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ओल्ड इस् गोल्ड - शनिवार विशेष- 'बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनंद बक्शी' ((भाग-१))

नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' आज अपना चालीसवाँ सप्ताह पूरा कर रहा है। दोस्तों, "आनंद बक्शी" एक ऐसा नाम है जो किसी तारीफ़ का मोहताज नहीं। यह वह नाम है जिसे हम बचपन से ही सुनते चले आ रहे हैं। रेडियो पर फ़िल्मी गीत सुनने में शौक़ीनों के लिये तो यह नाम जैसे एक दैनन्दिन नाम है। शायद ही कोई दिन ऐसा जाता होगा जिस दिन बक्शी साहब का नाम रेडियो पर घोषित न होता होगा। जिस आनंद बक्शी का नाम छुटपन से हर रोज़ सुनता चला आया हूँ, आज उसी बक्शी साहब के बेटे से एक लम्बी बातचीत करने का मौका पाकर जैसे मैं स्वप्नलोक में पहुँच गया हूँ। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि यह दिन भी कभी आयेगा। दोस्तों, आज से हम एक शृंखला ही कह लीजिये, शुरु कर रहे हैं, जिसमें गीतकार आनंद बक्शी साहब के बारे में बतायेंगे उन्ही के सुपुत्र राकेश बक्शी। चार भागों में सम्पादित इस शृंखला का शीर्षक है 'बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनंद बक्शी'। आज प्रस्तुत है इस शृंखला का पहला भाग।

सुजॉय - राकेश जी, 'हिंग-युग्म' की तरफ़ से, हमारे तमाम पाठकों की तरफ़ से, और मैं अपनी तरफ़ से आपका 'हिंद-युग्म' के इस मंच पर हार्दिक स्वागत करता हूँ, नमस्कार!

राकेश जी - नमस्कार!

सुजॉय - राकेश जी, सच पूछिये तो हम अभिभूत हैं आपको हमारे बीच में पाकर। फ़िल्म संगीत के सफलतम गीतकारों में से एक थे आनंद बक्शी जी, और आज उनके बेटे से बातचीत करने का सौभाग्य हमें प्राप्त हुआ है, जिसके लिये आपको हम जितना भी धन्यवाद दें, कम होगी।

राकेश जी - बहुत बहुत धन्यवाद!

सुजॉय - राकेश जी, वैसे तो बक्शी साहब के बारे में, उनकी फ़िल्मोग्राफ़ी के बारे में, उनके करीयर के बारे में हम कई जगहों से जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए इस बातचीत में हम उस तरफ़ न जाकर उनकी ज़िंदगी के कुछ ऐसे पहलुयों के बारे में आपसे जानना चाहेंगे जो शायद पाठकों को मालूम न होगी। और इसीलिए बातचीत के इस सिलसिले का नाम हमने रखा है 'बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनंद बक्शी'।

राकेश जी - ज़रूर!

सुजॉय - तो शुरु करते हैं, मेरा पहला सवाल आपके लिए बहुत ही आसान सा सवाल है, और वह है कि कैसा लगता है 'राकेश आनंद बक्शी' होना? मान लीजिए आप कहीं जा रहे हैं, और अचानक कहीं से बक्शी साहब का लिखा गीत बज उठता है, किसी पान की दुकान पे रेडियो पर, कैसा महसूस होता है आपको?

राकेश जी - उनके लिखे सभी गीत मुझे नॉस्टल्जिक बना देता है। उनके लिखे न जाने कितने गीतों के साथ कितनी हसीन यादें जुड़ी हुईं हैं, या फिर कोई पर्सनल ईक्वेशन। कहीं से उनका लिखा गीत मेरे कानों में पड़ जाये तो मैं उन्हें और भी ज़्यादा मिस करने लगता हूँ।

सुजॉय - अच्छा राकेश जी, किस उम्र में आपको पहली बार यह अहसास हुआ था कि आप 'आनंद बक्शी' के बेटे हैं? उस आनंद बक्शी के, जो कि फ़िल्म जगत के सबसे लोकप्रिय गीतकारों में से एक हैं? अपने बालपन में शायद आपको अंदाज़ा नहीं होगा कि बक्शी साहब की क्या जगह है लोगों के दिलों में, लेकिन जैसे जैसे आप बड़े होते गये, आपको अहसास हुआ होगा कि वो किस स्तर के गीतकार हैं और इंडस्ट्री में उनकी क्या जगह है। तो कौन सा था वह पड़ाव आपकी ज़िंदगी का जिसमें आपको इस बात का अहसास हुआ था?

