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जब भी चूम लेता हूँ इन हसीन आँखों को.... कैफ़ी की "कैफ़ियत" और रूप की "रूमानियत" उतर आई है इस गज़ल में..

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८१

पि छली दस कड़ियों में हमने बिना रूके चचा ग़ालिब की हीं बातें की। हमारे लिए वह सफ़र बड़ा हीं सुकूनदायक रहा और हमें उम्मीद है कि आपको भी कुछ न कुछ हासिल तो ज़रूर हुआ होगा। यह बात तो जगजाहिर है कि ग़ालिब शायरी की दुनिया के ध्रुवतारे हैं और इस कारण हमारा हक़ बनता है कि हम उनसे वाकिफ़ हों और उनसे गज़लकारी के तमाम नुस्खे जानें। हमने पिछली दस कड़ियों में बस यही कोशिश की और शायद कुछ सफ़ल भी हुए। "कुछ" इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि ग़ालिब को पूरी तरह जान लेना किसी के बस में नहीं। फिर भी जितना कुछ हमारे हाथ आया, सारा का सारा मुनाफ़ा हीं तो था। अब जब हमें मुनाफ़े का चस्का लग हीं गया है तो क्यों ना आसमान के उस ध्रुवतारे के आस-पास टिमटिमाते, चमकते, दमकते तारों की रोशनी पर नज़र डाली जाए। ये तारे भले हीं ध्रुवतारा के सामने मंद पड़ जाते हों, लेकिन इनमें भी इतना माद्दा है, इतनी चमक है कि ये गज़ल-रूपी ब्रह्मांड के सारे ग्रहों को चकाचौंध से सराबोर कर सकते हैं। तो अगली दस कड़ियों में (आज की कड़ी मिलाकर) हम इन्हीं तारों की बातें करने जा रहे हैं। बात अब और ज्यादा नहीं घुमाई जाए तो अच्छा....इसीलिए सीधे-सीधे हम मुद्दे पर आते हैं और आज के सितारे से आप सबको रूबरू कराते हैं।

आज की कड़ी जिस शायर के नाम है, उसे मशहूर लेखक और पत्रकार "खुशवन्त सिंह" "आज की उर्दू शायरी का बादशाह" करार देते हैं। अगर यही बात है तो इस सफ़र की शुरूआत के लिए इनसे अच्छा और सटीक शायर और कौन हो सकता है। जी हाँ, हम जिनकी बात कर रहें हैं, उन्हें शायरी की दुनिया में "कैफ़ी" के नाम से जाना जाता है....जबकि उनका पूरा(मूल) नाम सैयद अख़्तर हुसैन रिज़वी है। "कैफ़ी" आज़मी के बारे में खुद कुछ कहने से अच्छा है कि उनकी सुपुत्री "शबानी आज़मी" से उनका परिचय जान लिया जाए। शबाना कहती हैं:

