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Showing posts from October, 2009

दुखी मन मेरे सुन मेरा कहना...जहाँ न गूंजे बर्मन दा के गीत वहां क्या रहना

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 248 आ ज है ३१ अक्तुबर। १९७५ साल के आज ही के दिन सचिन देव बर्मन हम सब को हमेशा के लिए छोड़ गए थे। आज उनके हमसे बिछड़े लगभग ३५ साल हो चुके हैं, लेकिन ऐसा लगता ही नहीं कि वो हमारे बीच नहीं है। उनके रचे गीत इतने ज़्यादा लोकप्रिय हैं कि आज भी हर रोज़ उनके गानें रेडियो पर सुनने को मिल जाते हैं। किसी ने ठीक ही कहा है कि एक अच्छा कलाकार ना तो कभी बूढ़ा होता है और ना ही मरता है, वो अमरत्व को प्राप्त करता है अपनी कला के ज़रिए, अपनी रचनाओं के ज़रिए, अपनी प्रतिभा के ज़रिए। सचिन देव बर्मन एक ऐसे ही संगीत शिल्पी थे। उनकी सुमधुर संगीत रचनाएँ आज भी हमारे मन की वादियों में अक्सर गूँजते ही रहते हैं। शारीरिक रूप से वो भले ही हमसे बहुत दूर चले गए हों, लेकिन उनकी आत्मा उनके ही रचे संगीत के माध्यम से दुनिया की फ़िज़ाओं में गूँजती रहती है, और गूँजती रहेगी अनंत काल तक। 'जिन पर नाज़ है हिंद को' शृंखला में सचिन देव बर्मन और साहिर लुधियानवी की जोड़ी के गीतों का सफ़र जारी है, और आज जिस सुरीले मोती को हम चुन लाए हैं वह है फ़िल्म 'फ़ंटूश' का, "दुखी मन मेरे सुन मेरा कहना

घर-जमाई - प्रेमचंद

सुनो कहानी: प्रेमचंद की "घर-जमाई" 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में हिंदी साहित्यकार प्रेमचंद की हृदयस्पर्शी कहानी " सवा सेर गेहूं " का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं मुंशी प्रेमचंद की कहानी " घर-जमाई ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 15 मिनट 59 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं ~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी इस घर में वह कैसे जाय? क्या फिर वही गालियाँ खाने, वही फटकार सुनने के लिए? ( प्रेमचंद की "घर-जमाई" से एक अंश ) नीचे के प्लेयर से सुने

ये रात ये चांदनी फिर कहाँ, सुन जा दिल की दास्ताँ....पुरअसर आवाज़ संगीत और शब्दों का शानदार संगम

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 247 सा हिर लुधियानवी और सचिन देव बर्मन को एक साथ समर्पित शृंखला 'जिन पर नाज़ है हिंद को' में आप सभी का एक बार फिर से हार्दिक स्वागत है। लता, गीता, तलत, किशोर और मन्ना दा के बाद आज जिस गायक की आवाज़ साहिर साहब के बोलों पर और दादा बर्मन की धुनों पर हवाओं में गूँजेंगी, उस गायक का नाम है हेमन्त कुमार। जब भी साहिर और सचिन दा की एक साथ बात चलती है, यकायक 'नवकेतन' बैनर की याद भी आ ही जाती है। और क्यों ना आए, इसी बैनर के तले ही तो इस गीतकार - संगीतकार जोड़ी ने ५० के दशक के शुरुआती सालों में एक से एक बेहतरीन नग़में हमें दिए थे। सचिन दा ने नवकेतन बैनर की पहली फ़िल्म 'अफ़सर' में संगीत दिया था १९५० में। उसके बाद १९५१ में आई सुपरहिट फ़िल्म 'बाज़ी', जिसका एक गीत आप सुन चुके हैं। १९५२ में नवकेतन ने बनाई 'आंधियाँ', लेकिन इसके संगीत के लिए चुना गया था उस्ताद अली अक़बर ख़ान साहब को। देव आनंद और कल्पना कार्तिक अभिनीत यह फ़िल्म नहीं चली, लेकिन हेमन्त दा का गाया "दिल है किसी दीवाने का" गीत मशहूर हुआ था। १९५२ में भले ही बर्मन दादा ने

