Skip to main content

"जब से पी संग नैना लागे" - क्यों लता नहीं गा सकीं ओ.पी.नय्यर के इस पहले पहले कम्पोज़िशन को


लता मंगेशकर और ओ.पी.नय्यर के बीच की दूरी फ़िल्म-संगीत जगत में एक चर्चा का विषय रहा है। आज इसी ग़लतफ़हमी पर एक विस्तारित नज़र ओ.पी.नय्यर की पहली फ़िल्म 'आसमान' के एक गीत के ज़रिए सुजॉय चटर्जी के साथ, 'एक गीत सौ कहानियाँ' की पाँचवी कड़ी में...

एक गीत सौ कहानियाँ # 5

स्वर्ण-युग के संगीतकारों में बहुत कम ऐसे संगीतकार हुए हैं जिनकी धुनों पर लता मंगेशकर की आवाज़ न सजी हो। बल्कि यूं भी कह सकते हैं कि हर संगीतकार अपने गानें लता से गवाना चाहते थे। ऐसे में अगर कोई संगीतकार उम्र भर उनसे न गवाने की क़सम खा ले, तो यह मानना ही पड़ेगा कि उस संगीतकार में ज़रूर कोई ख़ास बात होगी, उसमें ज़रूर दम होगा। ओ.पी. नय्यर एक ऐसे ही संगीतकार हुए जिन्होने कभी लता से गाना नहीं लिया। अपनी पहली पहली फ़िल्म के समय ही किसी मनमुटाव के कारण जो दरार लता और नय्यर के बीच पड़ी, वह फिर कभी नहीं भर सकी। लता और नय्यर, दोनों से ही लगभग हर साक्षात्कार में यह सवाल ज़रूर पूछा जाता रहा है कि आख़िर क्या बात हो गई थी कि दोनों नें कभी एक दूसरे की तरफ़ क़दम नहीं बढ़ाया, पर हर बार ये दोनों असल बात को टालते रहे हैं। आज हम इन दोनों के वक्तव्य को जानने के साथ-साथ हक़ीक़त में क्या बात हुई थी, असल मुद्दा क्या था, उस पर भी ज़रा करीब से नज़र डालेंगे।

नय्यर साहब को जब पूछा गया कि क्या वजह है जो उन्होंने कभी लता जी को नहीं गवाया, तो उन्होंने ख़ुदा का वास्ता देते हुए कहा, "७८ की मेरी उम्र है, मुझे मरते वक़्त जान देनी है, तो मैं आपको बताऊँ कि कोई उनसे झगड़ा नहीं है, न मैंने उन्हे कभी ऐप्रोच किया। उनकी आवाज़ मेरी म्युज़िक को सूट नहीं करती। मुझे चाहिए सिडक्टिव वॉयस, जिसकी वॉयस में वेट हो, वह मुझे गीता दत्त, शमशाद बेगम और आशा भोसले में मिला। आशा भोसले बड़ी अच्छी गायिका है, लेकिन नम्बर वन गायिका लता मंगेशकर ही रहेगी, और नम्बर दो आशा भोसले ही रहेगी।" इस तरह से नय्यर साहब तो साफ़ मूकर गए इस बात से कि लता जी के साथ उनकी कोई भी अन-बन हुई थी। लता जी क्या कहती हैं इस बारे में? "जी मैं ज़रूर यह कहना चाहूँगी क्योंकि मेरा और नय्यर साहब का कोई झगड़ा तो था ही नहीं, न मेरे दिल में उनके लिए ऐसा था कि भई ये बहुत बुरा आदमी है, और न कुछ उनके दिल में। इतना मैं जानती हूँ कि वो जब पहली बार आए और वह शायद पंचोली साहब की कोई फ़िल्म कर रहे थे, तब मुझे उन्होंने बुलाया था, और एक गाना उन्होंने मेरे लिए निकाला था। पर क्या हुआ उस वक़्त कि मैं, उस वक़्त मुझे साइनस की बहुत ज़्यादा तकलीफ़ थी और वह गाना रेकॉर्ड नहीं हुआ। वह गाना रेकॉर्ड न होने के बाद, अब यह मैं सोच रही हूँ, हो सकता है कि ऐसा नहीं हो, मुझे ऐसा लगता है कि शायद उन्होंने फिर सोचा हो कि नहीं, लता से नहीं लेंगे। और यह बात उन्होंने बिलकुल सच कही है कि जो उनका स्टाइल था वह शायद मेरे गले से अच्छा नहीं लगता। आज भी मुझे ऐसा महसूस होता है। पर वो मेरे हिसाब से बहुत अच्छे म्युज़िक डिरेक्टर थे और बहुत ही अच्छा उन्होंने म्युज़िक दिया है। और जो म्युज़िक उस वक़्त चल रहा था, उससे हट के उन्होंने अपना एक स्टाइल उस वक़्त शुरु किया था जैसे कि मास्टर ग़ुलाम हैदर।"