बाप होने के नाते तो अब्बा मुझे ऐसे लगते हैं जैसे एक अच्छा बाप अपनी बेटी को लगेगा, मगर जब उन्हें एक शायर के रूप में सोचती हूँ तो आज भी उनकी महानता का समन्दर अपरम्पार हीं लगता है। मैं ये तो नहीं कहती कि मैं उनकी शायरी को पूरी तरह समझती हूँ और उसके बारे में सब कुछ जानती हूँ, मगर फिर भी उनके शब्दों से जो तस्वीरें बनती हैं, उनके शेरों में जो ताक़त छुपी होती है, उनकी सोच का जो विस्तार है, वो मुझे हैरान-सा कर देता है। वो अपने दु:ख और अपने ग़म को भी दुनिया के दु:ख-दर्द से मिलाकर देखते हैं। उनके सपने सिर्फ़ अपने लिए नहीं, दुनिया के इन्सानों के लिए हैं। चाहे वह झोपड़पट्टी वालों के लिए काम हो या नारी अधिकार की बात या सांप्रदायिकता के विरूद्ध मेरी कोशिश, उन सब रास्तों में अब्बा की कोई न कोई नज़्म मेरी हमसफ़र है। वो "मकान" हो, "औरत" हो या "बहरूपनी" - ये वो मशालें हैं जिन्हें लेकर मैं अपने रास्तों पर चलती हूँ। दुनिया में कम लोग ऐसे होते हैं जिनकी कथनी और करनी एक होती है। अब्बा ऐसे इंसान हैं- उनके कहने और करने में कोई अंतर नहीं है। मैंने उनसे ये हीं सीखा है कि सिर्फ़ सही सोचना और सही कहना हीं काफ़ी नहीं, सही कर्म भी होने चाहिए। अब्बा की ज़िंदगी एक ऐसे इंसान, एक ऐसे शायर की कहानी है, जिसने ज़िन्दगी को पूरी तरह भरपूर जी के देखा है। इनकी शायरी में आप बार-बार देखेंगे- वो अपने दु:खों के मुंडेरों में घिर के नहीं रह जाते बल्कि अपने दु:ख को दुनिया के तमाम लोगों से जोड़ लेते हैं। फिर उनकी बात सिर्फ़ एक इन्सान के दिल की बात नहीं, दुनिया के सारे इन्सानों के दिलों की बात हो जाती है और आप महसूस करते हैं कि उनकी शायरी में सिर्फ़ उनका नहीं, हमारा-आपका-सबका दिल धड़क रहा है।

शबाना जी ने अपने अब्बा को बड़ी हीं बारीकी से याद किया। अब हम ऐसा करते हैं कि कैफ़ी आज़मी की कहानी उन्हीं की जुबानी सुनते हैं:

अपने बारे में यकीन से मैं इतना हीं कह सकता हूँ कि मैं गुलाम हिन्दुस्तान में पैदा हुआ, आज़ाद हिन्दुस्तान में बूढा हुआ और सोशलिस्ट हिन्दुस्तान में करूँगा। समाजवाद के लिए सारे संसार में और स्वयं मेरे देश में एक समय से जो महान संघर्ष हो रहा है, उससे सदैव मेरा और मेरी शायरी का संबंध रहा है। इस विश्वास ने उसी कोख से जन्म लिया है।

मैं उत्तर प्रदेश के जिला आज़मगढ के एक छोटे से गाँव में पैदा हुआ। शायरी तो एक तरह से मुझे खानदानी मिली। मेरे अब्बा सय्यद फ़तह हुसैन रिज़वी मरहूम बाक़ायदा शायर तो नहीं थे, लेकिन शायरी को अच्छी तरह समझते थे। घर में उर्दू-फ़ारसी के दीवान बड़ी संख्या में थे। मैंने ये किताबें उस उम्र में पढीं जब उनका बहुत हिस्सा समझ में नहीं आता था। मुझसे बड़े तीनों भाई भी बाक़ायदा शायर थे यानि बयाज़ (डायरी) रखते थे और तख़ल्लुस भी। सबसे बड़े भाई सैय्यद ज़फ़र हुसैन महरूम की तख़ल्लुस "मज़रूह" थी। उनसे छोटे भाई सैय्यद हुसैन की तख़ल्लुस "बेताब" थी। उनसे छोटॆ भाई सैय्यद शब्बीर हुसैन की तख़ल्लुस "वफ़ा" थी। भाई साहबान जब छुट्टियों में अलीगढ और लखनऊ से घर आते थे तो घर पर अक्सर शे’री महफ़िलें होती थीं जिनमें भाई साहबान के अलावा पूरे क़स्बे के शोअरा शरीक होते थे। भाई साहबान जब अब्बा को अपना कलाम सुनाते और अब्बा उसकी तारीफ़ करते तो मुझे ईर्ष्या होती और मैं बड़ी हसरत से अपने सवाल करता - क्या मैं बःई कभी शे’र कह सकूँगा? लेकिन मैं जब भाईयों के शे’र सुनने के लिए खड़ा हो जाता या चुपचाप कहीं बैठ जाता तो फ़ौरन किसी बुजुर्ग की डाँट पड़ती कि तुम यहाँ क्यों बैठे हो? तुम्हारी समझ में क्या आएगा? घर में जाओ और पान बनवाकर लाओ। मैं पाँव पटकता तक़रीबन रोता हुआ घर में बाजी के पास जाता कि देखिए, मेरे साथ यह हुआ। मैं एक दिन इन सबसे बड़ा शाइर बनकर दिखा दूँगा। बाजी मुस्कुराकर कहती - क्यों नहीं, तुम ज़रूर कभी बड़े शाइर बनोगे, अभी तो यह पान ले जाओ और बाहर दे आओ।