राकेश जी - यह अहसास एक पल में नहीं हुआ, बल्कि कई सालों में हुआ। इसकी शुरुआत उस समय हुई जब मैं स्कूल में पढ़ता था। मेरे कुछ टीचर मेरी तरफ़ ज़्यादा ध्यान दिया करते। या डॉक्टर के क्लिनिक में, या फिर बाल कटवाने के सलून में, कहीं पर भी मुझे लाइन में खड़ा नहीं होना पड़ता। बड़ा होने पर मैंने देखा कि पुलिस कमिशनर और इन्कम टैक्स ऑफ़िसर, जिनसे लोग परहेज़ ही किया करते हैं, ये मेरे पिताजी के लगभग चरणों में बैठे हैं, और उनसे अनुरोध कर रहे हैं उनके लिखे किसी नये गीत या किसी पुराने हिट गीत को सुनवाने की।

सुजॉय - वाक़ई मज़ेदार बात है!

राकेश जी - जब मैं पहली बार विदेश गया और वहाँ पर जब NRI लोगों को यह बताया गया कि मैं बक्शी जी का बेटा हूँ, तो वो लोग जैसे पागल हो गये, और मुझे उस दिन इस बात का अहसास हुआ कि कभी विदेश न जाने के बावजूद मेरे पिताजी नें कितना लम्बा सफ़र तय कर लिया है। और यह सफ़र है असंख्य लोगों के दिलों तक का। मैं आपको यह बता दूँ कि उनका पासपोर्ट बना ज़रूर था, लेकिन वो कभी भी विदेश नहीं गये क्योंकि उन्हें हवाईजहाज़ में उड़ने का आतंक था, जिसे आप फ़्लाइंग-फ़ोबिआ कह सकते हैं। लेकिन यहाँ पर यह भी कहना ज़रूरी है कि सेना में रहते समय वो पैराट्रूपिंग्‍ किया करते थे अपनी तंख्वा में बोनस पाने के लिये।

सुजॉय - इस तरह के और भी अगर संस्मरण है तो बताइए ना!

राकेश जी - जब हम अपने रिश्तेदारों के घर दूसरे शहरों में जाते, तो वहाँ हमारे ठहरने का सब से अच्छा इंतज़ाम किया करते, या सब से जो अच्छा कमरा होता था घर में, वह हमें देते। एक वाक़या बताता हूँ, एक बार मैंने कुछ सामान इम्पोर्ट करवाया और उसके लिये एक इम्पोर्ट लाइसेन्स का इस्तमाल किया जिसमें कोई तकनीकी गड़बड़ी (technical flaw) थी। कम ही सही, लेकिन यह एक ग़ैर-कानूनी काम था जो सज़ा के काबिल था। और उस ऑफ़िसर नें मुझसे भारी जुर्माना वसूल करने की धमकी दी। लेकिन जाँच-पड़ताल के वक़्त जब उनको पता चला कि मैं किनका बेटा हूँ, तो वो बोले कि पिताजी के गीतों के वो ज़बरदस्त फ़ैन हैं। उन्होंने फिर मुझे पहली बार बैठने को कहा, मुझे चाय-पानी के लिये पूछा, जुर्माने का रकम भी कम कर दिया, और मुझे सलाह दी कि भविष्य में मैं इन बातों का ख़याल रखूँ और सही कस्टम एजेण्ट्स को ही सम्पर्क करूँ ताकि इस तरह के धोखा धड़ी से बच सकूँ। उन्होंने यह भी कहा कि अगर मैं पुलिस या कस्टम्स में पकड़ा जाऊँगा तो इससे मेरे पिताजी का ही नाम खराब होगा। उस दिन से मैंने अपना इम्पोर्ट बिज़नेस बंद कर दिया। इन सब सालों में और आज भी मैं बहुत से लोगों का विश्वास और प्यार अर्जित करता हूँ, जिनसे मैं कभी नहीं मिला, जो मेरे लिये बिल्कुल अजनबी हैं। यही है बक्शी जी का परिचय, उनकी क्षमता, उनका पावर। और मैंने भी हमेशा इस बात का ख़याल रखा कि मैं कभी कोई ऐसा काम न करूँ जिससे कि उनके नाम को कोई आँच आये, क्योंकि मेरे जीवन में उनका नाम मेरे नाम से बढ़कर है, और मुझे उनके नाम को इसी तरह से बरकरार रखना है।