जहाँ एक तरफ़ नय्यर साहब नें साफ़ मना कर दिया था कि उन्होंने कभी लता को ऐप्रोच किया ही नहीं था, वहीं दूसरी तरफ़ लता जी नें बताया कि एक गाना नय्यर साहब नें उनके लिए कम्पोज़ किया था, जिसे वो साइनस की बीमारी की वजह से नहीं गा सकीं। जो बात दोनों ने बताई, वह यह कि दोनों में कोई झगड़ा नहीं था। चलिए अब ज़रा हक़ीक़त पर नज़र डालें जो प्रकाशित हुई हैं हरीश भिमानी लिखित मशहूर किताब 'इन सर्च ऑफ़ लता मंगेशकर' में, और जिसका पंकज राग लिखित किताब 'धुनों की यात्रा' में भी उल्लेख मिलता है। ओ. पी. नय्यर की पहली फ़िल्म थी १९५२ की 'आसमान' जिसके निर्माता थे दलसुख पंचोली। यह फ़िल्म नय्यर को उनके मित्र एस. एन. भाटिया की मदद से मिली थी। इस फ़िल्म के कुछ गीत उन्होंने गीता रॉय के लिए तो कम्पोज़ किया ही, एक गीत ऐसा था जिसकी रचना उन्होंने लता मंगेशकर की गायन शैली को ध्यान में रख कर कम्पोज़ किया था। गीत के बोल थे "जब से पी संग नैना लागे, तब से नाहीं लागे नैन, हो गिन-गिन घड़ियाँ दिन काटूं मैं, गिन-गिन तारे काटूं रैन, पिया आन सखी मोरे नैन में, मोरी निन्दिया चुराये गयो"। इस गीत को लता ही गाने वाली थीं, पर कुछ ऐसा हुआ कि दो तीन दिनों तक लता लगातार अन्य रेकॉर्डिंगों में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण रिहर्सल पर नहीं आ सकीं। नय्यर नें भी कारण जानने की कोशिश नहीं की और पंचोली साहब को लता की शिकायत कर दी। जब तक लता बात संभालतीं, तब तक इस वाकए को बढ़ा-चढ़ाकर ऐसा रंग दिया जा चुका था कि लता और नय्यर के बीच एक अटूट ग़लतफ़हमी जन्म ले चुकी थीं। लता के बाद इस गीत को राजकुमारी से गवा लिया गया।