आन मिलो आन मिलो श्याम साँवरे...लोक धुनों पर भी बेहद सुरीले गीत रचे साहिर और बर्मन दा की जोड़ी ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 246 'जि न पर नाज़ है हिंद को' शृंखला इन दिनों आप सुन रहे हैं जिसके अंतर्गत हम आपको साहिर लुधियानवी के लिखे कुछ ऐसे गानें सुनवा रहे हैं जिन्हे सचिन देव बर्मन ने संगीतबद्ध किए हैं। युं तो इस जोड़ी ने बहुत सारे लाजवाब गीत हमें दिए हैं, लेकिन हमने उस ख़ज़ाने में से १० मोतियों को चुन लाए हैं, और हमें उम्मीद है कि आपको हमारे चुने हुए ये गानें पसंद आ रहे होंगे। आज की कड़ी के लिए हमने चुना है मन्ना डे और गीता दत्त का गाया एक भक्ति मूलक रचना। ये भजन है १९५५ की फ़िल्म 'देवदास' का "आन मिलो आन मिलो श्याम साँवरे आन मिलो, बृज में अकेली राधे खोई खोई सी रे"। 'देवदास' फ़िल्म से जुड़ी तमाम बातें हमने आपको उस दिन बताई थी जिस दिन हमने आपको इस फ़िल्म से लता जी का गाया " जिसे तू क़बूल कर ले वो अदा कहाँ से लाऊँ " सुनवाया था। बंगाल की पृष्ठभूमि पर आधारित पीरियड फ़िल्म होने की वजह से इस फ़िल्म के गीत संगीत में उसी पुराने बंगाल को जीवित करना था। ऊर्दू के शायर होते हुए भी साहिर साहब ने जो न्याय इस फ़िल्म के गीतों के साथ किया है, इस फ़िल्म के गी

'नर हो न निराश करो मन को' को संगीतबद्ध कीजिए और जीतिए रु 7000 के नगद पुरस्कार

पिछले महीने हमने गीतकास्ट प्रतियोगिता में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता 'कलम, आज उनकी जय बोल' को संगीतबद्ध कविता करने की प्रतियोगिता आयोजित की थी। छठवीं गीतकास्ट प्रतियोगिता के आयोजन की उद्‍घोषणा करने में हमें लगभग 20 दिनों का विलम्ब हुआ क्योंकि कोई प्रायोजक नहीं मिल पाया था। परंतु जहाँ चाह है, वहाँ राह है। दुनिया में साहित्य और भाषा प्रेमियों की कमी नहीं है। जब हमने छठवीं गीतकास्ट प्रतियोगिता का प्रायोजक बनने का प्रस्ताव उत्तरी आयरलैण्ड के क्वीन'स विश्वविद्यालय के शोधार्थी दीपक मशाल के समक्ष रखा तो उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। इन्होंने यह ज़रूर कहा कि रु 7000 की धनराशि एक विद्यार्थी के लिए जुटाना थोड़ा मुश्किल है, तो ये अपने दो अन्य शोधार्थी मित्रों को इस आयोजन के प्रायोजकों में जोड़ना चाहेंगे। हमने इन तीन शोधार्थी मित्रों के साथ मिलकर छठवीं गीतकास्ट प्रतियोगिता में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की कविता ' नर हो न निराश करो मन को ' का निश्चय किया है। दीपक मशाल एक कवि भी हैं और सितम्बर 2009 के यूनिकवि घोषित किये गये हैं। दीपक के अनुसार इनके दादाजी राम बि

जाएँ तो जाएँ कहाँ....तलत की आवाज़ में उठे दर्द के साथी बने साहिर और बर्मन दा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 245 १९५४ की फ़िल्म 'आर पार' की कहानी टैक्सी ड्राइवर कालू (देव आनंद) की थी। फ़िल्म में दो नायिकाएँ हैं, जिनमें से एक के पिता अंडरवर्ल्ड से जुड़ा हुआ है और वो चाहता है कि कालू भी उसके साथ मिल जाए ताकि वो जल्दी अमीर बन जाए। कालू भी ख़ुद अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता है, लेकिन सही रास्तों पर चलकर या ग़लत राह पकड़कर? यही थी 'आर पार' की मूल कहनी। गुरु दत्त साहब ने अपनी प्रतिभा से इस साधारण कहानी को एक असाधारण फ़िल्म में परिवर्तित कर चारों ओर धूम मचा दी। और इसी कामयाबी से प्रेरित होकर आनंद भाइयों ने इसी साल १९५४ में अपने 'नवकेतन' के बैनर तले इसी भाव को आगे बढ़ाते हुए एक और फ़िल्म के निर्माण का निश्चय किया। और इस बार फ़िल्म का शीर्षक भी रखा गया 'टैक्सी ड्राइवर'। चेतन आनंद ने फ़िल्म का निर्देशन किया, विजय आनंद ने कहानी लिखी, और देव साहब नज़र आए टैक्सी ड्राइवर मंगल के किरदार में। नायिका बनीं कल्पना कार्तिक। गीतकार साहिर लुधियानवी और संगीतकार सचिन देव बर्मन की जोड़ी ने एक बार फिर से अपना जादू दिखाया और इस फ़िल्म के लिए बने कुछ यादगार सदाबह

इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हमने...."अदा" के तखल्लुस से गज़ल कह रहे हैं शहरयार साहब

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५७ आ ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं सीमा जी की पसंद की आखिरी गज़ल लेकर। सीमा जी की पसंद औरों से काफ़ी अलहदा है। अब आज की गज़ल को हीं ले लीजिए। लोग अमूमन मेहदी हसन साहब, गुलाम अली साहब या फिर जगजीत सिंह जी की गज़लों की फ़रमाईश करते हैं, लेकिन सीमा जी ने जिस गज़ल की फ़रमाईश की है, उसे आशा ताई ने गाया है। इस गज़ल की एक और खासियत है और खासियत यह है कि आज की गज़ल और आज से दो कड़ी पहले पेश की गज़ल (जिसकी फ़रमाईश सीमा जी ने हीं की थी) में दो समानताएँ हैं। दो कड़ी पहले हमने आपको "गमन" फिल्म की गज़ल सुनाई थी और आज हम "उमराव जान" फिल्म की गज़ल लेकर आप सबके सामने हाज़िर हैं। इन दोनों फ़िल्मों का निर्माण मुज़फ़्फ़र अली ने किया था और इन दोनों गज़लों के गज़लगो शहरयार हैं। ऐसा लगता है कि मुज़फ़्फ़र अली हमारी महफ़िल के नियमित मेहमान बन चुके हैं। अब चूँकि मुज़फ़्फ़र अली और शहरयार के बारे में हम बहुत कुछ कह चुके हैं, इसलिए क्यों न आज आशा ताई के बारे में बातें की जाएँ। ८ सितम्बर १९३३ को जन्मी आशा ताई अब ७६ साल की हो चुकी हैं, लेकिन उन्हें सुनकर उनकी उम्र का तनिक भी भान

तुम न जाने किस जहाँ में खो गए...पूछते हैं संगीत प्रेमी आज भी बर्मन दा और साहिर को याद कर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 244 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों जारी है गीतकार साहिर लुधियानवी और संगीतकार सचिन देव बर्मन के संगीतबद्ध गीतों की ख़ास लघु शॄंखला 'जिन पर नाज़ है हिंद को'। दोस्तों, सन् १९५१ की बात करें तो अब तक हमने दो फ़िल्में, 'नौजवान' और 'बाज़ी' के एक एक गीत सुनें हैं इस शृंखला में। १९५१ पहला पहला साल था साहिर साहब और सचिन दा के सुरीले साथ का। और यह पहला ही साल इतना धमाकेदार रहा है कि हम बार बार मुड़ रहे हैं उसी साल की ओर। कम से कम एक और मशहूर गीत सुनवाए बग़ैर हम इस साल की चर्चा ख़त्म ही नहीं कर सकते। यह गीत है फ़िल्म 'सज़ा' का। फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने का यह भी एक 'टाइमलेस क्लासिक' है, जिसे आज भी जुदाई के दर्द में डूबी प्रेमिकाएँ मन ही मन गा उठती हैं। "तुम न जाने किस जहाँ में खो गए, हम भरी दुनिया में तन्हा हो गए"। जी. पी. सिप्पी, जो कराची में एक नामचीन शख़्स हुआ करते थे, देश के बँटवारे के बाद भारत आ गए और फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में क़दम रखा जी. पी. प्रोडक्शन्स के बैनर के साथ। १९५१ में उन्होने बना डाली फ़िल्म '

टिप टिप टिप... देख के अकेली मोहे बरखा सताए...गीता दत्त का चुलबुला अंदाज़ खिला साहिर-सचिन दा की जोड़ी संग

