 100 वर्ष पूरा करने जा रहा है। फ़िल्में हमारे जीवन में बेहद खास महत्त्व रखती हैं, शायद ही हम में से कोई अपनी पहली देखी हुई फिल्म को भूल सकता है। वो पहली बार थियेटर जाना, वो संगी-साथी, वो सुरीले लम्हें। आपकी इन्हीं सब यादों को हम समेटेगें एक प्रतियोगिता के माध्यम से। 100 से 500 शब्दों में लिख भेजिए अपनी पहली देखी फिल्म का अनुभव radioplaybackindia@live.com पर। मेल के शीर्षक में लिखियेगा ‘मैंने देखी पहली फिल्म’। सर्वश्रेष्ठ तीन आलेखों को 500 रूपए मूल्य की पुस्तकें पुरस्कारस्वरुप प्रदान की जायेगीं। तो देर किस बात की, यादों की खिड़कियों को खोलिए, कीबोर्ड पर उँगलियाँ जमाइए और लिख डालिए अपनी देखी हुई पहली फिल्म का दिलचस्प अनुभव। प्रतियोगिता में आलेख भेजने की अन्तिम तिथि 31अक्टूबर, 2012 है।



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