सुजॉय - वाह! क्या बात है! अच्छा, आपने ज़िक्र किया कि स्कूल में आपको स्पेशल अटेंशन मिलता था बक्शी साहब का बेटा होने के नाते।

राकेश जी - जी

सुजॉय - तो क्या आपको ख़ुशी होती थी, गर्व होता था, या फिर थोड़ा एम्बरेसिंग्‍ होता था, यानी शर्म आती थी?

राकेश जी - मैं आज भी बहुत ही शाई फ़ील करता हूँ जब भी इस तरह का अटेंशन मुझे मिलता है, हालाँकि मुझे उन पर बहुत बहुत गर्व है। अगर मैं ऐसे किसी व्यक्ति से मिलता हूँ जो स्टेटस में मुझसे नीचे है, तो मैं अपना सेलफ़ोन या घड़ी छुपा लेता हूँ या उन्हें नहीं जानने देता कि मैं किस गाड़ी में सफ़र करता हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि मैं उनके साथ घुलमिल जाऊँ और उनसे सहजता से पेश आ आऊँ और वो भी मेरे साथ सहजता अनुभव करें।

सुजॉय - बहुत ही अच्छी बात है यह, और कहावत भी है कि फलदार पेड़ हमेशा झुके हुए होते हैं। आनंद बक्शी साहब भी इतने बड़े गीतकार होते हुए भी बहुत सादे सरल थे, और शायद यही बात आप में भी है। अच्छा, यह बताइए कि एक पिता के रूप में बक्शी साहब कैसे थे? किस तरह का रिश्ता था आप दोनों में?

राकेश जी - वो एक सख़्त पिता थे। सेना में एक सिपाही और रॉयल इण्डियन नेवी के कडेट होने की वजह से उन्होंने हमें भी अनुशासन, पंक्चुअलिटी और अपने पैरों पर खड़े होने की शिक्षा दी। वो मुझे लेकर पैदल स्कूल तक ले जाते थे जब कि घर में गाड़ियाँ और ड्राइवर्स मौजूद थे। कॉलेज में पढ़ते वक़्त भी मैं बस और ट्रेन में सफ़र किया करता था। जब मैं काम करने लगा, तब भी मैं घर की गाड़ी और ड्राइवर को केवल रात की पार्टी में जाने के लिये ही इस्तमाल किया करता। पिताजी कभी भी सिनेमा घरों के मैनेजरों या मालिकों को फ़िल्म की टिकट भिजवाने के लिये नहीं कहते थे, क्योंकि उन्हें मालूम था कि वो पैसे नहीं लेंगे। इसलिये हम भी सिनेमाघरों के बाहर लाइन में खड़े होकर टिकट खरीदते। सिर्फ़ प्रीमियर या ट्रायल शो के लिये हमें टिकट नहीं लेना पड़ता और वो परिवार के सभी लोगों को साथ में लेकर जाते थे।

सुजॉय - वाह! बहुत मज़ा आता होगा उन दिनों!

राकेश जी - जी हाँ! रात को जब वो घर वापस आते और हमें सोये हुए पाते, तो हमारे सर पर हाथ फिराते। वो चाहते थे कि हम इंजिनीयर या डॉक्टर बनें। वो नहीं चाहते थे कि हम फ़िल्म-लाइन में आये।

सुजॉय - राकेश जी, आप किस लाइन में गये, उसके बार में भी हम आगे चलकर बातचीत करेंगे, लेकिन इस वक़्त हम और जानना चाहेंगे कि बक्शी साहब किस तरह के पिता थे?