इसी उम्र में एक घटना यह है कि अब्बा बहराइच में थे, क़ज़लबाश स्टेट के मुख़्तार आम या पता नहीं क्या। वहाँ एक तरही मुशायरा हुआ। भाई साहबान लखनऊ से आए थे। बहराइच, गोण्डा, नानपारा और क़रीब-दूर के बहुत से शायर बुलाए गए थे। मुशायरे के अध्यक्ष "मानी जायसी" साहब थे। उनके शेर सुनने का एक खास तरीक़ा था कि वह शे’र सुनने के लिए अपनी जगह पर उकड़ूँ बैठ जाते और अपना सर दोनों घुटनों में दबा लेते और झूम-झूम कर शे’र सुनते और दाद देते। उस वक्त शायर सीनियरिटी से बिठाए जाते थे। एक छोटी-सी चौकी पर क़ालीन बिछा होता और गावतकिया लगा होता। जिस शायर की बारी आती वह इसी चौकी पर आकर एक तरह बहुत आदर से घुटनों के बल बैठता। मुझे मौका मिला तो मैं भी इसी तरह आदर से चौकी पर घुटनों के बल बैठकर अपनी ग़ज़ल जो "तरह" में थी, सुनाने लगा। "तरह" थी "मेहरबां होता, राज़दाँ होता"... वग़ैरह। मैंने एक शे’र पढा:

वह सबकी सुन रहे हैं सबको दाद-ए-शौक़ देते हैं,
कहीं ऐसे में मेरा क़िस्सा-ए-ग़म भी बयाँ होता!


मानी साहब को न जाने शे’र इतना क्यों पसन्द आया कि उन्होंने खुश होकर पीठ ठोंकने के लिए मेरी पीठ पर एक हाथ मारा। मैं चौंकी से ज़मीन पर आ रहा। मानी साहब का मुँह घुटनों में छिपा हुआ था इसलिए उन्होंने नहीं देखा कि क्या हुआ, झूम-झूमकर दाद देते रहे और शे’र दुबारा पढवाते रहे और मैं ज़मीन पर पड़ा-पड़ा शेर दुहराता रहा। यह पहला मुशायरा था जिसमें शायर की हैसियत से मैं शरीक़ हुआ। इस मुशायरे में मुझे जितनी दाद मिली उसकी याद से अब तक परेशान रहता हूँ। उस ज़माने में रोज़ ही कुछ न कुछ लिख किया करता था। कोई नौहा, कोई सलाम, कोई ग़ज़ल।

मेरी नज़्मों और गज़लों के अब तक चार संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं:
१. झंकार २. आखिर-ए-शब ३. आवारा सज्दे ४. इब्लिस की मज्लिस-ए-शूरा (दूसरा इज्लास)

आवारा सज्दे देवनागरी लिपि में मेरा पहला प्रकाशन है। यह मेरी कविताओं का प्रतिनिधित्व करता है। इसमें ‘झंकार’ की चुनी हुई चीज़ें भी हैं ‘आख़िर-शब’ की भी। ‘आवारा सज्दे’ मुकम्मल है। मेरी नज़्मों और ग़ज़लों के इस भरपूर संकलन के जरिए मेरे दिल की धड़कन उन लोगों तक पहुँचती है, जिनके लिए वह अब तक अजनबी थी। ’आवारा सज्दे’ की तारीफ़ कई खेमों में हुई। इसी किताब पर मुझे सोवियत लैण्ड नेहरू एवार्ड भी मिला। ’आवारा सज्दे’ पर मुझे साहित्य अकादमी ने भी इनाम दिया। मेरी पूरी साहित्यिक सेवा पर मुझे लोटस एवार्ड भी मिला।