लता और नय्यर के बीच का मनमुटाव यहीं पर ख़त्म नहीं हुआ। नय्यर की पहली तीन फ़िल्में - 'आसमान', 'छम छमा छम' और 'बाज़' - तीनों ही बुरी तरह पिटीं। पर चौथी फ़िल्म के रूप में १९५४ की फ़िल्म 'आर पार' के गीतों नें रातों रात पूरे देश में धूम मचा दी। ये गानें इतने ज़्यादा लोकप्रिय हुए कि नय्यर रातों रात प्रथम श्रेणी के संगीतकार बन गए और कई फ़िल्मकार अपनी अपनी फ़िल्म के लिए उन्हें साइन करना चाहते थे। उदाहरण स्वरूप, उस समय निर्माणाधीन फ़िल्म 'महबूबा' में रोशन और 'मंगू' में मोहम्मद शफ़ी संगीत दे रहे थे। इन दोनों फ़िल्मों के निर्माताओं नें इन दो संगीतकारों को हटाकर नय्यर को इनके संगीत का दायित्व दे दिया। नय्यर के लिए भले यह ख़ुशी की बात रही हो, पर इन दो संगीतकारों के लिए तो यह अपमान ही था। लता नय्यर से नाराज़ तो थीं ही, इस बात से वो और भी ज़्यादा नाख़ुश हो गईं और इस बात को वो ले गईं संगीतकारों के ऐसोसिएशन तक। नतीजा यह हुआ कि इन दो फ़िल्मों में नय्यर के लिए कोई गायिका गाने को राज़ी नहीं हो रही थीं। इस मुश्किल घड़ी में नय्यर का साथ दिया शम्शाद बेगम नें, पर लता और नय्यर के बीच जो गहरी दरार पड़ गई थी, वह कभी नहीं भर पाई। बरसों बरस बाद जब नय्यर साहब का नाम मध्य प्रदेश शासन प्रदत्त 'लता मंगेशकर पुरस्कार' के लिए चुना गया, तो नय्यर साहब नें पुरस्कार लेने से साफ़ मना कर दिया। आज फ़िल्म 'आसमान' के गीत विस्मृत हो चुके हैं, राजकुमारी का गाया और गीतकार प्रेम धवन का लिखा यह गीत भी ज़्यादा लोकप्रिय नहीं हुआ और आज एक भूला-बिसरा गीत बन चुका है, पर इस बात के लिए यह गीत ज़रूर याद किया जाएगा कि नय्यर नें इस गीत को लता के लिए ही स्वरबद्ध किया था। कैसे कैसे गीत बने होते अगर लता गातीं नय्यर के लिए!

फ़िल्म 'आसमान' से "जब से पी संग नैना लागे..." सुनने के लिए नीचे प्लेयर में क्लिक करें...



तो दोस्तों, यह था आज का 'एक गीत सौ कहानियाँ'। अगले सप्ताह फिर किसी गीत से जुड़ी बातें लेकर मैं फिर उपस्थित हो‍ऊंगा, तब तक के लिए अनुमति दीजिए अपने इस ई-दोस्त, सुजॉय चटर्जी को, नमस्कार!

Comments

Amit said…
सही बात तो लता जी का दिल ही जानता होगा. मैंने लता जी के ३-४ इंटरव्यू पढ़े हैं अलग अलग तर्कों के साथ. बात जो भी हो संगीत की एक जुगलबन्दी से संगीत प्रेमी वंचित रह गए.
वाकई, एक बड़े अच्छे कम्बीनेशन से वंचित रह गए...

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

कल्याण थाट के राग : SWARGOSHTHI – 214 : KALYAN THAAT

स्वरगोष्ठी – 214 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 1 : कल्याण थाट राग यमन की बन्दिश- ‘ऐसो सुघर सुघरवा बालम...’  ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर आज से आरम्भ एक नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ के प्रथम अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज से हम एक नई लघु श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं। भारतीय संगीत के अन्तर्गत आने वाले रागों का वर्गीकरण करने के लिए मेल अथवा थाट व्यवस्था है। भारतीय संगीत में 7 शुद्ध, 4 कोमल और 1 तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग होता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 स्वरों में से कम से कम 5 स्वरों का होना आवश्यक है। संगीत में थाट रागों के वर्गीकरण की पद्धति है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार 7 मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते हैं। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल प्रचलित हैं, जबकि उत्तर भारतीय संगीत पद्धति में 10 थाट का प्रयोग किया जाता है। इसका प्रचलन पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे जी ने प्रारम्भ किया

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की