राकेश जी - दिन के वक़्त, जब उनके लिखने का समय होता था, तब वो बहुत ही कम शब्दों के पिता बन जाते थे, लेकिन रात को खाना खाने से पहले वो हमें अपने बचपन और जीवन के अनुभवों की कहानियाँ सुनाया करते। उन्हें किताब पढ़ने का शौक था और ख़ुद पढ़ने के बाद अगर उन्हें अच्छा लगता तो हमें भी पढ़ने के लिये देते थे; ख़ास कर मासिक 'रीडर्स डाइजेस्ट'। हम देर रात तक घर से बाहर रहे, यह उन्हें पसंद नहीं था। जब हम स्कूल में थे, तब रात को खाने के वक़्त से पहले हमारा घर के अंदर होना ज़रूरी था। खेलकूद के लिये वो हमें प्रोत्साहित किया करते थे। हम पढ़ाई या करीयर के लिये कौन सा विषय चुनेंगे, इस पर उनकी कोई पाबंदी नहीं थी, उनका बस यह विचार था कि हम पढ़ाई को जारी रखें और पोस्ट-ग्रैजुएशन करें। उनको उच्च शिक्षा का मोल पता था और वो कहते थे कि यह उनका दुर्भाग्य है कि वो सातवीं कक्षा के बाद पढ़ाई जारी नहीं रख सके, देश के बँटवारे की वजह से। उनका इस बात पर हमेशा ध्यान रहता था कि हम अपनी माँ की सब से ज़्यादा इज़्ज़त करें क्योंकि उन्होंने अपनी माँ को बहुत ही कम उम्र में खो दी थी। जिन्हें माँ का प्यार मिलता है, वो बड़े ख़ुशनसीब होते हैं, ऐसा उनका मानना था।

सुजॉय - बहुत ही सच बात है! तो राकेश जी, बातों का सिलसिला जारी रहेगा, लेकिन अगले हफ़्ते। आइए आज क्योंकि बातचीत माँ पर आकर रुकी है, तो चलने से पहले बक्शी साहब का लिखा और लता जी का गाया फ़िल्म 'राजा और रंक' का गीत ही सुन लेते हैं, "तू कितनी अच्छी है"।

गीत - तू कितनी अच्छी है (राजा और रंक)


तो दोस्तों, यह था फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध गीतकार आनंद बक्शी के सुपुत्र राकेश बक्शी से बातचीत पर आधारित शृंखला 'बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनंद बक्शी' की पहली कड़ी। अगर आपके मन में भी बक्शी साहब के जीवन से संबंधित कोई सवाल है जिसका जवाब आप उनके बेटे से प्राप्त करना चाहें, तो हमें अपना सवाल oig@hindyugm.com के पते पर शीघ्रातिशीघ्र लिख भेजिये। आपका सवाल इसी शृंखला में शामिल किए जायेंगे। तो आज के लिये मुझे अनुमति दीजिये, फिर मुलाक़ात होगी, नमस्कार!

Comments

सुजॉय जी,
नमस्कार| 'पुत्र की दृष्टि में पिता' एक निराली सोच है| गीतकार आनन्द बक्शी सरल शब्दों में भावनाओं की अभिव्यक्ति देने में कुशल थे| उन्होंने अपने कई गीतों को स्वर भी दिया है| हालाँकि उनकी स्वर सीमा (रेंज) सीमित थी, किन्तु थे बेहद सुरीले| यदि सम्भव हो तो अगले किसी अंक में राकेश जी से उनकी गायकी के बारे में अवश्य पूछिएगा|
bahut hi emotional interview, mujhe agli kadiyon ka besabri se intezaar hai, filmi geeton ko rachne men bakshi sahab ka koi saani nahi tha....kitne geet hain jo unke jo hamare ang sang base hue hain aaj bhi aur rahenge sada, remebering the great man

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