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 243 सा हिर लुधियानवी और सचिन देव बर्मन की जोड़ी को सलाम करते हुए हमने शुरु की है यह विशेष शृंखला 'जिन पर नाज़ है हिंद को'। पहली कड़ी में आप ने इस जोड़ी की पहली फ़िल्म 'नौजवान' का गीत सुना था जो बनी थी सन् '५१ में; फिर दूसरी कड़ी में १९५५ की फ़िल्म 'मुनीमजी' का एक गीत सुना। आज इसकी तीसरी कड़ी में एक बार फिर से हम चलेंगे सन् १९५१ की ही तरफ़ और सुनेंगे फ़िल्म 'बाज़ी' का एक बड़ा ही चुलबुला सा गीत गीता रॉय और सखियों की आवाज़ों में। फ़िल्म संगीत के हर युग में बरसात पर, सावन पर असंख्य गानें लिखे गए हैं, जिनमें से अधिकतर काफ़ी लोकप्रिय भी हुए हैं। आज का गीत भी बरखा रानी को ही समर्पित है। लेकिन यह गीत दूसरे गीतों से बहुत अलग है। "देख के अकेली मोहे बरखा सताए, गालों को चूमे कभी छींटें उड़ाए रे, टिप टिप टिप टिप टिप"। टिप टिप बरसते हुए पानी को शरारती क़रार दिया है साहिर साहब ने इस गीत में। किसी सुंदर कमसिन लड़की को देख कर किस तरह से बरखा रानी उसे छेड़ती है, यही भाव है इस गीत का। सचिन दा ने इस शरारती और चुलबुली अंदाज़ वाले इस गीत

रफा दफा किया नहीं जाए....नए दौर के गीतकारों, संगीतकारों और गायकों के लिए बस यही कहेंगें हम भी

ताजा सुर ताल TST (33) दोस्तों, ताजा सुर ताल यानी TST पर आपके लिए है एक ख़ास मौका और एक नयी चुनौती भी. TST के हर एपिसोड में आपके लिए होंगें तीन नए गीत. और हर गीत के बाद हम आपको देंगें एक ट्रिविया यानी हर एपिसोड में होंगें ३ ट्रिविया, हर ट्रिविया के सही जवाब देने वाले हर पहले श्रोता की मिलेंगें २ अंक. ये प्रतियोगिता दिसम्बर माह के दूसरे सप्ताह तक चलेगी, यानी 5 अक्टूबर से १४ दिसम्बर तक, यानी TST के ४० वें एपिसोड तक. जिसके समापन पर जिस श्रोता के होंगें सबसे अधिक अंक, वो चुनेगा आवाज़ की वार्षिक गीतमाला के 60 गीतों में से पहली 10 पायदानों पर बजने वाले गीत. इसके अलावा आवाज़ पर उस विजेता का एक ख़ास इंटरव्यू भी होगा जिसमें उनके संगीत और उनकी पसंद आदि पर विस्तार से चर्चा होगी. तो दोस्तों कमर कस लीजिये खेलने के लिए ये नया खेल- "कौन बनेगा TST ट्रिविया का सिकंदर" TST ट्रिविया प्रतियोगिता में अब तक- पिछले एपिसोड में तन्हा जी ने इस बार फुर्ती दिखाई, और दो सही जवाब देकर चार अंक बटोर लिए, पर सीमा जी ने भी २ अंक चुरा ही लिए अंतिम सवाल का सही जवाब देकर, तो दोस्तों मुकाबला अब सीधे सीधे सीमा

जीवन के सफर में राही मिलते है बिछुड़ जाने को...और बिछड़ गया वो संजीदा शायर हमसे

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 242 "रो ..रो के इन्ही राहों में खोना पड़ा एक अपने को, हँस हँस के इन्ही राहों में अपनाया था बेगाने को। जीवन के सफ़र में राही मिलते हैं बिछड़ जाने को, और दे जाते हैं यादें तन्हाई में तड़पाने को"। ये पंक्तियाँ सुनने में निराशावादी भले ही लगे, लेकिन है बिल्कुल सच। आज २५ अक्तुबर का दिन हम सब के लिए एक आम तारीख़ हो सकता है, लेकिन साहित्य और फ़िल्म संगीत के रसिकों के लिए आज का दिन यादगार दिन है, क्योंकि आज है महान शायर व गीतकार साहिर लुधियानवी साहब की पुण्यतिथि। २५ अक्तुबर १९८० के दिन इस दुनिया-ए-फ़ानी को हमेशा के लिए छोड़ गये थे साहिर साहब, और अपने पीछे छोड़ गए अपने शब्दों का एक ऐसा महासागर जिसमें मोतियाँ हैं अनगिनत, और जिनमें सुरीली तरंगें हैं बेशुमार! साहिर लुधियानवी और सचिन देव बर्मन पर केन्द्रित शृंखला 'जिन पर नाज़ है हिंद को' का आज का यह अंक समर्पित है साहिर साहब की पुण्य स्मृति को। मोह भंग, विद्रोह और निराशा के सुर साहिर लुधियानवी की ज़िंदगी के हिस्से बन गए थे। पिता का दुर्व्यवहार और कॊलेज का पहला असफ़ल प्रेम उनके कोमल मन पर गहरा असर कर गया था