कैफ़ी साहब यूँ तो अपनी क्रांतिकारी गज़लों और नज़्मों के लिए जाने जाते हैं लेकिन चूँकि यहाँ पर हम उनकी एक बड़ी हीं रूमानी गज़ल पेश करने जा रहे हैं तो क्या ना माहौल बनाने के लिए उनका यह शेर देख लिया जाए:

बरस पड़ी थी जो रुख़ से नक़ाब उठाने में
वो चाँदनी है अभी तक मेरे ग़रीब-ख़ाने में


और अब वक़्त है आज की गज़ल से पर्दा उठाने का। तो आज जिस गज़ल से हमारी यह महफ़िल सजने जा रही है, उसे हमने "प्यार का जश्न" एलबम से लिया है। रूप कुमार राठौर की मलाईदार आवाज़ में घुलकर यह गज़ल कुछ ज्यादा हीं मीठी हो गई है। यकीन नहीं होता तो आप खुद हीं आजमा लीजिए। यहाँ पर भले हीं हम यह गज़ल "ओडियो" रूप में आपके सामने पेश कर रहे हैं, लेकिन हम आपसे यह इल्तज़ा करेंगे कि आप इसे युट्युब पर ज़रूर देखें। आखिर "आमिर खान" और "गौरी कार्णिक" को एक-साथ देखने का मौका फिर कहाँ मिलेगा। हमें पूरा विश्वास है कि आपको यह गज़ल अवश्य पसंद आएगी:

जब भी चूम लेता हूँ इन हसीन आँखों को
सौ चिराग अंधेरे में झिलमिलाने लगते हैं।

फूल क्या, ____ क्या, चाँद क्या, सितारे क्या,
सब रक़ीब कदमों पर सर झुकाने लगते हैं।

फूल खिलने लगते हैं उजड़े-उजड़े गुलशन में,
प्यासी-प्यासी धरती पर अब्र छाने लगते हैं।

लम्हे भर को ये दुनिया ज़ुल्म छोड़ देती है,
लम्हे भर को सब पत्थर मुस्कुराने लगते हैं।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "खयाल" और शेर कुछ यूँ था-

आते हैं ग़ैब से ये मज़ामी खयाल में
"ग़ालिब" सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है

इस शब्द ने शायद शरद जी के कई सारे जज़्बात जगा दिए तभी तो शरद जी खयालों की दुनिया में ऐसे खोए कि ५-६ शेरों के बाद हीं उन्हें अपनी मदहोशी का इल्म हुआ। आपकी यह पेशकश हमें खूब पसंद आई:

रोज़ अखबारों में पढ़ कर ये ख़याल आया हमें,
इस तरफ़ आती तो हम भी देखते फ़स्ले-बहार । (दुश्यंत कुमार )

इसी ख़याल से मैं रात भर नहीं सोया,
ख्वाब में आके मुझे फिर से वो तड़पाएंगे । (स्वरचित)

कही बे-खयाल हो कर यूं ही छू लिया किसी ने
कई ख्वाब देख डाले यहाँ मेरी बे-खुदी ने ।

अवध जी, बड़ा हीं बेहतरीन शेर है ये। वाकई साहिर साहब की कलम का कोई जवाब नहीं:

आप आये तो ख्याल-ए-दिल-ए-नाशाद आया.
कितने भूले हुए ज़ख्मों का पता याद आया.

शन्नो जी, आपका इशारा किसकी तरफ़ है.. कहीं नीलम जी तो नहीं :) सच में दिल खोलकर रख दिया है आपने:

अदा का ख्याल क्या आयेगा उसको
जिसे खाकसारी से ही फुर्सत न हो.