हिन्दी के कवि-सम्मेलन में हिन्दी

तकनीकी दौर में कवि सम्मेलन का एक रूप यह भी रश्मि प्रभा खुश्बू रश्मि प्रभा पिछले 6 महीने से हिन्द-युग्म के विशेष कार्यक्रम पॉडकास्ट कवि सम्मेलन का संचालन कर रही हैं। रश्मि अपनी मातृभाषा हिन्दी से बहुत स्नेह रखती हैं। शायद इसीलिए इन्होंने इच्छा जाहिर की कि अक्टूबर 2009 का कवि सम्मेलन 'हिन्दी' विषय पर आयोजित किया जाये ताकि इसी माध्यम से हिन्दी भाषा की स्थिति, इसे बोलने वालों की अपनी भाषा के प्रति सरोकार और प्रतिबद्धता का जायजा लिया जा सके। दुनिया की लाखों बोलियों और हज़ारों भाषाओं पर विलुप्त होने का संकट मंडरा रहा है। बाज़ार के इस समय में बिकने और बेचने वाली वस्तुओं का मोल है। इसलिए हिन्दी जहाँ बाज़ार का हिस्सा है, वहाँ फल-फूल रही है। इस दुनिया में नैतिकता, कर्तव्य-बोध के नाम पर किसी भी चीज़ को जिंदा नहीं रखा जा सकता, इसलिए पुस्तकों में भाषा को माँ जैसा स्थान मिलने के बावजूद हिन्दी को वर्तमान पीढ़ी में नहीं रोंपा जा सका है। रोंपा भी कैसे जाये- अब तो शुभकामनाओं के बाज़ार में भी देवनागरी की दुकान नहीं है। खैर, हम इसमें ख़ाहमख़ाह उलझ रहे हैं। आइए कवि-उद्‍गारों से सजी इस महफिल में कोन

ठंडी हवाएं लहराके आये....साहिर, बर्मन दा और लता का संगम

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 241 हिं दी फ़िल्म संगीत जगत में गीतकार-संगीतकार की जोडियाँ कोई नई बात नहीं है। चाहे आरज़ू लखनवी व आर. सी. बोराल की जोड़ी हो, या क़मर जलालाबादी व हुस्नलाल भगतराम की जोड़ी, शैलेन्द्र/हसरत - शंकर जयकिशन हो, या फिर शक़ील-नौशाद की जोड़ी, फ़िल्म संगीत के हर युग में, हर दौर में इस तरह की जोडियों की भरमार रही है। इन में से कुछ कलाकार ऐसे भी थे जिन्होने एक से ज़्यादा जोडियाँ बनाई। ऐसे ही एक गीतकार थे साहिर लुधियानवी और ऐसे ही एक संगीतकार थे सचिन देव बर्मन। साहिर साहब ने सचिन दा के साथ तो काम किया ही, संगीतकार रवि के साथ भी उनकी ट्युनिंग् बहुत अच्छी जमी। ठीक उसी तरह सचिन दा के साथ साहिर के अलावा गीतकार शैलेन्द्र, मजरूह, नीरज और कुछ हद तक आनंद बक्शी ने अच्छी पारी खेली। दोस्तों, कितनी अजीब बात है कि २५ अक्तुबर को साहिर साहब की पुण्य तिथि है और उसके ठीक ६ दिन बाद, ३१ अक्तुबर को है बर्मन दादा की पुण्य तिथि। इसलिए इन दो महान कलाकारों की जोड़ी को एक साथ स्मरण करने का यही उचित समय है, और उन्होनें एक साथ मिलकर जो सदाबहार नग़में हमें दिए हैं उन्हे एक बार फिर सुनने का यही एक लाजवा

सवा सेर गेहूं - प्रेमचंद

सवा सेर गेहूं - प्रेमचंद सुनो कहानी: प्रेमचंद की "सवा सेर गेहूं" 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में हिंदी साहित्यकार प्रेमचंद की हृदयस्पर्शी कहानी " ज्योति " का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं मुंशी प्रेमचंद की कहानी " सवा सेर गेहूं ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 15 मिनट 59 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं ~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी महात्मा जी ने भोजन किया। लम्बी तान कर सोये। प्रातःकाल आर्शीवाद देकर अपनी राह ली। ( प्रेमचंद की "सवा सेर गेहूं" से एक अंश ) नीचे

ऐ दिल है मुश्किल जीना यहाँ.....बॉम्बे माफ़ कीजियेगा मुंबई मेरी जान का नारा लगते गीता दत्त और रफी साहब

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 240 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में आज बारी है गीता दत्त और मोहम्मद रफ़ी साहब के गाये एक युगल गीत की। जो श्रोता व पाठक हमसे हाल में जुड़े हैं, उनकी सहूलीयत के लिए हम यहाँ बता दें कि इससे पहले इस महफ़िल में दो रफ़ी-गीता डुएट्स् बज चुके हैं, पहला गीत था फ़िल्म 'मिस्टर ऐंड मिसेस ५५' का "जाने कहाँ मेरा जिगर गया जी", और दूसरा गीत था फ़िल्म 'मिलाप' का "बचना ज़रा ये ज़माना है बुरा"। और आज तीसरी बार हम किसी रफ़ी-गीता डुएट लेकर हाज़िर हुए हैं। युं तो रफ़ी साहब और गीता जी ने एक साथ कई रोमांटिक गीत गाए हैं, लेकिन उनमें एक हल्की फुल्की कॉमेडी का अंग भी हमेशा रहा है जिसकी चुलबुलाहट हमें गुदगुदा जाती है, फिर चाहे संगीतकार सचिन देव बर्मन हो या फिर हमारे नय्यर साहब। आज सुनिए ओ. पी. नय्यर के संगीत में मजरूह साहब की एक और सुप्रसिद्ध रचना फ़िल्म 'सी. आइ. डी' से। इस फ़िल्म से शम्शाद बेग़म का गाया "बूझ मेरा क्या नाव रे" आप सुन चुके हैं इस महफ़िल में और इस फ़िल्म के बारे में हम आपको बता भी चुके हैं। आज के इस प्रस्तुत गीत के बारे मे

ऐ राहत-ए-जाँ मुझको रुलाने के लिए आ...."फ़राज़" के शब्द और "रूना लैला" की आवाज़...

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५६ आ ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं सीमा जी की पसंद की चौथी गज़ल लेकर। आज की गज़ल पिछली तीन गज़लों की हीं तरह खासी लोकप्रिय है। न सिर्फ़ इस गज़ल के चाहने वाले बहुतेरे हैं, बल्कि इस गज़ल के गज़लगो का नाम हर गज़ल-प्रेमी की जुबान पर काबिज़ रहता है। इस गज़ल को गाने वाली फ़नकारा भी किसी मायने में कम नहीं हैं। हमारे लिए अच्छी बात यह है कि हमने महफ़िल-ए-गज़ल में इन दोनों को पहले हीं पेश किया हुआ है...लेकिन अलग-अलग। आज यह पहला मौका है कि दोनों एक-साथ महफ़िल की शोभा बन रहे हैं। तो चलिए हम आज की महफ़िल की विधिवत शुरूआत करते हैं। उससे पहले एक आवश्यक सूचना: ५६ कड़ियों से महफ़िल सप्ताह में दो दिन सज रही है। शुरू की तीन कड़ियो में हमने दो-दो गज़लें पेश की थीं और उस दौरान महफ़िल का अंदाज़ कुछ अलग हीं था। फिर हमे उस अंदाज़, उस तरीके, उस ढाँचे में कुछ कमी महसूस हुई और हमने उसमें परिवर्त्तन करने का निर्णय लिया और वह निर्णय बेहद सफ़ल साबित हुआ। अब चूँकि उस निर्णय पर हमने ५० से भी ज्यादा कड़ियाँ तैयार कर ली हैं तो हमें लगता है कि बदलाव करने का फिर से समय आ गया है। तो अभी तक हम जिस निष्कर्ष