मंजु जी, आपके शेरों में आपकी लगन, आपकी मेहनत , आपकी कोशिश झलकती है। मैं इसी का कायल हूँ।

ख़याल की महफिल में तुम जब -जब आए ,
अमावस्या भी पूर्णिमा -सी नजर है आए . (मेरे हिसाब से अमावस और पूनम ज्यादा अच्छे लगते.. )

मनु जी, जगजीत सिंह से आपकी कोई नाराज़गी है क्या। अगर नहीं तो ऐसी टिप्पणी का कारण? :)

उपासना जी (मल्लिका-ए-मक्तूब), आवाज़ पर आपके नक्श-ए-पा देखकर थोड़ी हैरत हुई तो बहुत सारा सुकून भी मिला... भले हीं बहाना "ग़ालिब" का हो, लेकिन जब एक बार आना हो हीं चुका है तो मेरे हिसाब से यह गलती बार-बार की जा सकती है :) क्या कहती हैं आप? और हाँ चचा ग़ालिब के लिए आपका यह शेर भी कमाल का है:

गुफ्तगू में रहे या ख़यालों में हो,
बात ये है कि वो यूँ ही दिल में रहे।

सीमा जी, बड़ी देर कर दी आपने इस बार। खैर.. दिल तो नहीं तोड़ा :) ये रहे आपके शेर:

मिस्ल-ए-ख़याल आये थे आ कर चले गये
दुनिया हमारी ग़म की बसा कर चले गये (फ़ानी बदायूनी )

जब कभी भी तुम्हारा ख़याल आ गया
फिर कई रोज़ तक बेख़याली रही (बशीर बद्र )

पूजा जी, चचा ग़ालिब पर आधारित यह छोटी-सी श्रृंखला पसंद करने के लिए आपका तह-ए-दिल से आभार। आपका यह शेर मैं तो समझ हीं गया था, हाँ आपने शब्दार्थ देकर बाकियों का भला ज़रूर किया है। :)

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

seema gupta said…
shagoofe
regards
seema gupta said…
वो सर-ओ-कद है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं
(फ़राज़)
शगूफ़े झूलते हैं इस चमन में भूक के झूले
बहारों में नशेमन तो बहर-ए-उनवान जलते हैं
(साग़र सिद्दीकी)
हँसते हैं मेरी सूरत-ए-मफ़्तूँ पे शगूफ़े
मेरे दिल-ए-नादान से कुछ भूल हुई है

(साग़र सिद्दीकी)

regards
शगूफ़ों को अभी से देख कर अन्दाज़ होता है
जवानी इन पे आयेगी तो आशिक हर कोई होगा।
(स्वरचित)
shanno said…
सबको हमारा आदाब..:)
चलो अच्छा है कुछ लोग तो तशरीफ़ ले आये हैं यहाँ..रौनक आ गयी महफ़िल में.. लेकिन ये हमारी गब्बर साहिबा बहुत तंग करतीं हमें..न जाने कहाँ मटरगश्ती करती रहती हैं..खुदा के नाम पर अब आ भी जाइये, प्लीज़..और नीलम जी ( गब्बर जी )..ये अबे निंद्रा जी उर्फ़ ठाकुर जी पिछली महफ़िल में गायब थे..और तन्हा जी देखिये...गायब शब्द की तो खाना-पूर्ति हम सब करते हैं शेर में..लेकिन महफ़िल में ठाकुर की पूर्ती कौन करेगा..और हमें आज टेंशन हो रही है..की हम अब तक शगूफे को ही ढूंढ रहे हैं.. पिछली बार गब्बर साहिबा को नदीम नहीं मिला था और इस बार हमें कहीं शगूफे का पता नहीं मिल रहा है.. जैसे ही मिलेगा हम फिर हाजिर होंगे उसे लेकर...होपफुली एक अपने ही लिखे शेर के साथ..अगर चोरी भी करना पड़े तब भी उसे लायेंगे..और नहीं चुरा पाये बदकिस्मती से तो खाली हाथ चले आयेंगे दुआ सलाम करने.. तो हमें आप दुआ दीजिये की हम शेर लिखने में कामयाब हों..और हाँ, चलते-चलते ये कहना ना भूलूंगी की आज की ग़जल बहुत कूल थी..मतलब की दिल को छू लेने वाली जिसे (आपके शब्दों में) राठौर जी ने अपनी मलाईदार आवाज़ में गाया था..और ग़ालिब जी के बाय-बाय कहने के बाद इस प्रोग्राम में आज से कुछ और टिमटिमाते हुये शेरो-शायरी की फेमस दुनिया के लोगों का आना-जाना होगा..जैसा आपने बताया..तो चलो हम इसका भी लुत्फ़ उठायेंगे..:)
तो अब चलूँ ? ठीक है..सबको बाय-बाय...
shanno said…
लो हम तो फिर से आये हैं..शगूफों को साथ लाये हैं..गब्बर साहिबा न दिखीं अब तक..लगता इरादे में खोट आये हैं.
हा हा हा हा...
और यह रहा मेरा इस दफा का शेर:

शगूफों की तो भरमार थी गुलशन में
पर मौसम के नखरों से न खिल पाए. - शन्नो

नीलम jiiiiiiiiiiiiiiiiiii
aaaaao
Manju Gupta said…
जवाब -शगूफे

शेर -
दिल ने शगूफों से बनाया अनमोल सेहरा ,
अरे !किस खुशनसीब का सजेगा चेहरा .
(स्वरचित )
shanno said…
सारी महफ़िल को मेरा सलाम...गब्बर साहिबा का अब तक न कोई नामो-निशान..बहुत नाइंसाफी है, bhaiiiiiiiiiiii

लीजिये अपनी तरफ से एक और शेर सबकी खिदमत में पेश है..

बगीचे में शगूफों से भरीं हैं डालियाँ
किसी से जशने का डर भी बहुत है. -शन्नो

तो फिर चलती हूँ अब :)...खुदा हाफ़िज़..
neelam said…
शगूफा, शगूफा, शगूफा
क्या अब भी याद न आया उसे मेरा फूफा

कुछ भी नहीं सूझ रहा इस गब्बर को ...........................................
इतना हल्ला क्यूँ मच रहा है ,गाँव वालों ,गब्बर कही नहीं गया सेर सोच रहा था पर खोपडिया में कुछ घुसवे नहीं किया .............बहुत ना इंसाफी है ,इ शन्नो जी हमका बहुत चाहती है चिल्ला -चिल्ला कर पूरा सर घर पे उठा देती हैं अब दिखे की नहीं चश्मा लगाई के आये हैं ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
shanno said…
तो गब्बर साहिबा..उर्फ़ नीलम जी..वेलकम..वेलकम...आप अब आयीं है वैष्णव देवी के दर्शन करने के बाद..और कहाँ-कहाँ भटकना हुआ आपका..जरा हम भी तो सुनें..और आप चश्मा लगा के हमें और सबको देख रही हैं तो हम आपको इस समय बिना चश्मे के ही देख रहे हैं..आपका मोबाइल तो कान से चिपका ही रहता है..छिपकली की तरह (हा हा ) हटने का नाम ही नहीं लेता..हा हा हा ...इस समय बड़ा तैश में हैं आप..इतना भी क्या चिल्लाना की हमारे कान के परदे ही फट जायें..इतना अबेर से आई हैं आप..ऊपर से कोई शेर-वेर भी नहीं लायीं आप...बहुत नाइंसाफी ही :):) बिना उसके तो यहाँ आना मना है..चुरा के ही..( हा हा )..ले आतीं..नहीं तो तन्हा जी से ही लिखवा लातीं...जैसे वो गायब शब्द भरवा लिया था नदीम वाले शेर में धमकी देके ...हा हा हा हा ह्ह्ह्ह.. अब आप तो अपनी धौंस के बूते पर कुछ भी करने में समर्थ हो...अब अपनी हंसी को रोकने का इंतजाम करने जाते... फिर...bye..bye..

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